गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

Apara ekadashi (अपरा एकादशी)

महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था। राजा का छोटा भाई वज्रध्वज बड़े भाई से द्वेष रखता था। एक दिन अवसर पाकर इसने राजा की हत्या कर दी और जंगल में एक पीपल के नीचे गाड़ दिया। अकाल मृत्यु होने के कारण राजा की आत्मा प्रेत बनकर पीपल पर रहने लगी। मार्ग से गुजरने वाले हर व्यक्ति को आत्मा परेशान करती। एक दिन एक ऋषि इस रास्ते से गुजर रहे थे। इन्होंने प्रेत को देखा और अपने तपोबल से उसके प्रेत बनने का कारण जाना।

ऋषि ने पीपल के पेड़ से राजा की प्रेतात्मा को नीचे उतारा और परलोक विद्या का उपदेश दिया। राजा को प्रेत योनी से मुक्ति दिलाने के लिए ऋषि ने स्वयं अपरा एकादशी का व्रत रखा और द्वादशी के दिन व्रत पूरा होने पर व्रत का पुण्य प्रेत को दे दिया। एकादशी व्रत का पुण्य प्राप्त करके राजा प्रेतयोनी से मुक्त हो गया और स्वर्ग चला गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि अपरा एकादशी पुण्य प्रदाता और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाली है। ब्रह्मा हत्या से दबा हुआ, गोत्र की हत्या करने वाला, गर्भस्थ शिशु को मारने वाला, परनिंदक, परस्त्रीगामी भी अपरा एकादशी का व्रत रखने से पापमुक्त होकर श्री विष्णु लोक में प्रतिष्ठित हो जाता है। 

माघ में सूर्य के मकर राशि में होने पर प्रयाग में स्नान, शिवरात्रि में काशी में रहकर व्रत, गया में पिंडदान, वृष राशि में गोदावरी में स्नान, बद्रिकाश्रम में भगवान केदार के दर्शन या सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में स्नान और दान के बराबर जो फल मिलता है, वह अपरा एकादशी के मात्र एक व्रत से मिल जाता है। अपरा एकादशी को उपवास करके भगवान वामन की पूजा से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। इसकी कथा सुनने और पढ़ने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था। उसका छोटा भाई वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी था। वह अपने बड़े भाई से द्वेष रखता था। उस अवसरवादी पापी ने एक दिन रात्रि में अपने बड़े भाई की हत्या करके उसकी देह को एक जंगली पीपल के नीचे गाड़ दिया। इस अकाल मृत्यु से राजा प्रेतात्मा के रूप में उसी पीपल पर रहने लगा और अनेक उत्पात करने लगा। अकस्मात एक दिन धौम्य नामक ॠषि उधर से गुजरे। उन्होंने प्रेत को देखा और तपोबल से उसके अतीत को जान लिया। अपने तपोबल से प्रेत उत्पात का कारण समझा। ॠषि ने प्रसन्न होकर उस प्रेत को पीपल के पेड़ से उतारा तथा परलोक विद्या का उपदेश दिया। दयालु ॠषि ने राजा की प्रेत योनि से मुक्ति के लिए स्वयं ही अपरा (अचला) एकादशी का व्रत किया और उसे अगति से छुड़ाने को उसका पुण्य प्रेत को अर्पित कर दिया। इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई। वह ॠषि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को चला गया।

Daily puja Rules (दैनिक पूजा नियम)

नित्य के नियम, दैनिक क्रम के क्रम में ब्रह्म मुहूर्त में जग जाना चाहिये। अत्यन्त विवशताओं को छोड़कर अधिक समय तक सोना निषिद्ध है।  
करावलोकन (कर दर्शन​)
प्रात​: उठकर अपने दोनों हाथों को सामने फैलाकर निम्न श्लोक पढ़ते हुए अपने हथेलियों का दर्शन करें ।

कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम॥


पृथ्वी से क्षमा प्रार्थना




करावलोकन के बाद माता पृथ्वी को नमस्कार करें।

समुद्रवसने देवि! पर्वतस्तनमण्डले। 
विष्णुपत्नि! नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥

सामग्री
अब शौच क्रिया इत्यादि करके स्नान करें! साफ वस्त्र पहनकर पूजा के लिए सामग्री का अवलोकन करें ।
साफ ताजा जल, पुष्प​ (फूल​) एक छोटा कपड़े का टुकड़ा, चावल, चन्दन​, धूपबत्ती, कपूर, प्रसाद के लिए मेवा, मिश्री, गरुण घण्टी, शंख, कुशा, तुलसी, पंचपात्र, हवन धूप, छोटा हवन कुण्ड, गाय के गोवर का उपला या आम की लकड़ी ।

सावधानीयाँ
  1. चन्दन तांबे की कटोरी में न रखें।
  2. फूल पानी में न रखें, फूल टूटे न हों।
  3. पूजा के वर्तन तांबे या पीतल के हों।
  4. पूजा के समय लाल आसन (कम्बल​) में बैठें।
  5. पूर्वजों की तस्वीर हमेसा उत्तर की दिवार में लगाएं।
  6. पूजा के लिए हमेसा पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें।
  7. घर में दो शंख रखने से कलह होता है! अत: एक शंख ही रखें।
  8. पूजा स्थान जहां देवी देवताओं के तस्वीर हैं वहां अपने पूर्वजों का तस्वीर न रखें।
  9. पूजा के समय साफ और धुले कपड़े पहनें! हो सके तो धोती, कुर्ते का उपयोग करें।
  10. पूजा में दो गणपती जी, तीन शालिग्राम​, चार शिव लिंग न रखें! इनकी संख्या एक ही रहे तो लाभ मिलता है।
पूजन प्रारम्भ
ॐ केशवाय नम​:, ॐ माधवाय नम​:, नारायणाय नम​:।
हाथ धुलें-  ऋषिकेशाय नम​:।

पहले शुद्ध घी का एक दीपक जलाकर, दीपक के नीचे पांच दाने चावल के रखकर चन्दन पुष्प से पूजा करें। अब अपने ईष्टदेव से प्रार्थना करें । हे देव मैं आपकी सेवा करने में असमर्थ हूँ, फिर भी अपने कर्मानुशार आपको स्नान कराने जा रहा हूँ । आप मेरी यह सेवा स्वीकार करें ।  ऐसा निवेदन करते हुए ईष्टदेव की प्रतिमा को तांबे के एक पात्र में स्थापित कर स्नान करायें । इस  समय द्वादशाक्षर या पंचाक्षर या नवाक्षर मंत्र को मुख से उच्चारित करते जायें । स्नान कराने के बाद एक छोटे साफ कपड़े से प्रतिमा को हल्के हाथ से साफ करें । अब प्रतिमा को यथा स्थान स्थापित करें । अब ईष्टदेव के चरणों में शुगन्धित चन्दन का लेप लगायें, चावल को पानी से साफ करके दो दानें उनके चरणों में अर्पित करें, इसके बाद पुष्प चरणों में अर्पित करें । 

अब शुगन्धित धूप जलाकर  सबसे पहले चरणों की ओर तीन बार ऊदर में तीन बार ह्रदय में तीन बार​और मस्तक में तीन बार घुमाएं फिर पांच बार सर्वांग में घुमाएं । यही क्रम कपूर जलाके करें, या जो दीपक जल रहा है उसी से यह क्रिया कर सकते हैं । अब हाथ धुलकर पीतल की कटोरी में मिश्री, मेवारखें उसमें तुलसी का एक पत्र रखें और देव को निवेदित करें । निवेदित करके भोग प्रसाद के चारो ओर जल की धार दें, साथ ही गरुण घण्टी की ध्वनी करें । बाद में शंख बजायें । इस प्रकार भोग लगाकर आप चालीसा, कवच​, सूक्त आदि का पाठ करें । यदि श्लोक के अक्षरों को पढ़ने में कठिनाई हो रही हो तो रामायणजी का नित्य पांच दोहे का पाठ कर सकते हैं। अब देव को जल निवेदित करें, अब हमारे ईष्टदेव की सेवा में जो इन्द्रादि देवता हैं उन्हें पुष्ट कराने के लिए हवन कुण्ड में उपले या आम की लकड़ियों के द्वारा आग जलायें, चन्दन पुष्प चावल से अग्नीदेव की पूजा करें । हवन साकल्यया धूप में काली तिल, जव, गुड़​, और घी, थोड़ा चावल मिलाकर आग में आहूती दें ।

ॐ गं गणपतये नम​: स्वाहा। ईष्टदेवताय नम​: स्वाहा। इन्द्राय नम​: स्वाहा। सूर्याय नम​: स्वाहा। सर्वदेवताभ्यो नम​: स्वाहा। अब अपने गुरु मंन्त्र से भी तीन आहूती दें । बाद जल एक आचमनी जलघुमायें ।  एक नया दीपक जलाकर देव की पुन: आरती उतारें ।आरती उतारने का अर्थ होता है; नजर या थकान को दूर करना, हमारे द्वारा हमारे ईष्टदेव को नजरन लगे या भोग पाने से जो उन्हें थकान हुई, उसे दूर करने के लिए हम आरती करते हैं या नजर उतारते हैं ।

आरती उतारने के बाद एक आचमनी जल घुमादें, और हाथ जोड़कर देव से क्षमा प्रार्थना करें । अब जलका पात्र लेकर सूर्यनारायण को जल दें और गायत्री मंत्र का उच्चरण करें । ऐसी पूजा की वीधी नित्य करने से आपमें और आपके परिवार में धन​, ऐश्वर्य​, कीर्ती की कोई कमी नहीं रहेगी । पूजा की इस क्रिया का अपने में अभ्यास लायें, साथ ही अपने माता-पिता और गुरू जनों का आशिर्वाद लें। नित्यौनके चरण स्पर्स करें, जिससे आपको एक न​ई उर्जा मिलेगी । गरीबों की  सहायता करें, अतिथीयों का स्वागत पहले जल देकर करें बाद में उनके आने का कारण पूछें, यही हमारे संस्कार हैं। 

कुछ निषेध बातें

  1. माता दुर्गा को दूब नहीं चढ़ाना चाहिए ।
  2. गणपती जी को तुलसी पत्र का भोग वर्जित है ।
  3. स्त्रियों को शंख नहीं बजाना चाहिए ।
  4. भगवान विष्णु को बिना तुलसी पत्र का भोग स्वीकार नहीं है ।
  5. स्त्रियाँ हनुमान चालीसा न पड़ें ऐसा किसी शास्त्र का आदेश नहीं, अत​: महिलाएं भी हनुमान चालीसा का पाठ कर सकती हैं ।
  6. भगवान विष्णु को चावल 
  7. नहीं चढ़ाना चाहिए ।
  8. सूर्यदेव को बेलपत्र नहीं चढ़ाना चाहिए ।
  9. माता दुर्गा को दूबा नहीं चढ़ाना चाहिए । 
  10. भगवान शिव और श्रीगणेश को तुलसी नहीं चढाया जाता है।​

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

Mantras's power (मंत्रों की शक्ति)


मननेन त्रायते इति मन्त्रः - जो मनन करने पर त्राण दे वह मन्त्र है। मन्त्र भी एक प्रकार की  वाणी है, परन्तु साधारण वाक्यों के समान वे हमको बन्धन में नहीं डालते, बल्कि बन्धन से मुक्त करते हैं। काफी चिन्तन-मनन के बाद किसी समस्या के समाधान के लिये जो उपाय।विधि।युक्ति निकलती है उसे भी सामान्य तौर पर मंत्र कह देते हैं। "षड कर्णो भिद्यते मंत्र"    (छ: कानों में जाने से मंत्र नाकाम हो जाता है) - इसमें भी मंत्र का यही अर्थ है।
मंत्र वह ध्वनि है जो अक्षरों एवं शब्दों के समूह से बनती है।  यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक तरंगात्मक ऊर्जा से व्याप्त है जिसके दो प्रकार हैं - नाद (शब्द) एवं प्रकाश। आध्यात्मिक धरातल पर इनमें से कोई भी एक प्रकार की ऊर्जा दूसरे के बिना सक्रिय नहीं होती। मंत्र मात्र वह ध्वनियाँ नहीं हैं जिन्हें हम कानों से सुनते हैं, यह ध्वनियाँ तो मंत्रों का लौकिक स्वरुप  हैं.
ध्यान की उच्चतम अवस्था में साधक का आध्यात्मिक व्यक्तित्व पूरी तरह से प्रभु के साथ  एकाकार हो जाता है जो अन्तर्यामी है. वही सारे ज्ञान एवं ऽशब्दऽ (ॐ) का स्रोत है. प्राचीन ऋषियों ने इसे शब्द-ब्रह्म की संज्ञा दी - वह शब्द जो साक्षात ईश्वर है! उसी सर्वज्ञानी शब्द-ब्रह्म से एकाकार होकर साधक मनचाहा ज्ञान प्राप्त कर सकता है.

मंत्रों की शक्ति तथा इनका महत्व ज्योतिष में वर्णित सभी रत्नों एवम उपायों से अधिक है। मंत्रों के माध्यम से ऐसे बहुत से दोष बहुत हद तक नियंत्रित किए जा सकते हैं जो रत्नों तथा अन्य उपायों के द्वारा ठीक नहीं किए जा सकते। ज्योतिष में रत्नों का प्रयोग किसी कुंडली में केवल शुभ असर देने वाले ग्रहों को बल प्रदान करने के लिए किया जा सकता है तथा अशुभ असर देने वाले ग्रहों के रत्न धारण करना वर्जित माना जाता है क्योंकि किसी ग्रह विशेष का रत्न धारण करने से केवल उस ग्रह की ताकत बढ़ती है, उसका स्वभाव नहीं बदलता। इसलिए जहां एक ओर अच्छे असर देने वाले ग्रहों की ताकत बढ़ने से उनसे होने वाले लाभ भी बढ़ जाते हैं, वहीं दूसरी ओर बुरा असर देने वाले ग्रहों की ताकत बढ़ने से उनके द्वारा की जाने वाली हानि की मात्रा भी बढ़ जाती है। इसलिए किसी कुंडली में बुरा असर देने वाले ग्रहों के लिए रत्न धारण नहीं करने चाहिएं।

मंत्र जाप के द्वारा सर्वोत्तम फल प्राप्ति के लिए मंत्रों का जाप नियमित रूप से तथा अनुशासन पूर्वक करना चाहिए। वेद मंत्रों का जाप केवल उन्हीं लोगों को करना चाहिए जो पूर्ण शुद्धता  एवम स्वच्छता का पालन कर सकते हैं। किसी भी मंत्र का जाप प्रतिदिन कम से कम १०८ बार जरूर करना चाहिए। सबसे पहले आप को यह जान लेना चाहिए कि आपकी कुंडली के अनुसार आपको कौन से ग्रह के मंत्र का जाप करने से सबसे अधिक लाभ हो सकता है तथा उसी ग्रह के मंत्र से आपको जाप शुरू करना चाहिए।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

Marriage Yoga (विवाह योग)

पुराण, शास्त्रों व धर्म ग्रंथों में पितरों के ऋण से मुक्त होने के लिए तथा वंश परम्परा की वृद्धि के लिए विवाह की अनिवार्यता पर बल दिया गया है ।   विवाह योग्य होते ही तरुण-तरुणियों के मन में "मेरा विवाह कब होगा" ? "क्या यह विवाह सफल होगा"? जैसे प्रश्न उठने लगते हैं। 
विवाह के लिए पूछे जाने बाले प्रश्न..?

