सोमवार, 4 मई 2015

Dev parikrama (देव परिक्रमा)



परिक्रमा देव पूजन का खास अंग है। शास्त्रों में माना गया है कि परिक्रमा से पापों का नाश होता है। विज्ञान की नजर से देखें तो शारीरिक ऊर्जा के विकास में परिक्रमा का विशेष महत्व है। भगवान की मूर्ति और मंदिर की परिक्रमा हमेशा दाहिने हाथ से शुरू करना चाहिए क्योंकि प्रतिमाओं में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर इस सकारात्मक ऊर्जा से हमारे शरीर का टकराव होता है, जिसके कारण शारीरिक बल कम होता है। जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा हमारे व्यक्तित्व को नुकसान पहुंचाती है। दाहिने का अर्थ दक्षिण भी होता है,इस कारण से परिक्रमा को ‘प्रदक्षिणाऽ भी कहा जाता है।
  • पदमपुराण मेँ हरिपूजा विधि-वर्णन के अंतर्गत कहा गया हे-
हरिप्रदक्षिणे यावत्पदं गतछेत शनैः शनैः । पदमपअश्वमेधस्य फलं प्राप्तनोति मानवः॥115
यावत्पादं नरो भक्त्या गच्छेद्विष्णुप्रदक्षिणे। तावत्कल्पसहस्राणी विष्णुना सह मोदते॥116
प्रदक्षिणाकृत्य सर्व संसारं यत्फलभवेत्। हरि प्रदक्षिणीकृत्य तस्माकोटिगुणं फलम्॥117
--पद्मपुराण ११५-११७
अर्थात भक्तिभाव से जो मनुष्य विष्णु की परिक्रमा करने मेँ धीरे- धीरे जितने भी कदम चलता हे, उसके एक- एक पद के चलने मेँ मनुष्य एक-एक अश्वमेध- यज्ञ करने का फल प्राप्त किया करता हे। जितने कदम प्रदक्षिणा करते हुए भक़्त चलता हे, उतने हीँ सहत्र कल्पो तक भगवान विष्णु के धाम मेँ उनके ही साथ प्रसन्नता से निवास करता हे। संपूर्ण संसार की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य प्राप्त होता हे, उनके भी करोड़ोँ गुना अधिक श्रीहरि की प्रदक्षिणा करने से फल प्राप्त हुआ करता है।
  • इस मंत्र के साथ करें देव परिक्रमा-
यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे॥

अर्थ : जाने अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए। परमेश्वर मुझे सद्बुद्धि प्रदान करें।
  • परिक्रमा बाँयी या दाँयी
शास्त्रों में भगवान शंकर की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघने का विधान बताया गया है। इसलिए उनकी पूरी परिक्रमा न करके आधी ही की जाती है ओर आधी वापस उसी तरफ लोटकर की जाती है। मान्यता यह है कि शंकर भगवान की तेज के लहरों की गतियाँ बाई और दाई दोनों ओर होती है।

उलटी यानी विपरीत वामवर्ती (बाई हाथ की तरफ से) परिक्रमा करने से देवी शक्ति के ज्योतिर्मंडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्यपरमाणुओ में टकराव पैदा होता है। परिणाम स्वरुप हमारा तेज नष्ट हो जाता है। इसलिए वामवर्ती परिक्रमा को वर्जित किया जाता है। इसे पाप स्वरुप बताया गया है।
  • पंचदेव परिक्रमा
सूर्य देव की सात, श्रीगणेश की चार, श्री विष्णु की पांच, श्री दुर्गा की एक, श्री शिव की आधी प्रदक्षिणा करें। शिव की मात्र आधी ही प्रदक्षिणा की जाती है,जिसके विशेष में मान्यता है कि जलधारी का उल्लंघन नहीं किया जाता है। जलधारी तक पंहुचकर परिक्रमा को पूर्ण मान लिया जाता है।
  • इस तरह भी कर सकते हैं प्रदक्षिणा
प्रदक्षिणा में आमतौर किसी भी देवमूर्ति के चारों ओर घूमकर की जाती है लेकिन कभी -कभी देवमूर्ति की पीठ दीवार की ओर रहने से प्रदक्षिणा के लिए फेरे लेने को पर्याप्त जगह नहीं होती है। घरों में भी पूजन करते समय देवमूर्ति की स्थापना किसी दीवार के सहारे से ही की जाती है। ऐसा होने पर देवमूर्ति के समक्ष यानी कि सामने भी गोल घूमकर प्रदक्षिणा की जा सकती है।
  • परिक्रमा के साथ जरुरी है श्रद्धा
पूजन के किसी भी प्रकार में श्रद्धा जरुरी है। बगैर श्रद्धा के परिक्रमा भी निष्फल ही जाती है क्योंकि यह श्रद्धा का ही चमत्कार था जिसके बल पर श्रीगणेश ने पूरे ब्रह्मांड को शिव और शक्ति का रूप मानकर अपने माता-पिता की ही परिक्रमा की और स्वयं माता -पिता ने ही उन्हें सबसे पहले पूूजे जाने का आशीर्वाद प्रदान किया।
  • वृक्षों की परिक्रमा
महिलाओं द्वारा वटवृक्ष की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है। सोमवती अमावश्या में महिलाएँ तुलसी के पौधे को सामने रख गोपाल (श्रीकृष्ण​) की लौकिक पूजा कर तुलसी की परिक्रमा करती हैं यह पौराणिक परम्परा बतायी जा रही है । ऐसा करने से परिवार में सुख समृद्धि का आगमन होता है, परिवार रोग वाधाओं से मुक्त होता है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें