शनिवार, 27 जून 2015

पुरुषोत्तमी एकादशी व्रत


धर्मराज युधिष्‍ठिर बोले- हे जनार्दन! अधिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके आप मुझे बताइए। 

श्री भगवान बोले हे राजन(युधिष्ठिर​)​- अधिक मास में शुक्ल पक्ष में जो एकादशी आती है वह पद्मिनी (कमला) एकादशी कहलाती है। वैसे तो प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिक मास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है।

पद्मिनी एकादशी मुझे अति प्रिय है। इस व्रत का विधि पूर्वक पालन करने वाला गोलोक को जाता है। इस व्रत के पालन से व्यक्ति सभी प्रकार के यज्ञों, व्रतों एवं तपस्चर्या का फल प्राप्त कर लेता है। इस व्रत की कथा के अनुसार:

श्री कृष्ण कहते हैं त्रेता युग में एक परम पराक्रमी राजा कीतृवीर्य था। इस राजा की कई रानियां थी परतु किसी भी रानी से राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। संतानहीन होने के कारण राजा और उनकी रानियां तमाम सुख सुविधाओं के बावजूद दु:खी रहते थे। संतान प्राप्ति की कामना से तब राजा अपनी रानियो के साथ तपस्या करने चल पड़े। हजारों वर्ष तक तपस्या करते हुए राजा की सिर्फ हडि्यां ही शेष रह गयी परंतु उनकी तपस्या सफल न रही। रानी ने तब देवी अनुसूया से उपाय पूछा। देवी ने उन्हें मल मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने के लिए कहा।

अनुसूया ने रानी को व्रत का विधान भी बताया। रानी ने तब देवी अनुसूया के बताये विधान के अनुसार पद्मिनी एकादशी का व्रत रखा। व्रत की समाप्ति पर भगवान प्रकट हुए और वरदान मांगने के लिए कहा। रानी ने भगवान से कहा प्रभु आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे बदले मेरे पति को वरदान दीजिए। भगवान ने तब राजा से वरदान मांगने के लिए कहा। राजा ने भगवान से प्रार्थना की कि आप मुझे ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सर्वगुण सम्पन्न हो जो तीनों लोकों में आदरणीय हो और आपके अतिरिक्त किसी से पराजित न हो। भगवान तथास्तु कह कर विदा हो गये। कुछ समय पश्चात रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जो कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से जाना गया। कालान्तर में यह बालक अत्यंत पराक्रमी राजा हुआ जिसने रावण को भी बंदी बना लिया था।

शुक्रवार, 12 जून 2015

2. गणपति तत्त्व:


सर्वजगन्नियन्ता पूर्ण परमतत्त्व ही ‘गणपति- तत्त्व​’ है; क्योंकि गणानां पति: गणपति:।‘ ‘गण​’- शब्दसमूहका वाचक होता है- गणशब्द​: समूहस्य वाचक​: परिकीर्तित​: समूहों का पालन करनेवाले परमात्मा को ‘गणपति’ कहते हैं ।
मुद्गल पुराण अनुसार भगवान गणेश ने सत्कर्म का नाश करने वाले विघ्नासुर का वध किया तभी से उनका नाम विघ्नराज हुआ और सभी सत्कर्म कार्य से पूर्व भगवान गणेश का ध्यान किया जाने लगा ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवा:। (श्रीमद्भगवतगीता १८।४६) सत्कर्म से विशुद्धान्त​:करण पुरुषको भगवतत्तत्त्व साक्षात्कार होता है । विघ्नासुर पराजित हो श्रीगणेश की शरण ग्रहण लिया । अत​: गणेशजीका नाम "विघ्नराज" हुआ । उसी समय से गणेश-पूजन-स्मरणरहित जो भी सत्कर्म किया जाता है,  उसमे विघ्नका प्रादुर्भाव होने लगता है । तबसे विघ्न भगवान श्रीगणेशजीके ही  आश्रित रहने लगा ।
  • वेदों में गणपती

"तत्पुषाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥”


(तैत्तिरीयारण्यक​, प्रपाठक १०; नारायणोपनिषद्, अ० ५)

गणानां त्वा गणपति गुँ हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्। ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ न​: श्रृण्वन्नूतिभि: सीद सादनम्॥ (ऋग्वेद -२।२३।१)
‘नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो नमो नमो गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्च वो नमो नमो विरुपेभ्यो विश्वरुपेभ्यश्च वो नमः ॥’ (शुक्लयजु. १६।२५)
‘गणेश’​-शब्दका अर्थ है-‘जो समस्त जीव-जातिके ‘ईश’-स्वमी हों-गणानां जीवजातानां य​: ईश​:-स्वामी स गणेश​: ।’
शास्त्रीय प्रमाणोंसे पंचदेवोंकी उपासना सम्पूर्ण कर्मोंमें प्रख्यात है। "शब्दकल्पद्रुम​" कोश में आया है -
आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवम्। पञ्चदैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत्॥
पंचदेवोंकी उपासनाका रहस्य पंचभूतों के साथ सम्बन्धित है। पंचभूतों में पृथ्वी, जल​, तेज​, वायु और आकाश प्रख्यात हैं और इन्हीं के अधिपत्य के कारण से आदित्य​, गणनाथ (गणेश), देवी, रुद्र और केशव । ये पंचदेव भी पूजनीय प्रख्यात हैं। एक​-एक तत्त्वका एक​-एक देवता स्वामी है-
आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी । वायो: सूर्य​: क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिप​: ॥
   महाभूत__                                       ___ अधिपति
  •      क्षिति (पृथ्वी)_____________________ शिव
  •      अप​ (जल)________________________ गणेश
  •      तेज​ (अग्नी)_______________________ शक्ति
  •      मरुत​ (वायु)________________________ सूर्य
  •     व्योम​ (आकाश)_______________________ विष्णु


यह विषय गम्भीरतासे मननीय तथा गवेषणीय है। भगवान शिवके पृथ्वीतत्त्वके अधिपति होने कारण उनकी पार्थिव-पूजाका विधान है। भगवान विष्णु के आकाशतत्त्वके अधिपति होनेके कारण उनकी शब्दों द्वारा स्तुतिका विधान है भगवती देवीके अग्नितत्त्वकाअधिपति होनेके कारण उनका अग्निकुण्डमें हवनादिके द्वारा पूजाका विधान है । श्रीगणेशजीके जलतत्त्वके अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा करने का विधान है । मनुका कथन है- "अप एव ससर्जाऽऽदौ तासु बीजमवासृजत्।" (मनुस्मृति १।८) इस प्रमाणसे सृष्टिके आदिमें एकमात्र वर्तमान जलके अधिपति श्रीगणेश हैं । अत: जितने भी अनुष्ठान किये जायँ, उनके आरम्भमें गणेश-पूजन अत्यन्त आवश्यक है । सूर्यके वायुतत्त्वके अधिपति होने के कारण प्राणकी रक्षाके लिए "सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च​" (यजुर्वेद ७।४२) इस प्रमाणसे नमस्कारादिद्वारा पूजनका विधान है ।

1. श्रीगणपती

गणानां त्वा गणपति गुँ हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्। 
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ न​: श्रृण्वन्नूतिभि: सीद सादनम्॥ (ऋग्वेद -२।२३।१)

श्रीगणेशका वास्तविक अर्थ क्या है इस पर विचार करना अति आवश्यक प्रतीत होता है-
"गण​" का अर्थ ह्ऐ- वर्ग, समूह या समुदाय । "ईश​" का अर्थ है स्वामी । गणदेवों के स्वामी होनेसे उन्हें "गणेश" कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य "गणदेवता कहे गये हैं जो दशों दिशाओं की रक्षा करते हैं ।
“गण” शब्द रुद्रके अनुचरके लिये भी आता है । जैसा कि रामायणमें कहा गया है-
धनाध्यक्षसमो देव​: प्राप्तो हि वृषभध्वज​: । 
उमासहायो देवेशो गणैश्च बहुभिर्युत​: ॥

संख्याविशेषवाली सेनाका भी बोधक गण-शब्द है, इसके स्वामी गणेशजी हैं। "महानिर्वाणतन्त्र​" के अनुसार-
गणपस्तु महेशानि गणदीक्षाप्रवर्त्तक​: ।
ज्यौतिषशास्त्रमें अश्विनी आदि जन्म-नक्षत्रोंके अनुसार देव, मानव और राक्षस- ये तीन गण हैं । इन सब प्रकार के गणों के ईश श्रीगणेशजी हैं ।
तुलसीदास जी ने मानस में देवी पार्वती को श्रद्धा और शिव को विश्वास बताया है । किसी देव कार्य में हम जबतक श्रद्धा नहीं रखेंगे तब तक उस कार्य में विश्वास ही नहीं होगा और यदि विश्वास नहीं होगा तो श्रद्धा का होना भी असम्भव है । जब किसी देव कार्य में श्रद्धा और विश्वास होता है तो कार्य अवश्य सिद्ध हो जाता है । इसकारण भी शुभकार्य की सिद्धी अर्थात पूर्णता के लिए गणनाथ की पूजा की जाती है ।

विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । 
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥

विद्याप्राप्ती हो या विवाह, जन्म के समय हो या मृत्यु के निकट देश रक्षा के लिए संग्राम हो अथवा संकट का समय भगवान गणपती का ध्यान करने मात्र से विघ्न दूर हो जाते हैं इसमें तनिक भी संशय नहीं है । 


हमारा आराध्यदेव कौन?

हमारे सनातन धर्म में 33 कोटि देवता हैं, व्रत त्योहार भी सप्ताह में एक तो आ ही जाता है वह चाहे आप करें या नहीं । हर मनुष्य किसी न किसी प्रकार से दु:खी रहता है, जिस कारण वह मन की इच्छा या किसी के कहने पर कभी मंगलवार का व्रत करता है तो कभी शनिवार का । इसमें किसी की समश्या हल हो जाती है, तो किसी की परेशानी बनी रहती है । इस प्रकार लोगों के बताये अनुसार हमारे देवाता, उपासना आदि बदलते रहते हैं ।

आपको यह बात गांठ बाधनी होगी की हमारा आराध्यदेव (इष्टदेव​) एक ही होना चाहिए । उनपर हमारी पूर्ण श्रद्धा-विश्वास होना चाहिए। वही आराध्यदेव हमारी रक्षा करते हैं, नित्य उनका स्मरण करना, जप करना ऐश्वर्य व तेजकारक होता है ।

  • हमारा आराध्यदेव कौन?

दुनिया में सबसे अधिक धार्मिक​, भजन​-चिन्तन करनेवाला, पूजा-पाठ करने वाला हिन्दू ही है; परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि धर्म के प्रति इतना आस्थावान हिन्दू जीवन के अन्तिम समय तक यह निश्चय ही नहीं कर पाता कि हमार इष्ट कौन है? हम किसकी पूजा भजन कर कल्याण को प्राप्त कर सकते हैं?

एक ही परिवार में दस सदस्य हैं तो सबके देवता अलग-अलग हैं । कोई हनुमानजी का भक्त है तो कोई शिवजी का  कोई दुर्गाजी को तो कोई किसी अन्य देवता का । लोग अपने-अपने देवी-देवता के लिए लड़ते झगड़ते भी हैं। पर किसी को मालुम नहीं कि शाश्वत कौन है? किसकी उपासनासे शाश्वत धाम की प्राप्ति होगी? अनेक देवी-देवता मन में इस प्रकार समा गये हैं कि अन्त समय तक हम किसी पर विश्वास ही नहीं टिका पाते ।

मृत्यु समय में जब पुत्र आस​-पास खड़े होकर कहते हैं कि दादा अब चिन्ता त्यागकर भगवान का स्मरण करो, तो दादाजी एक झटके में कह गुजरते हैं- हे! हनुमन जी, दुर्गा माता, हे! रामजी रक्षा करो, हे! शिवजी वेड़ापार करो । हे! सांई बाबा हे ब्रह्मदेव हे! सिद्धदेव औसतन बीस पच्चीस नामों का एक साथ स्मरण करने लगते हैं। इस तरह भ्रान्ति अंत तक बनी रहती है । हमारे मनमें यह दोष बैठा है कि कहीं उन देवता का नाम न लिया तो वे दु:ख न देने लगें, उनकी पूजा न की तो वे रूठ न जाएँ । इस विषय में श्रीकृष्ण कहते हैं-

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्। नाष्नुवन्ति महात्मान​: संसिद्धिं परमां गता:॥ ८/१५__गीता
अर्जुन​! मुझे प्राप्त होकर पुरुष क्षणभंगुर​, दु:खों की खान पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है बल्कि वह पुरुष मुझे प्राप्त होता है । जो पुनर्जन्म में आता है वह दु:खों की खान है । केवल मुझे प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता बल्कि "स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम्” वह शाश्वत सदा रहनेवाला स्थान, परमधाम को पा जाता है।

आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन । मामुपेत्य तु कौन्तेय न विद्यते ॥ ८/१६__गीता
अर्जुन​! ब्रह्मा से लेकर चौदहों भुवन​, चराचर जगत पुनरावर्ती स्वभाव वाला है किन्तु मुझे प्राप्त होनेवाला पुरुष पुनर्जन्म को प्राप्त न होकर शाश्वत धाम को पा लेता है । स्पष्ट है कि ब्रह्मा और उनके द्वारा सृजित सारी सृष्टि मरणधर्मा है। इसके अन्दर देवता, पितर​, दानव​, ऋषि, सूर्य, चन्द्र​, सभी आ जाते हैं । मानव जीवन का परम लक्ष्य है अमरत्व की प्राप्ति । इस लक्ष्य की प्राप्ति श्रीकृष्ण के अनुसार एक परमात्मा के चिन्तन से ही सम्भव है ।


अधिक नहीं, केवल एक परमात्मा के प्रति श्रद्धा और उस परमात्मा के किसी एक नाम रूप ॐ अथवा राम का यदि आप जप करते हैं, तो (धर्म को न जानते हुए भी) आप शुद्ध धार्मिक हैं, सम्पूर्ण क्रिया को न जानते हुए भी आप क्रियावान हैं । न इसका फल नष्ट होगा और न आप ।

क्या है अधिकमास...



हाम आज से पुरुषोत्त्म मास (अधिका मास) के बारे में जानेंगे । यह अधिक मास होता क्या है? क्यों और कब आता है ? इस माह में हमें क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए ?

  • क्या है अधिकमास:?

सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने को संक्रांति होना कहते हैं। सौर मास और राशियों दोनों की संख्या १२ होती है। जब दो पक्षों में संक्रांति नहीं होती, तब अधिकमास होता है।

  • अब पक्ष क्या है? 
पक्ष दो होते हैं 1. कृष्णपक्ष 2. शुक्लपक्ष, ये दोनों पक्ष पन्द्रह-पन्द्रह दिनों के होते है, कृष्णपक्ष के अंत में अमावश्या और शुक्लपक्ष के अंत में पूर्णिमा तिथी आती है । या तो यूँ समझें की जब आकाश में चन्द्रमा घटता हुआ दिखाई दे उसे कृष्णपक्ष कहते हैं और जब चन्द्रमा बढता हुआ दिखे तो उसे शुक्लपक्ष कहते हैं । इस प्रकार दोनों पक्षों को मिलाकर माह कहलाता है । प्रत्येक माह में एक राशिका भी स्थान होता है, जिसदिन सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करे उसे संक्रान्ति माना जाता है ।
  • क्यों आता है अधिक मास ​?

आमतौर पर यह स्थिति 32 माह और 16 दिन में एक बार यानी हर तीसरे वर्ष में बनती है। ऐसा सूर्य और पृथ्वी की गति में होने वाले परिवर्तन से तिथियों का समय घटने-बढऩे के कारण होता है। पुराणों में देखें तो भगवान नृसिंह ने इसी महीने में हिरण्यकशिपु का बध किया था, यह माह भगवान श्रीहरि के द्वारा निर्मित है, इसलिए इस माह का एक और नाम "पुरुषोत्तममास" भी है ।
पुरुषोत्तम मास तीन साल में एक बार आता है। इसे स्वयं भगवान ने अपने नाम से जोड़ा था। यह मास धर्म और पुण्य कार्य करने के लिए सर्वोत्तम होता है क्योंकि इस माह में पूजन-पाठ करने से अधिक पुण्य मिलता है। इस माह में श्राद्ध, स्नान और दान से कल्याण होता है।
  • क्या खाएं क्या नहीं ?

हमारे धर्म ग्रंथों में अधिक मास से संबंधित कई नियम बताए गए हैं। यह नियम हमारे खान-पान से लेकर व्यवहार को भी प्रभावित करते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने अधिक मास के नियमों के संबंध में कहा है कि इस महीने में गेहूं, चावल, सफेद धान, मूंग, जौ, तिल, मटर, बथुआ, शहतूत, सामक, ककड़ी, केला, घी, कटहल, आम, हर्रे, पीपल, जीरा, सौंठ, इमली, सुपारी, आंवला, सेंधा नमक आदि भोजन पदार्थों का सेवन करना चाहिए।

इसके अतिरिक्त मांस, शहद, चावल का मांड, चौलाई, उरद, प्याज, लहसुन, नागरमोथा, छत्री, गाजर, मूली, राई, नशे की चीजें, दाल, तिल का तेल और दूषित अन्न का त्याग करना चाहिए। तांबे के बर्तन में गाय का दूध, चमड़े में रखा हुआ पानी और केवल अपने लिए ही पकाया हुआ अन्न दूषित माना गया है। अतएव इनका भी त्याग करना चाहिए।
  • क्या है नियम ?
पुरुषोत्तम मास में जमीन पर सोना, पत्तल पर भोजन करना, शाम को एक वक्त खाना, रजस्वला स्त्री से दूर रहना और धर्मभ्रष्ट संस्कारहीन लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहिए। किसी प्राणी से द्रोह नहीं करना चाहिए। परस्त्री का भूल करके भी सेवना नहीं करना चाहिए। देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गाय, साधु-सन्यांसी, स्त्री और बड़े लोगों की निंदा नहीं करना चाहिए।अधिक मास में किए विधि-विधान के साथ जाने वाले धर्म-कर्म से करोड़ गुना फल मिलता है। पितरों की कृपा प्राप्ति के लिए इस मास में पुण्य कर्म करना चाहिए।

इस संसार में मनुष्य माया से मुक्ति पाने के लिए जीवन भर भटकता रहता है पर उसे मुक्ति नहीं मिलती। जिस क्षण श्रीमद्भागवत व भगवान श्रीकृष्ण, भगवान विष्‍णु के प्रति उसके मन में भाव जागता है, उसी क्षण माया से मुक्ति मिल जाती है। भगवान की भक्ति में लीन होकर प्राणी पापों से मुक्ति पाकर अपना लोक और परलोक दोनों सुधार लेता है।

पुरुषोत्तम मास में विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ और गणपति अथर्वशीर्ष मनुष्य को पुण्य की ओर ले जाते हैं। भागवत कथा व पुरुषोत्तम मास का संयोग भी अपने आप में बहुत दुर्लभ है। कहते हैं कि स्वर्ग में सब कुछ मिल सकता है, पर भागवत कथा नहीं। भगवान मिल जाएंगे, लेकिन भगवान की कथा नहीं। अधिक मास अर्थात पुरुषोत्तम मास भगवान विष्णु ने मानव के पुण्य के लिए ही बनाया है।

  • पुरुषोत्तममास की महिमा

पुराणों में उल्लेख है कि जब हिरण्य कश्यप को वरदान मिला कि वह साल के बारह माह में कभी न मरे तो भगवान ने मलमास की रचना की। जिसके बाद ही नृसिंह अवतार लेकर भगवान ने उसका वध किया। इस माह में भगवान विष्णु के नाम का जाप करना ही हितकर होता है। इस जाप से ही पापों से मुक्ति मिलती है।