  • मेरी शादी कब तक होगी ?
  1. विवाह योग्य देखने के लिए गुरु का गोचर प्रमुखता से देखा जाता है।
  2. गोचर में गुरु जब भी सप्तम स्थान पर शुभ दृष्टि डालता है, या सप्तमेश से शुभ योग करता है या पत्रिका के मूल गुरू स्थान से गोचर में भ्रमण करता है तो विवाह योग आता है।
  3. इसके अलावा लग्नेश की महादशा में सप्तमेश-पंचमेश का अंतर आने पर भी विवाह होता है।
  4. सप्तम भाव में स्थित बलि ग्रह की दशा-अन्तर्दशा में विवाह होता है ।
  5. लग्न अथवा चन्द्र से सप्तमेश ,द्वितीयेश, इनके नवांशेश, शुक्र व चन्द्र की दशाएं भी विवाह्कारक होती हैं ।
  6. सप्तम भाव या सप्तमेश को देखने वाला शुभ ग्रह भी अपनी दशा में विवाह करा सकता है ।
  7. उपरोक्त दशाओं में सप्तमेश ,लग्नेश ,गुरु व विवाह कारक शुक्र का गोचर जब लग्न ,सप्तम भाव या इनसे त्रिकोण में होता है उस समय विवाह का योग बनता है ।
  8. लग्नेश व सप्तमेश के स्पस्ट राशिः -अंशों इत्यादि का योग करें ,प्राप्त राशिः में या इससे त्रिकोण में गुरु का गोचर होने पर विवाह होता है ।
  • मेरा जीवन साथी कैसा होगा ..?
लग्नेश एवम सप्तमेश का जन्म कुंडली के शुभ भावों में युति या दृष्टि सम्बन्ध हो अथवा दोनों एक-दूसरे के नवांश में हों तो पति-पत्नी का परस्पर प्रगाढ़ प्रेम होता है ।
  • क्या मेरा वैवाहिक जीवन अच्छा रहेगा..? 
  1. सप्तमेश ,सप्तम भाव ,कारक शुक्र तीनों शुभ युक्त ,शुभ दृष्ट ,शुभ राशिः से युक्त हो कर बलवान हों ,सप्तमेश व शुक्र लग्न से केन्द्र -त्रिकोण या लाभ में स्थित हों तो गृहस्थ जीवन पूर्ण रूप से सुखमय होता है । 
  2. लग्न का नवांशेश जन्म कुंडली में बलवान व शुभ स्थान पर हो तो गृहस्थ जीवन आनंद से व्यतीत होता है ।  
  3. लग्नेश एवम सप्तमेश की मैत्री हो व दोनों एक दूसरे से शुभ स्थान पर हों तो दांपत्य जीवन में कोई बाधा नहीं आती। 
  4. लग्नेश एवम सप्तमेश का जन्म कुंडली के शुभ भावों में युति या दृष्टि सम्बन्ध हो अथवा दोनों एक - दूसरे के नवांश में हों तो पति -पत्नी का परस्पर प्रगाढ़ प्रेम होता है ।  
  5. सप्तम भाव में पाप ग्रह हों ,सप्तमेश एवम शुक्र नीच व शत्रु राशिः-नवांश में ,निर्बल ,पाप युक्त व दृष्ट ,६,८,१२वें भाव में स्थित  हों तो विवाह में विलंब ,बाधा एवम गृहस्थ जीवन में कष्ट रहता है ।  
  6. लग्नेश एवम सप्तमेश एक दूसरे से ६,८,१२ वें स्थान पर हों तथा परस्पर शत्रु हों तो गृहस्थ जीवन सुखी नहीं रहता।  
  7. ६,८,१२, वें भावों के स्वामी निर्बल हो कर सप्तम भाव में स्थित हों तो वैवाहिक सुख मँ बाधा करतें हैं ।  
  8. सप्तम भाव से पहले एवम आगे के भाव में पाप ग्रह स्थित हों तो गृहस्थ जीवन में परेशानियाँ रहती हैं । 
  • संतान सुख कब तक सम्भव है..?
  1. जन्म लग्न और चन्द्र लग्न में जो बली हो ,उस से पांचवें भाव से संतान सुख का विचार किया जाता है ।   
  2. भाव स्थित राशि व उसका स्वामी ,भाव कारक बृहस्पति और उस से पांचवां भाव तथा सप्तमांश कुंडली, इन सभी का विचार संतान सुख के विषय में किया जाना आवश्यक है ।   
  3. पति एवम पत्नी दोनों की कुंडलियों का अध्ययन करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए ।   
  4. पंचम भाव से प्रथम संतान का ,उस से तीसरे भाव से दूसरी संतान का और उस से तीसरे भाव से तीसरी संतान का विचार करना चाहिए, उस से आगे की संतान का विचार भी इसी क्रम से किया जा सकता है ।
  • हमारी संतान कैसी होगी..?   
  1. पंचम भाव का संबंध जब केतु या मंगल से होता है, उस अवस्था में गर्भपात, मृत संतान का पैदा होना या फिर संतान पैदा होते ही तुरंत मृत्यु को प्राप्त होती है। 
  2. पंचमेश लग्न यदि नवम व एकादश भाव से संबंध रखता है तो उस अवस्था में उत्पन्न संतान आज्ञाकारी, धार्मिक प्रवृत्तियों वाली तथा अपने जीवन में उन्नति की तरफ अग्रसर रहने वाली होती है।
  3. पंचम भाव में जब गुरु बैठा हो तो ऐसे व्यक्ति की संतान पिता से १०० गुना ज्यादा तरक्की करती है तथा ऐसी संतान को कुल दीपक कहा जाता है।

Mohini ekadashi (मोहिनी एकादशी)

मोहिनी एकादशी का व्रत वैशाख माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। पुराणों के अनुसार वैशाख शुक्ल पक्ष की एकादशी मोहिनी है। इस व्रत को करने से निंदित कर्मों के पाप से छुटकारा मिल जाता है तथा मोह बंधन एवं पाप समूह नष्ट होते हैं। सीता की खोज करते समय भगवान श्रीराम ने भी इस व्रत को किया था। उनके बाद मुनि कौण्डिन्य के कहने पर धृष्टबुद्धि ने और श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर ने इस व्रत को किया था। 
जो व्यक्ति मोहिनी एकादशी का व्रत करे, उसे एक दिन पूर्व अर्थात दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का पालन करना चाहिए। व्रत के दिन एकादशी तिथि में व्रती को सुबह सूर्योदय से पहले उठना चाहिए और नित्य कर्म कर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। स्नान के लिये किसी पवित्र नदी या सरोवर का जल मिलना श्रेष्ठ होता है। अगर यह संभव न हों तो घर में ही जल से स्नान करना चाहिए। स्नान करने के लिये कुश और तिल के लेप का प्रयोग करना चाहिए। स्नान करने के बाद साफ वस्त्र धारण करने चाहिए। 

इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ भगवान श्रीराम की पूजा भी की जाती है। व्रत का संकल्प लेने के बाद ही इस व्रत को शुरु किया जाता है। संकल्प लेने के लिये इन दोनों देवों के समक्ष संकल्प लिया जाता है। देवों का पूजन करने के लिये कलश स्थापना कर, उसके ऊपर लाल रंग का वस्त्र बांध कर पहले कलश का पूजन किया जाता है। इसके बाद इसके ऊपर भगवान कि तस्वीर या प्रतिमा रखें तत्पश्चात भगवान की प्रतिमा को स्नानादि से शुद्ध कर उत्तम वस्त्र पहनाना चाहिए। फिर धूप, दीपक से आरती उतारनी चाहिए और मीठे फलों का भोग लगाना चाहिए। इसके बाद प्रसाद वितरीत कर ब्राह्मणों को भोजन तथा दान दक्षिणा देनी चाहिए। रात्रि में भगवान का कीर्तन करते हुए मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।

Pitra shradha (पितृ पक्ष श्राद्ध)

जब हम अपने पितरों (पूर्वजों) के प्रति श्रद्धा पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करते हैं तो वह श्राद्ध कहलाता है अपने पितरों को प्रसन्न करना, उन्हें तिलांजलि देना हमारा कर्तव्य है श्राद्ध करने का सीधा सम्बन्ध दिवंगत पारिवारिक जनों का श्रद्धा पूर्वक स्मरण करना है इसे पितृ यज्ञ भी कहा जाता है, गरुड़ पुराण में कहा गया है, कि पितर पक्ष में पितर अपने घर आते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की इच्छा रखते हैं। हमारे पितर अन्न और जल से ही प्रसन्न हो जाते हैं कुश और तिल से तर्पण करने पर पितर संतुष्ट होते हैं।

पितृ पक्ष पूर्वजों की मृत्यु तिथि के दिन जल, जौ, कुशा, अक्षत, दूध, पुष्प आदि से उनका श्राद्ध सम्पन्न किया जाता है। पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है तथा पूर्वज प्रसन्न होकर, आपके दीर्घायु तथा प्रगति की कामना करते है। एक मास में दो पक्ष होते है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष, एक पक्ष १५ दिन का होता है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के पन्द्रह दिन पितृ पक्ष के नाम से प्रचलित है। इन १५ दिनों में लोग अपने पूर्वजों।पितरों को जल देंते है तथा उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करते है। पितरों का ऋण श्राद्धों के द्वारा उतारा जाता है। पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है। 

पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- 
एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध नाग बलि कर्म नारायण बलि कर्म त्रिपिण्डी श्राद्ध महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म इसके अलावा प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु "नांदी-श्राद्ध" कर्म किया जाता है।

कैसे करें घर पर श्राद्ध कर्म :-
महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों में रहती है। यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर लें प्रतिदिन खीर (अर्थात्‌ दूध में पकाए हुए चावल में शकर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची केशर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर लें। गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर लें। उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान में किसी बर्तन में रखकर, खीर से तीन आहुति दे दें। इसके नजदीक (पास में ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दें अथवा लोटा रख दें। इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ में डाल दें। भोजन में से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हें खिला दें। इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें। पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें। 

क्या है श्राद्ध के मुख्य भोज्य पदार्थ :-
श्राद्ध के दिन लहसुन प्याज रहित सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए जिसमें  उड़द की दाल, बडे, चावल, दूध घी बने पकवान, खीर, मौसमी सब्जी जो बेल पर लगती है .जैसे ... तोरई, लौकी, सीतफल, भिण्डी  कच्चे केले की सब्जी  ही भोजन मे मान्य है ।  आलू. मूली  वैगन  अरबी तथा जमीन के नीचे  पैदा होने वाली सब्जियां पितरो को नहीं चढ़ती है ।

श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन तीन आहुतियों और तीन तीन चावल के पिण्ड तैयार करने बाद प्रेत मंजरी के मंत्रोच्चार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरो को  नाम और राशि से सम्बोधित करके आमंत्रित किया जाता है । कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से स्नान कराकर  तिल जौ और सफेद फूल और चन्दन आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे के पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है । फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है। क्या कहते हैं प्राचीन शास्त्र, पुराण और स्मृतिग्रन्थ किसी भी मृतक के अन्तिम संस्कार और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए पारचीन वैदिक ग्रन्थ गरुडपुराण में कौन कौन से सदस्य पुत्र के नहीं होने पर श्राद्ध कर सकते है उसका  उल्लेख अध्याय .११ के श्लोक सख्या .११, १२, १३  और १४ में विस्तार से किया गया है जैसे-

पुत्राभावे वधु कूर्यात..भार्याभावे  च सोदनः !
शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत !!
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके!
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः !!

अर्थात- ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू. पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है ! इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है ।  अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई  अथवा भतीजा  भानजा नाती पोता आदि कोई भी यह कर सकता है! इन सबके अभाव में शिष्य,  मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुलपुराहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है । इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्धतर्पण  और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है ।

House Places of Pujan (घर का पूजा स्थल​)

हर घर में पूजा घर होते हैं। पूजा घर बनाते समय कुछ लोग कुछ बातों पर ध्यान नहीं देते। यदि पूजा घर भी वास्तु के नियमों के अनुरूप बनाया जाए तो बेहतर होता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार पूजा घर की दिशा, उसकी जगह, किस धातु से बना है मंदिर आदि और भी कुछ नियम होते हैं। जो वास्तु के अनुसार बने घर में हमें सुख, समृद्धि एवं मनचाहे धन की प्राप्ति होती है। इसीलिए आजकल लोग वास्तु शास्त्र के अनुसार घर बनवाना ज्यादा पसंद करते हैं।
  • पूजा घर के पूर्व या पश्चिम दिशा में देवताओं की मूर्तियां होनी चाहिए।
  • पूजा घर में रखी मूर्तियों का मुख उत्तर या दक्षिण दिशा में नहीं होना चाहिए।
  • देवताओं की दृष्टि एक-दूसरे पर नहीं पड़नी चाहिए।
  • पूजा घर के खिड़की व दरवाजे पश्चिम दिशा में न होकर उत्तर या पूर्व दिशा में होने चाहिए।
  • पूजा घर के दरवाजे के सामने देवता की मूर्ति रखनी चाहिए।
  • पूजा घर में बनाया गया दरवाजा लकड़ी का नहीं होना चाहिए।
  • घर के पूजा घर में गुंबज, कलश इत्यादि नहीं बनाने चाहिए।
  • वास्तु के अनुसार जिस जगह भगवान का वास रहता है, उस दिशा में शौचालय, स्टोर इत्यादि नहीं बनाए जाने चाहिए।
  • पूजा घर के ऊपर या नीचे भी शौचालय नहीं बनाना चाहिए।
  • वास्तुशास्त्र के अनुसार बेडरूम में पूजा घर नहीं बनाना चाहिए।
  • पूजा घर के लिए प्राय: हल्के पीले रंग को शुभ माना जाता है, अतः दीवारों पर हल्का पीला रंग किया जा सकता है।
  • फर्श हल्के पीले या सफेद रंग के पत्थर का होना चाहिए। इन कुछ छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखकर पूजा घर बनाया जाना चाहिए। जो हमें सुख-समृ‍द्धि के साथ-साथ हमारे जीवन को खुशहाल और हमें हर तरह से संपन्न बनाते है।

Yog to related of love marriage (प्रेम विवाह से संबंधित योग)


ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रेम विवाह से संबंधित तीन ग्रह होते हैं। यह तीन ग्रह सूर्य, बुध और शुक्र हैं इन तीनों ग्रहों के कारण व्यक्ति को प्रेम होता है। अगर यह तीनों ग्रह एक साथ एक ही भाव में स्थित हो तो वह व्यक्ति प्रेम विवाह निश्चित करता है।

यदि शुक्र, सूर्य और बुध तीनों ग्रह एक ही क्रम में अलग-अलग भावों में हो तो प्रेम होता है परंतु इनका विवाह नहीं हो पाता। सूर्य, बुध और सूर्य इन ग्रहों में से कोई दो युति करते हो और एक अन्य ग्रह भाव में स्थित हो जाए तो बहुत मुश्किल से प्रेम विवाह होता है। सूर्य, बुध सप्तम स्थान में हो तो अपने से बड़ी उम्र का प्रेमी मिलता है। शुक्र बलवान होने पर कई साथी मिलते हैं परतुं अन्य दो ग्रह सूर्य-बुध के कमजोर होने पर व्यक्ति को अपना प्रेम नहीं मिलता।

प्रेम विवाह करने वाले लडके व लडकियों को एक-दुसरे को समझने के अधिक अवसर प्राप्त होते है. इसके फलस्वरुप दोनों एक-दूसरे की रुचि, स्वभाव व पसन्द-नापसन्द को अधिक कुशलता से समझ पाते है. प्रेम विवाह करने वाले वर-वधू भावनाओ व स्नेह की प्रगाढ डोर से बंधे होते है. ऎसे में जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी दोनों का साथ बना रहता है.पर कभी-कभी प्रेम विवाह करने वाले वर-वधू के विवाह के बाद की स्थिति इसके विपरीत होती है. इस स्थिति में दोनों का प्रेम विवाह करने का निर्णय शीघ्रता व बिना सोचे समझे हुए प्रतीत होता है. आईये देखे कि कुण्डली के कौन से योग प्रेम विवाह की संभावनाएं बनाते है.
  • राहु के योग से प्रेम विवाह की संभावनाएं


  1. जब राहु लग्न में हों परन्तु सप्तम भाव पर गुरु की दृ्ष्टि हों तो व्यक्ति का प्रेम विवाह होने की संभावनाए बनती है. राहु का संबन्ध विवाह भाव से होने पर व्यक्ति पारिवारिक परम्परा से हटकर विवाह करने का सोचता है. राहु को स्वभाव से संस्कृ्ति व लीक से हटकर कार्य करने की प्रवृ्ति का माना जाता है.
  2. जब जन्म कुण्डली में मंगल का शनि अथवा राहु से संबन्ध या युति हो रही हों तब भी प्रेम विवाह कि संभावनाएं बनती है. कुण्डली के सभी ग्रहों में इन तीन ग्रहों को सबसे अधिक अशुभ व पापी ग्रह माना गया है. इन तीनों ग्रहों में से कोई भी ग्रह जब विवाह भाव, भावेश से संबन्ध बनाता है तो व्यक्ति के अपने परिवार की सहमति के विरुद्ध जाकर विवाह करने की संभावनाएं बनती है.
  3. जिस व्यक्ति की कुण्डली में सप्तमेश व शुक्र पर शनि या राहु की दृ्ष्टि हो, उसके प्रेम विवाह करने की सम्भावनाएं बनती है.
  4. जब पंचम भाव के स्वामी की उच्च राशि में राहु या केतु स्थित हों तब भी व्यक्ति के प्रेम विवाह के योग बनते है.
  • प्रेम विवाह के अन्य योग


  1. जब किसी व्यक्ति कि कुण्ड्ली में मंगल अथवा चन्द्र पंचम भाव के स्वामी के साथ, पंचम भाव में ही स्थित हों तब अथवा सप्तम भाव के स्वामी के साथ सप्तम भाव में ही हों तब भी प्रेम विवाह के योग बनते है.
  2. इसके अलावा जब शुक्र लग्न से पंचम अथवा नवम अथवा चन्द लग्न से पंचम भाव में स्थित होंने पर प्रेम विवाह की संभावनाएं बनती है.
  3. प्रेम विवाह के योगों में जब पंचम भाव में मंगल हों तथा पंचमेश व एकादशेश का राशि परिवतन अथवा दोनों कुण्डली के किसी भी एक भाव में एक साथ स्थित हों उस स्थिति में प्रेम विवाह होने के योग बनते है.
  4. अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में पंचम सप्तम भाव के स्वामी अथवा सप्तम नवम भाव के स्वामी एक-दूसरे के साथ स्थित हों उस स्थिति में प्रेम विवाह कि संभावनाएं बनती है.
  5. जब सप्तम भाव में शनि केतु की स्थिति हों तो व्यक्ति का प्रेम विवाह हो सकता है.
  6. कुण्डली में लग्न पंचम भाव के स्वामी एक साथ स्थित हों या फिर लग्न  नवम भाव के स्वामी एक साथ बैठे हों, अथवा एक-दूसरे को देख रहे हों इस स्थिति में व्यक्ति के प्रेम विवाह की संभावनाएं बनती है.
  7. जब किसी व्यक्ति की कुण्डली में चन्द्र सप्तम भाव के स्वामी एक-दूसरे से दृ्ष्टि संबन्ध बना रहे हों तब भी प्रेम विवाह की संभावनाएं बनती है
  8. जब सप्तम भाव का स्वामी सप्तम भाव में ही स्थित हों तब विवाह का भाव बली होता हैतथा व्यक्ति प्रेम विवाह कर सकता है.
  9. पंचम सप्तम भाव के स्वामियों का आपस में युति, स्थिति अथवा दृ्ष्टि संबन्ध हो या दोनों में राशि परिवर्तन हो रहा हों तब भी प्रेम विवाह के योग बनते है
  10. जब सप्तमेश की दृ्ष्टि, युतिस्थिति शुक्र के साथ द्वादश भाव में हों तो, प्रेम विवाह होता है.
  11. द्वादश भाव में लग्नेश,सप्तमेश कि युति हों व भाग्येश इन से दृ्ष्टि संबन्ध बना रहा होतो प्रेम विवाहकी संभावनाएं बनती है.
  12. जब जन्म कुण्डली में शनि किसी अशुभ भाव का स्वामी होकर वह मंगल, सप्तम भाव सप्तमेश से संबन्ध बनाते है. तो प्रेम विवाह हो सकता है.