बुधवार, 13 मई 2015

Part-3 वास्तु विज्ञान​ (Architectural Science)

चतुर्दश फल प्राप्ति रसल्लोकश्च भवेद ध्रुवम​। 
शिल्पशस्त्र परिज्ञानान्मत्योश्पि सुरतां ब्रजेत​॥
अर्थात- वास्तु शास्त्र के संपूर्ण ज्ञान से चारों फल धर्म, अर्थ​, काम और मोक्ष की प्राप्ती है । यही मानव के लक्ष्य हैं।
भवन निर्माण: 
पर गेहे कृतास्सर्वा:, श्रौता स्मार्त क्रियाश्शुमा:। 
निष्फलास्सुर्य तस्ताहि, भूमीश​: पल मशनुते:॥

मानव के रहने के लिए, सिर छुपाने के लिए एक आवास की आवश्यकता होती है। जिस भूमि पर आवास बनाया जाता है अथवा जिस भूखंड पर निर्मित आवास मनुष्य अपने रहने के लिए किराए पर लेता है वही आवास की संज्ञा में आता है। आवास में कराए ग​ए मांगलिक कार्यों का फल ही व्यक्ति को प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का कथन है।

वास्तु नियमों के अंतर्गत जब हम भूखंड का चयन भवन निर्माण के लिए कर लेते हैं तो सर्वप्रथम भूखंड की सही दिशा का निर्धारण चुंबकीय कंपास से आवश्यक होता है- पूर्व​-पश्चिम एरां उत्तर​-दक्षिण निर्माण योजना के लिए नक्शे पर अंकित करें एवं इसी अनुसार भवन निर्माण को सुनिश्चित करें ।

इसके बाद भवन निर्माण योजना चारों दिशाओं में से किसी भी एक दिशा के लिए नियोजित कर सकते हैं । इसको भवन दिशा या भवन आकृति कहते हैं । विभिन्न दिशाओं के भवनों का अपना-अपना महत्व व प्रभाव होता है । 

पूर्व मुखी भवन सुख प्रदान करता है, पश्चिम मुखी भवन भौतिक सुख एवं संपदा प्रदान करता है। उत्तर मुखी भवन संपदा प्रदान करता है । मोक्ष की इच्छा वालों के लिए दक्षिण मुखी भवन अच्छा होता है । इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण होता है, आयाति गणना से भवन की लंबाई, चौड़ाई तय करना । वास्तु नियमों में वास्तु का शुभ नक्षत्र एवं गृहिणी, गृहस्वामी एवं पुत्र नक्षत्र अनुकूल होने से, 100 वर्षों तक भवन उत्त्म स्वास्थ्य व सुख​-शान्ति उपलब्ध कराता है । भवन में गृहिणी को गृहस्वामिनी माना गया है क्योंकि गृह की सारी व्यवस्थाएँ उसे ही करनी होती हैं। अत​: गृहस्वामिनी का जन्म नक्षत्र सर्वोपरि होता है । 

भवन निर्माण योजना से पृथ्वी ऊर्जा, अंतरिक्ष ऊर्जा, वातावरण में व्याप्त ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा तथा विद्युत चुंबकीय ऊर्जा का अनुकूल प्रभाव प्राप्त होता है । भवन के अंदर जो रिक्त स्थान है वास्तव में ऊर्जा से भरा हुआ है और जब उसे विशेष दिशा से प्रवाहित करते हैं तो परिणामस्वरूप यह ऊर्जा प्रवाह का एक मार्ग बन जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वातावरण में ऊर्जा का प्रवाह एक निश्चित दिशा से संचालित होता है और जब इस स्थाई ऊर्जा प्रवाह को भवन में उचित ऊर्जा प्रवाह का मार्ग उपलब्ध हो जाता है तभी वास्तु नियमों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त होता है ।



शनिवार, 9 मई 2015

भगवान का तृतीय अवतार देवर्षी नारदजी


देवर्षि नारद, श्रीमद्भागवत पुराणानुसार ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक हैं । उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है।

देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - ‪‎देवर्षीणाम्चनारद‬:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराण का कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पाञ्चरात्र कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।

देवर्षि नारदजी ने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है । देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।

टेलीवीज़न जैसे मनोरंजक साधनो में देवर्षी नारद जी के चरित्र बहुत ही अपमान किया है, इन्हें एक हास्य और चुगली करने वाला पात्र बताया गया है । जबकी यह पूर्णरूप से मिथ्या है । "नारं ज्ञानं ददाति इति नारद" नारदजी ज्ञान के दाता ही नहीं मुक्ती का मार्ग प्रसस्त कराने में जीव की सहाता भी करते हैं, चाहे वह कंश हो ध्रुव या प्रह्लाद, नारद जी ने रामायण के रचयिता वालमील जी का भी कल्याण किया ।

देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं।

भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।

धर्म ग्रंथों के अनुसार ज्येष्ठ मास के प्रथम दिन देवर्षि नारद का पूजन किया जाता है। इस दिन नारद जयंती भी मनाई जाती है। इस बार नारद जयंती 5 मई, 2015

शुक्रवार, 8 मई 2015

भगवान का द्वितीय अवतार भगवान श्रीवाराह


भगवान का द्वितीय अवतार भगवान श्रीवाराह के रूप में होता है । पहले पोष्ट में यह जानकारी दे चुके हैं कि जय और विजय को श्रीसनतकुमारों ने श्राप दिया । जिस कारण वे पृथ्वी पर दैत्य रुप में जन्म लेकर देवताओं ऋषियों और मनुष्यों पर अत्याचार करने लगे । जय विजय का पहला जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में हुआ । हिरण्याक्ष का मतलब है हिरण्य अर्थात स्वर्ण (सोना), अक्ष का मतलब आँख अर्थात दूसरों के धन सम्पत्ती पर जिसकी नजर हो वही तो हिरण्याक्ष है।

हिरण्याक्ष लोभ का प्रतीक माना गया है । यही कारण है कि वह लोभ के बस हो पृथ्वी का हरण कर समुद्र के कीचड़ में लेजाकर छिपा दिया । यहां जब ब्रह्मा जी ने मनु महराज और देवी सतरूपा को सृष्टी विस्तार के लिए प्रकट किया तब महराज मनु ने अपने दाम्पत्य सुख को भोगने व अपनी संतानों के रहने के लिए एक स्थान देने के लिए बोले, तब ब्रह्माजी ने विचार किया की मैंने जिस धरा का निर्माण किया था, उसे हिरण्याक्ष ने रसातल में छिपा रखा है अब उसे बाहर कैसे लाया जाय, इसी चिन्ता से पीड़ित हो ब्रह्माजी ने भगवान नारायण को स्मरण किया । तब भगवान नारयण की ही प्रेरणा से ब्रह्माजी की नासिका क्षिद्र से श्रीवाराह प्रकट हुए ।

शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये चतुर भुज रूप में अपने स्वरूप को विराट किया और रसातल से पृथ्वी को निकाल कर अकाश में स्थपित किया । यहाँ पर बहुत से लोग परेशान हो जाते हैं की भगवान को यह रूप धारण करने की क्या आवश्यकता थी, वे और भी अन्य सुन्दर स्वरूप धारण कर सकते थे?

दरासल बात यह है कि जब हम किसी भवन का निर्माण कराते हैं तो उसके लिये अलग-अलग कारीगरों की आवश्यकता पड़ती है । लकड़ी बाला लकड़ी का काम करेगा, लोहे बाला लोहे का काम करेगा, आदि उसी प्रकार इस समस्त सृष्टी को बनाने का दायित्व ब्रह्माजी का है पर कुछ कार्य ऐसे हैं जो वे स्वयं नहीं कर सकते थे और न ही कोई और इसीलिए दूसरे कारीगर को प्रकट किया गया और वे अपना कार्य कर अपने धाम चले गये । अब इसमें आश्चर्य कैसा?

परमात्मा बड़े दयालू हैं, पिता अपने पुत्र की खुशी के लिए घोड़ बनता है और उसे अपनी पीठ पर बैठाकर घोड़े की भांति चलता है, तो हमारा परमपिता अपनी संतान की खुशी के लिए यदि वाराह बनता है तो आश्चर्य क्यों?

एक बात और यह की परमात्मा ने जिस जीव का स्वरूप धारण किया उसकी यह खाशियत है की वह कीचड़ से अपने योग्य वस्तु को खोज निकाले उसकी नासिका कीचड़ में भी स्ववस्तु को शूँघ लेती है । उस रसातल के कीचड़ में वे श्रीराम या श्रीकृष्ण का स्वरूप धारण कर नहीं जा सकते । जिस कार्य के लिए जिस स्वरूप की आवश्यकता थी उन्होंने धारन किया, हमें उनकी इस लीला पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।

इस प्रकार श्रीवाराह रसातल से पृथ्वी को निकाल कर आकास में स्थापित किया कि उसी समय हिरण्याक्ष वहाँ आकर इसका विरोध किया और श्रीवाराह ने उसका वध किया । इस तरह से महराज मनु को पृथ्वी का आधार मिला और वे मैथुन सृष्टी का विस्तर कर पाये ।

सोमवार, 4 मई 2015

Dev parikrama (देव परिक्रमा)



परिक्रमा देव पूजन का खास अंग है। शास्त्रों में माना गया है कि परिक्रमा से पापों का नाश होता है। विज्ञान की नजर से देखें तो शारीरिक ऊर्जा के विकास में परिक्रमा का विशेष महत्व है। भगवान की मूर्ति और मंदिर की परिक्रमा हमेशा दाहिने हाथ से शुरू करना चाहिए क्योंकि प्रतिमाओं में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर इस सकारात्मक ऊर्जा से हमारे शरीर का टकराव होता है, जिसके कारण शारीरिक बल कम होता है। जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा हमारे व्यक्तित्व को नुकसान पहुंचाती है। दाहिने का अर्थ दक्षिण भी होता है,इस कारण से परिक्रमा को ‘प्रदक्षिणाऽ भी कहा जाता है।
  • पदमपुराण मेँ हरिपूजा विधि-वर्णन के अंतर्गत कहा गया हे-
हरिप्रदक्षिणे यावत्पदं गतछेत शनैः शनैः । पदमपअश्वमेधस्य फलं प्राप्तनोति मानवः॥115
यावत्पादं नरो भक्त्या गच्छेद्विष्णुप्रदक्षिणे। तावत्कल्पसहस्राणी विष्णुना सह मोदते॥116
प्रदक्षिणाकृत्य सर्व संसारं यत्फलभवेत्। हरि प्रदक्षिणीकृत्य तस्माकोटिगुणं फलम्॥117
--पद्मपुराण ११५-११७
अर्थात भक्तिभाव से जो मनुष्य विष्णु की परिक्रमा करने मेँ धीरे- धीरे जितने भी कदम चलता हे, उसके एक- एक पद के चलने मेँ मनुष्य एक-एक अश्वमेध- यज्ञ करने का फल प्राप्त किया करता हे। जितने कदम प्रदक्षिणा करते हुए भक़्त चलता हे, उतने हीँ सहत्र कल्पो तक भगवान विष्णु के धाम मेँ उनके ही साथ प्रसन्नता से निवास करता हे। संपूर्ण संसार की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य प्राप्त होता हे, उनके भी करोड़ोँ गुना अधिक श्रीहरि की प्रदक्षिणा करने से फल प्राप्त हुआ करता है।
  • इस मंत्र के साथ करें देव परिक्रमा-
यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे॥

अर्थ : जाने अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए। परमेश्वर मुझे सद्बुद्धि प्रदान करें।
  • परिक्रमा बाँयी या दाँयी
शास्त्रों में भगवान शंकर की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघने का विधान बताया गया है। इसलिए उनकी पूरी परिक्रमा न करके आधी ही की जाती है ओर आधी वापस उसी तरफ लोटकर की जाती है। मान्यता यह है कि शंकर भगवान की तेज के लहरों की गतियाँ बाई और दाई दोनों ओर होती है।

उलटी यानी विपरीत वामवर्ती (बाई हाथ की तरफ से) परिक्रमा करने से देवी शक्ति के ज्योतिर्मंडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्यपरमाणुओ में टकराव पैदा होता है। परिणाम स्वरुप हमारा तेज नष्ट हो जाता है। इसलिए वामवर्ती परिक्रमा को वर्जित किया जाता है। इसे पाप स्वरुप बताया गया है।
  • पंचदेव परिक्रमा
सूर्य देव की सात, श्रीगणेश की चार, श्री विष्णु की पांच, श्री दुर्गा की एक, श्री शिव की आधी प्रदक्षिणा करें। शिव की मात्र आधी ही प्रदक्षिणा की जाती है,जिसके विशेष में मान्यता है कि जलधारी का उल्लंघन नहीं किया जाता है। जलधारी तक पंहुचकर परिक्रमा को पूर्ण मान लिया जाता है।
  • इस तरह भी कर सकते हैं प्रदक्षिणा
प्रदक्षिणा में आमतौर किसी भी देवमूर्ति के चारों ओर घूमकर की जाती है लेकिन कभी -कभी देवमूर्ति की पीठ दीवार की ओर रहने से प्रदक्षिणा के लिए फेरे लेने को पर्याप्त जगह नहीं होती है। घरों में भी पूजन करते समय देवमूर्ति की स्थापना किसी दीवार के सहारे से ही की जाती है। ऐसा होने पर देवमूर्ति के समक्ष यानी कि सामने भी गोल घूमकर प्रदक्षिणा की जा सकती है।
  • परिक्रमा के साथ जरुरी है श्रद्धा
पूजन के किसी भी प्रकार में श्रद्धा जरुरी है। बगैर श्रद्धा के परिक्रमा भी निष्फल ही जाती है क्योंकि यह श्रद्धा का ही चमत्कार था जिसके बल पर श्रीगणेश ने पूरे ब्रह्मांड को शिव और शक्ति का रूप मानकर अपने माता-पिता की ही परिक्रमा की और स्वयं माता -पिता ने ही उन्हें सबसे पहले पूूजे जाने का आशीर्वाद प्रदान किया।
  • वृक्षों की परिक्रमा
महिलाओं द्वारा वटवृक्ष की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है। सोमवती अमावश्या में महिलाएँ तुलसी के पौधे को सामने रख गोपाल (श्रीकृष्ण​) की लौकिक पूजा कर तुलसी की परिक्रमा करती हैं यह पौराणिक परम्परा बतायी जा रही है । ऐसा करने से परिवार में सुख समृद्धि का आगमन होता है, परिवार रोग वाधाओं से मुक्त होता है ।