अधिक मास में सूर्य की संक्रान्ति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) न होने के कारण इसे ऽमलमास (मलिन मास) कहा गया। स्वामीरहित होने से यह मास देव-पितर आदि की पूजा तथा मंगल कर्मों के लिए त्याज्य माना गया है । इससे लोग इसकी घोर निंदा करने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः "मैं इसे सर्वोपरि - अपने तुल्य करता हूँ। सदगुण, कीर्ति, प्रभाव, षडैश्वर्य, पराक्रम, भक्तों को वरदान देने का सामर्थ्य आदि जितने गुण मुझमें हैं, उन सबको मैंने इस मास को सौंप दिया।

अहमेते यथा लोके प्रथितः पुरुषोत्तमः। तथायमपि लोकेषु प्रथितः पुरुषोत्तमः॥

उन गुणों के कारण जिस प्रकार मैं वेदों, लोक और शास्त्रों में 'पुरुषोत्तम' नाम से विख्यात हूँ, उसी प्रकार यह मलमास भी भूतल पर 'पुरुषोत्तम' नाम से प्रसिद्ध होगा और मैं स्वयं इसका स्वामी हो गया हूँ।" इस प्रकार अधिकमास, मलमास, 'पुरुषोत्तम मास' के नाम से विख्यात हुआ।

भगवान कहते हैं- 'इस मास में मेरे उद्देश्य से जो स्नान (ब्रह्ममुहूर्त में उठकर भगवत्स्मरण करते हुए किया गया स्नान), दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण तथा देवार्चन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है। जो प्रमाद से इस बात को खाली बिता देते हैं, उनका जीवन मनुष्यलोक में दारिद्रय, पुत्रशोक तथा पाप के कीचड़ से निंदित हो जाता है इसमें संदेह नहीं है।

सुगंधित चंदन, अनेक प्रकार के फूल, मिष्टान्न, नैवेद्य, धूप, दीप आदि से लक्ष्मी सहित सनातन भगवान तथा पितामह भीष्म का पूजन करें। घंटा, मृदंग और शंख की ध्वनि के साथ कपूर और चंदन से आरती करें। ये न हों तो रूई की बत्ती से ही आरती कर लें। इससे अनंत फल की प्राप्ति होती है। चंदन, अक्षत और पुष्पों के साथ ताँबे के पात्र में पानी रखकर भक्ति से प्रातःपूजन के पहले या बाद में अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय भगवान ब्रह्माजी के साथ मेरा स्मरण करके इस मंत्र को बोलें-

देवदेव महादेव प्रलयोत्पत्तिकारक। गृहाणार्घ्यमिमं देव कृपां कृत्वा ममोपरि॥
स्वयम्भुवे नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेऽमिततेजसे। नमोऽस्तुते श्रियानन्त दयां कुरु ममोपरि॥

"हे देव ! हे महादेव ! हे प्रलय और उत्पत्ति करने वाले ! हे देव ! मुझ पर कृपा करके इस अर्घ्य को ग्रहण कीजिए। तुझ स्वयंभू के लिए नमस्कार तथा तुझ अमिततेज ब्रह्म के लिए नमस्कार। हे अनंत ! लक्ष्मी जी के साथ आप मुझ पर कृपा करें।"

पुरुषोत्तम मास का व्रत दारिद्रय, पुत्रशोक और वैधव्य का नाशक है। इसके व्रत से ब्रह्महत्या आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
इस महीने में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो जप, सत्संग व सत्कथा– श्रवण, हरिकीर्तन, व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादि किये जाते हैं, उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से किये जाने वाले अनुष्ठानों के लिए यह अत्यंत श्रेष्ठ समय है। "देवी भागवत" के अनुसार यदि दान आदि का सामर्थ्य न हो तो संतों-महापुरुषों की सेवा सर्वोत्तम है, इससे तीर्थस्नानादि के समान फल प्राप्त होता है।

इस मास में प्रातःस्नान, दान, तप नियम, धर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ नाम जप– गुरुमंत्र जप का अधिक महत्त्व है। इस महीने में दीपकों का दान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। दुःखशोकों का नाश होता है। वंशदीप बढ़ता है, ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है। इस मास में आँवले और तिल का उबटन शरीर पर मलकर स्नान करना और आँवले के वृक्ष के नीचे भोजन करना यह भगवान श्री पुरुषोत्तम को अतिशय प्रिय है, साथ ही स्वास्थ्यप्रद और प्रसन्नताप्रद भी है। यह व्रत करने वाले लोग बहुत पुण्यवान हो जाते है।
  • अधिक मास में वर्जित

इस मास में सभी सकाम कर्म एवं व्रत वर्जित हैं। जैसे – कुएँ, बावली, तालाब और बाग आदि का आरम्भ तथा प्रतिष्ठा, नवविवाहिता वधू का प्रवेश, देवताओं का स्थापन (देवप्रतिष्ठा), यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, नामकर्म, मकान बनाना, नये वस्त्र एवं अलंकार पहनना आदि।
  • अधिक मास में करने योग्य

प्राणघातक रोग आदि की निवृत्ति के लिए रूद्रजप आदि अनुष्ठान, दान व जप-कीर्तन आदि, पुत्रजन्म के कृत्य, पितृमरण के श्राद्धादि तथा गर्भाधान, पुंसवन जैसे संस्कार किये जा सकते हैं।

पुरुषोत्तम मास का दूसरा नाम मल मास है । 'मल' कहते हैं पाप को और 'पुरुषोत्तम' नाम है भगवान का । इसलिए हमें इसका अर्थ यों लगाना चाहिए की पापों को छोडकर भगवान पुरुषोत्तम में प्रेम करें और वो ऐसा करें की इस एक महीने का प्रेम अनंत कालके लिए चिरस्थायी हो जाए । भगवान में प्रेम करना ही तो जीवन का परम-पुरुषार्थ है, इसी केलिए तो हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन और सदसद्विवेक प्राप्त हुआ है । हमारे ऋषियों ने पर्वों और शुभ दिनों की रचना कर उस विवेक को निरंतर जागृत रखने के लिए सुलभ साधन बना दिया है, इसपर भी यदि हम ना चेतें तो हमारी बड़ी भूल है ।

इस पुरुषोत्तम मास में परमात्मा का प्रेम प्राप्त करनेके लिए यदि सबही नर-नारी निम्नलिखित नियमों को महीनेभर तक सावधानी के साथ पालें तो उन्हें बहुत कुछ लाभ होने की संभावना है ।
  1. प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठें
  2. गीताजी के पुरुषोत्तम-योग नामक 15वे अध्याय का प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक पाठ करें । श्रीमद भागवत का पाठ करें, सुनें । संस्कृत के श्लोक ना पढ़ सकें तो अर्थों का ही पाठ करलें ।
  3. स्त्री-पुरुष दोनों एक मतसे महीनेभर तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें जमीनपर सोवें
  4. प्रतिदिन घंटे भर किसी भी नियत समयपर मौन रहकर अपनी-अपनी रूचि और विश्वास के अनुसार भगवान का भजन करें
  5. जान-बूझकर झूठ ना बोलें किसीकी निंदा ना करें
  6. भोजन और वस्त्रों में जहां तक बन सके, पूरी शुद्धि और सादगी बरतें पत्तेपर भोजन करें, भोजन में हविष्यान्न ही खाएं
  7. माता,पिता,गुरु,स्वामी आदि बड़ों के चरणोंमें प्रतिदिन प्रणाम करें भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की पूजा करें।

पुरुषोत्तम मास में दान देनेका और त्याग करनेका बड़ा महत्त्व माना गया है, इसलिए जहां तक बन सके, जिसके पास जो चीज़ हो वाही योग्य पात्र के प्रति दान देकर परमात्मा की सेवा करनी चाहिए । त्याग करनेमें तो सबसे पहले पापों का त्याग करना ही जरूरी है । जो भाई या बहन हिम्मत करके कर सकें, वे जीवन भर के लिए झूठ, क्रोध और दूसरों की जान-बूझकर बुराई करना छोड़ दें ।

