भगवान का द्वितीय अवतार भगवान श्रीवाराह के रूप में होता है । पहले पोष्ट में यह जानकारी दे चुके हैं कि जय और विजय को श्रीसनतकुमारों ने श्राप दिया । जिस कारण वे पृथ्वी पर दैत्य रुप में जन्म लेकर देवताओं ऋषियों और मनुष्यों पर अत्याचार करने लगे । जय विजय का पहला जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में हुआ । हिरण्याक्ष का मतलब है हिरण्य अर्थात स्वर्ण (सोना), अक्ष का मतलब आँख अर्थात दूसरों के धन सम्पत्ती पर जिसकी नजर हो वही तो हिरण्याक्ष है।
हिरण्याक्ष लोभ का प्रतीक माना गया है । यही कारण है कि वह लोभ के बस हो पृथ्वी का हरण कर समुद्र के कीचड़ में लेजाकर छिपा दिया । यहां जब ब्रह्मा जी ने मनु महराज और देवी सतरूपा को सृष्टी विस्तार के लिए प्रकट किया तब महराज मनु ने अपने दाम्पत्य सुख को भोगने व अपनी संतानों के रहने के लिए एक स्थान देने के लिए बोले, तब ब्रह्माजी ने विचार किया की मैंने जिस धरा का निर्माण किया था, उसे हिरण्याक्ष ने रसातल में छिपा रखा है अब उसे बाहर कैसे लाया जाय, इसी चिन्ता से पीड़ित हो ब्रह्माजी ने भगवान नारायण को स्मरण किया । तब भगवान नारयण की ही प्रेरणा से ब्रह्माजी की नासिका क्षिद्र से श्रीवाराह प्रकट हुए ।
शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये चतुर भुज रूप में अपने स्वरूप को विराट किया और रसातल से पृथ्वी को निकाल कर अकाश में स्थपित किया । यहाँ पर बहुत से लोग परेशान हो जाते हैं की भगवान को यह रूप धारण करने की क्या आवश्यकता थी, वे और भी अन्य सुन्दर स्वरूप धारण कर सकते थे?
दरासल बात यह है कि जब हम किसी भवन का निर्माण कराते हैं तो उसके लिये अलग-अलग कारीगरों की आवश्यकता पड़ती है । लकड़ी बाला लकड़ी का काम करेगा, लोहे बाला लोहे का काम करेगा, आदि उसी प्रकार इस समस्त सृष्टी को बनाने का दायित्व ब्रह्माजी का है पर कुछ कार्य ऐसे हैं जो वे स्वयं नहीं कर सकते थे और न ही कोई और इसीलिए दूसरे कारीगर को प्रकट किया गया और वे अपना कार्य कर अपने धाम चले गये । अब इसमें आश्चर्य कैसा?
परमात्मा बड़े दयालू हैं, पिता अपने पुत्र की खुशी के लिए घोड़ बनता है और उसे अपनी पीठ पर बैठाकर घोड़े की भांति चलता है, तो हमारा परमपिता अपनी संतान की खुशी के लिए यदि वाराह बनता है तो आश्चर्य क्यों?
एक बात और यह की परमात्मा ने जिस जीव का स्वरूप धारण किया उसकी यह खाशियत है की वह कीचड़ से अपने योग्य वस्तु को खोज निकाले उसकी नासिका कीचड़ में भी स्ववस्तु को शूँघ लेती है । उस रसातल के कीचड़ में वे श्रीराम या श्रीकृष्ण का स्वरूप धारण कर नहीं जा सकते । जिस कार्य के लिए जिस स्वरूप की आवश्यकता थी उन्होंने धारन किया, हमें उनकी इस लीला पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।
इस प्रकार श्रीवाराह रसातल से पृथ्वी को निकाल कर आकास में स्थापित किया कि उसी समय हिरण्याक्ष वहाँ आकर इसका विरोध किया और श्रीवाराह ने उसका वध किया । इस तरह से महराज मनु को पृथ्वी का आधार मिला और वे मैथुन सृष्टी का विस्तर कर पाये ।
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