चतुर्दश फल प्राप्ति रसल्लोकश्च भवेद ध्रुवम।
शिल्पशस्त्र परिज्ञानान्मत्योश्पि सुरतां ब्रजेत॥
शिल्पशस्त्र परिज्ञानान्मत्योश्पि सुरतां ब्रजेत॥
अर्थात- वास्तु शास्त्र के संपूर्ण ज्ञान से चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ती है । यही मानव के लक्ष्य हैं।
भवन निर्माण:
पर गेहे कृतास्सर्वा:, श्रौता स्मार्त क्रियाश्शुमा:।
निष्फलास्सुर्य तस्ताहि, भूमीश: पल मशनुते:॥
मानव के रहने के लिए, सिर छुपाने के लिए एक आवास की आवश्यकता होती है। जिस भूमि पर आवास बनाया जाता है अथवा जिस भूखंड पर निर्मित आवास मनुष्य अपने रहने के लिए किराए पर लेता है वही आवास की संज्ञा में आता है। आवास में कराए गए मांगलिक कार्यों का फल ही व्यक्ति को प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का कथन है।
वास्तु नियमों के अंतर्गत जब हम भूखंड का चयन भवन निर्माण के लिए कर लेते हैं तो सर्वप्रथम भूखंड की सही दिशा का निर्धारण चुंबकीय कंपास से आवश्यक होता है- पूर्व-पश्चिम एरां उत्तर-दक्षिण निर्माण योजना के लिए नक्शे पर अंकित करें एवं इसी अनुसार भवन निर्माण को सुनिश्चित करें ।
इसके बाद भवन निर्माण योजना चारों दिशाओं में से किसी भी एक दिशा के लिए नियोजित कर सकते हैं । इसको भवन दिशा या भवन आकृति कहते हैं । विभिन्न दिशाओं के भवनों का अपना-अपना महत्व व प्रभाव होता है ।
पूर्व मुखी भवन सुख प्रदान करता है, पश्चिम मुखी भवन भौतिक सुख एवं संपदा प्रदान करता है। उत्तर मुखी भवन संपदा प्रदान करता है । मोक्ष की इच्छा वालों के लिए दक्षिण मुखी भवन अच्छा होता है । इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण होता है, आयाति गणना से भवन की लंबाई, चौड़ाई तय करना । वास्तु नियमों में वास्तु का शुभ नक्षत्र एवं गृहिणी, गृहस्वामी एवं पुत्र नक्षत्र अनुकूल होने से, 100 वर्षों तक भवन उत्त्म स्वास्थ्य व सुख-शान्ति उपलब्ध कराता है । भवन में गृहिणी को गृहस्वामिनी माना गया है क्योंकि गृह की सारी व्यवस्थाएँ उसे ही करनी होती हैं। अत: गृहस्वामिनी का जन्म नक्षत्र सर्वोपरि होता है ।
भवन निर्माण योजना से पृथ्वी ऊर्जा, अंतरिक्ष ऊर्जा, वातावरण में व्याप्त ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा तथा विद्युत चुंबकीय ऊर्जा का अनुकूल प्रभाव प्राप्त होता है । भवन के अंदर जो रिक्त स्थान है वास्तव में ऊर्जा से भरा हुआ है और जब उसे विशेष दिशा से प्रवाहित करते हैं तो परिणामस्वरूप यह ऊर्जा प्रवाह का एक मार्ग बन जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वातावरण में ऊर्जा का प्रवाह एक निश्चित दिशा से संचालित होता है और जब इस स्थाई ऊर्जा प्रवाह को भवन में उचित ऊर्जा प्रवाह का मार्ग उपलब्ध हो जाता है तभी वास्तु नियमों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त होता है ।
पर गेहे कृतास्सर्वा:, श्रौता स्मार्त क्रियाश्शुमा:।
निष्फलास्सुर्य तस्ताहि, भूमीश: पल मशनुते:॥
मानव के रहने के लिए, सिर छुपाने के लिए एक आवास की आवश्यकता होती है। जिस भूमि पर आवास बनाया जाता है अथवा जिस भूखंड पर निर्मित आवास मनुष्य अपने रहने के लिए किराए पर लेता है वही आवास की संज्ञा में आता है। आवास में कराए गए मांगलिक कार्यों का फल ही व्यक्ति को प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का कथन है।
वास्तु नियमों के अंतर्गत जब हम भूखंड का चयन भवन निर्माण के लिए कर लेते हैं तो सर्वप्रथम भूखंड की सही दिशा का निर्धारण चुंबकीय कंपास से आवश्यक होता है- पूर्व-पश्चिम एरां उत्तर-दक्षिण निर्माण योजना के लिए नक्शे पर अंकित करें एवं इसी अनुसार भवन निर्माण को सुनिश्चित करें ।
इसके बाद भवन निर्माण योजना चारों दिशाओं में से किसी भी एक दिशा के लिए नियोजित कर सकते हैं । इसको भवन दिशा या भवन आकृति कहते हैं । विभिन्न दिशाओं के भवनों का अपना-अपना महत्व व प्रभाव होता है ।
पूर्व मुखी भवन सुख प्रदान करता है, पश्चिम मुखी भवन भौतिक सुख एवं संपदा प्रदान करता है। उत्तर मुखी भवन संपदा प्रदान करता है । मोक्ष की इच्छा वालों के लिए दक्षिण मुखी भवन अच्छा होता है । इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण होता है, आयाति गणना से भवन की लंबाई, चौड़ाई तय करना । वास्तु नियमों में वास्तु का शुभ नक्षत्र एवं गृहिणी, गृहस्वामी एवं पुत्र नक्षत्र अनुकूल होने से, 100 वर्षों तक भवन उत्त्म स्वास्थ्य व सुख-शान्ति उपलब्ध कराता है । भवन में गृहिणी को गृहस्वामिनी माना गया है क्योंकि गृह की सारी व्यवस्थाएँ उसे ही करनी होती हैं। अत: गृहस्वामिनी का जन्म नक्षत्र सर्वोपरि होता है ।
भवन निर्माण योजना से पृथ्वी ऊर्जा, अंतरिक्ष ऊर्जा, वातावरण में व्याप्त ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा तथा विद्युत चुंबकीय ऊर्जा का अनुकूल प्रभाव प्राप्त होता है । भवन के अंदर जो रिक्त स्थान है वास्तव में ऊर्जा से भरा हुआ है और जब उसे विशेष दिशा से प्रवाहित करते हैं तो परिणामस्वरूप यह ऊर्जा प्रवाह का एक मार्ग बन जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वातावरण में ऊर्जा का प्रवाह एक निश्चित दिशा से संचालित होता है और जब इस स्थाई ऊर्जा प्रवाह को भवन में उचित ऊर्जा प्रवाह का मार्ग उपलब्ध हो जाता है तभी वास्तु नियमों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त होता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें