शुक्रवार, 13 मार्च 2015

Samvatsar results (संवत्सर परिणाम)

भारतीय संस्कृति में चन्द्र वर्ष का प्रयोग किया जाता है । चन्द्र वर्ष को ही संवत्सर कहा जाता है ।ब्रह्माजी  ने सृष्टि का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से किया था अतः नव संवत का प्रारम्भ भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है ।हिंदू परंपरा में समस्त शुभ कार्यों के आरम्भ में संकल्प करते समय उस समय के संवत्सर का उच्चारण किया जाता है ।अग्नि ,नारद आदि पुराणों में वर्णित साठ संवत्सरों के नाम तथा उनके वर्ष में विश्व में होने वाले शुभाशुभ फल निम्नलिखित प्रकार से है —


संवत्सर का नाम              वर्ष फल

  1. प्रभव - प्रजा में यज्ञादि शुभ कार्यों कि भावना हो ।
  2. विभव - प्रजा में सुख समृद्धि हो ।
  3. शुक्ल - विश्व में धान्य प्रचुर मात्रा  में हो ।
  4. प्रमोद - प्रजा में आमोद प्रमोद ,सुख वैभव कि वृद्धि हो ।
  5. प्रजापति - विश्व में चतुर्विध उन्नति हो ।
  6. अंगिरा - भोग विलास कि वृद्धि हो ।
  7. श्री मुख - जनसँख्या में अधिक वृद्धि हो ।
  8. भाव - प्राणियों में सद्भावना बढे ।
  9. युवा - मेघों द्वारा प्रचुर वृष्टि हो ।
  10. धाता - विश्व में समस्त औषधियों कि वृद्धि हो ।
  11. ईश्वर- आरोग्य व क्षेम कि प्राप्ति हो ।
  12. बहुधान्य - अन्न कि प्रचुरता हो ।
  13. प्रमाथी - शुभाशुभ प्रकार का मध्यम वर्ष हो ।
  14. विक्रम - अन्न कि अधिकता रहे ।
  15. वृष - प्रजा जनों का पोषण हो ।
  16. चित्रभानु - विचित्र घटनाएं हों ।
  17. सुभानु - आरोग्यकारक व कल्याणकारी वर्ष हो ।
  18. तारण - मेघों द्वारा शुभकारक वर्षा हो ।
  19. पार्थिव - धन​ संपत्ति कि वृद्धि हो ।
  20. अव्यय - अतिवृष्टि हो ।
  21. सर्वजीत - उत्तम वृष्टि का योग ।
  22. सर्वधारी - धान्यों कि अधिकता ।
  23. विरोधी - अनावृष्टि ।
  24. विकृति - भय कारक घटनाएं ।
  25. खर - पुरुषों में साहस व वीरता का संचार ।
  26. नंदन - प्रजा में आनंद ।
  27. विजय - दुष्टों का नाश ।
  28. जय - रोगों का शमन ।
  29. मन्मथ - विश्व में ज्वर का प्रकोप ।
  30. दुर्मुख - मनुष्यों कि वाणी में कटुता ।
  31. हेम्लम्बी - सम्पदा कि वृद्धि।
  32. विलम्बी - अन्न कि प्रचुरता ।
  33. विकारी - दुष्ट व शत्रु कुपित हों ।
  34. शार्वरी - कृषि में वृद्धि।
  35. प्लव - नदियों में बाढ़ का प्रकोप ।
  36. शुभकृत - प्रजा में शुभता ।
  37. शोभकृत - शुभ फलों कि वृद्धि।
  38. क्रोधी - स्त्री –पुरुषों में वैर ,रोग वृद्धि।
  39. विश्वावसु - अन्न महंगा ,रोग व चोरों कि वृद्धि,राजा लोभी ।
  40. पराभव - रोग वृद्धि, प्रचुर वृष्टि, राजा का तिरस्कार 
  41. प्ल्वंग - कृषि हानि, प्रजा में रोग व चोरी, राजाओं का युद्ध ।
  42. कीलक - पित्त विकार, मध्यम वर्षा, सर्प भय, प्रजा में कलह ।
  43. सौम्य - राजा प्रसन्न ,शीत प्रकृति के रोग, मध्यम वर्षा ,सर्प भय।
उपरोक्त साठ संवत्सर बारह युगों में होते हैं जिनके स्वामी क्रमशः विष्णु, बृहस्पति, इंद्र, लोहित, त्वष्टा, अहिर्बुध्न्य, पितर, विश्वेदेव, चन्द्र, इन्द्राग्नी, अश्वनी कुमार तथा भग हैं । क्रम पूर्ण होने पर पुनः प्रभव संवत से बारह युगी का आरम्भ हो जाता है । नव संवत पर उसके स्वामी कि विधि पूर्वक  अर्चना करने पर उस वर्ष का फल शुभ प्राप्त होता है ।

पंचांग
ऋग्वेद में वर्ष को १२ चंद्रमासों में बांटा गया है। हरेक तीसरे वर्ष चन्द्र और सौर वर्ष का तालमेल बिठाने के लिए एक अधिक मास जोड़ा गया। इसे मलमास भी कहा जाता है। इसी तरह प्रश्न व्याकरण में १२ महीनों की तरह १२ पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम और उनके फल बताए गए हैं। ऐत्तरेय ब्राह्मण में पांच प्रकार की ऋतुओं का वर्णन है।


प्रथम वर्ष के सौर मास का आरंभ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को और आगे आने वाले तीसरे वर्ष में सौर मास का आरंभ कृष्ण पक्ष की अष्टमी से होता था। तैत्तिरीय संहिता में सूर्य के छह माह उत्तरायण और छह माह दक्षिणायन रहने की स्थिति का भी उल्लेख है। दरअसल जम्बू द्वीप के बीच में सुमेरू पर्वत है. सूर्य और चन्द्रमा समेत सभी ज्योर्तिमंडल इसकी परिक्रमा करते हैं। सूर्य जम्बूद्वीप के अंतिम आभ्यातंर मार्ग से बाहर निकलता हुआ लवण समुद्र की ओर जाता है, तो इस काल को दक्षिणायन और जब लवण समुद्र के अंतिम मार्ग से भ्रमण करता हुआ जम्बूद्वीप की ओर कूच करता है, तो उत्तरायण कहते हैं।

हिंदी मास या विक्रम संवत में चैत्र और वैशाख को मधुमास कहा गया है. इस दौरान चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है।

जबकि ग्रेगेरियन में नए साल की शुरूआत पौष अर्थात जनवरी से होती है। विक्रम संवत की उपयोगिता ऋतुओं से जुड़ी थी, इसलिए वह ऋग्वैदिक काल से ही जनसामान्य में प्रचलन में थी। फिर भी हमने शक को राष्ट्रीय संवत के रूप में स्वीकारा।

इस क्रम में यह न भूलें कि शक विदेशी होने के साथ आक्रांता थे और चंद्रगुप्त द्वितीय ने उन्हें उज्जैन में परास्त किया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। यह घटना ईस्वी सन से 57 साल पहले घटी और विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरुआत की। इन्हीं शकों की एक लड़ाकू टुकड़ी को कनिष्क ने मगध और पाटलिपुत्र में ईसा सन के 78 साल बाद परास्त कर शक संवत की शुरुआत की।

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