जीवन भर का व्रत लेनेकी हिम्मत ना हो सकें तो जितने अधिक दिनों का ले सकें, उतना ही लें । परन्तु जो भाई-बहन दिलकी कमजोरी, इन्द्रियों की आसक्ति, बुरी संगती अथवा बिगड़ी हुयी आदत के कारण मांस खाते हैं और मदिरा-पान करते हैं तथा पर-स्त्री और पर-पुरुष से अनुचित संबंध रखते हैं, उनसे तो हम हाथ-जोड़कर प्रार्थना करते हैं की वे इन बुराईयोंको सदा के लिए छोडकर दयामय प्रभुसे अब तक की भूल के लिए क्षमा मांगे ।

जो भाई-बहन ऊपर लिखे सातों नियम जीवन-भर पाल सकें तो पालने की चेष्ठा करें, कम-से-कम चातुर्मास नहीं तो पुरुषोत्तम महीने तक तो जरूर पालें और भविष्य में सदा इसे पालने के लिए अपनेको तैयार करें । अपनी कमजोरी देखकर निराश ना हों, दया के सागर और परम करुनामय भगवान का आश्रय लेनेसे असंभव भी संभव हो जाता है । जितने नियम कम-से-कम पालन कर सकें उतने अवश्य ही पालें

गुरुवार, 11 जून 2015

Part- 4. वास्तु विज्ञान​ (Architectural Science)

भूसतह के नीचे जल स्त्रोत:-
भवन निर्माण के लिए एवं भौतिक सुख, स्वास्थ्य के लिए जल सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए सर्वप्रथम भूखंड में कुआँ, बोर-वेल, ट्यूब वेल या भूसतह के नीचे पानीका स्थान बनाना आवश्यक होता है । इसे ईशान में बनाना शुभ माना गया है । अन्य क्षेत्रों में बनानें से अशुभ प्रभाव प्राप्त हो सकते हैं । शास्त्रों में उनका प्रभाव निम्नाशार वर्णित है ।

१. दक्षिण में अग्नि भय
२. आग्नेय में शत्रु भय
३. नैऋत्य में स्त्रियों में झगड़ा
४. पश्चिम में स्त्रियों में दोष, निर्लज्जता
५. वायव्य में निर्धनता
६. उत्तर में धनवृद्धि
७. ईशान में वंशवृद्धि व संपन्नता
८. पूर्व में बच्चों के लिए कठिनाई

यदि किसी कारण वश बोर-वेल का पानी किसी अन्य दिशा में प्राप्त हुआ है, तो ईशान में पानी की टंकी, ज़मीन की सतह के अंदर बनाकर पानीको पंप द्वारा ओवर हेड टैंक में भरें एवं प्रयोग करें ।

असली रुद्राक्ष की पहचान-

शास्त्रों में कहा गया है की जो भक्त रुद्राक्ष धारण करते हैं भगवान भोलेनाथ उनसे हमेशा प्रसन्न रहते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है अक्सर लोगों को रुद्राक्ष की असली माला नहीं मिल पाती है जिससे भगवान शिव की आराधना में खासा प्रभाव नहीं पड़ता है आज हम आपको रुद्राक्ष के बारे में कुछ जानकारियां देने जा रहे हैं जिसके द्वारा आप असली और नकली की पहचान कर सकते है-
१. रुद्राक्ष की पहचान के लिए रुद्राक्ष को कुछ घंटे के लिए पानी में उबालें यदि रुद्राक्ष का रंग न निकले या उस पर किसी प्रकार का कोई असर न हो, तो वह असली होगा।
२. इसके आलावा आप रुद्राक्ष को पानी में डाल दें अगर वह डूब जाता है तो असली नहीं नकली है ।
३. लेकिन यह जांच अच्छी नहीं मानी जाती है क्योंकि रुद्राक्ष के डूबने या तैरने की क्षमता उसके घनत्व एवं कच्चे या पके होने पर निर्भर करती है और रुद्राक्ष मेटल या किसी अन्य भारी चीज से भी बना रुद्राक्ष भी पानी में डूब जाता है।
४. सरसों के तेल मे डालने पर रुद्राक्ष अपने रंग से गहरा दिखे तो समझो वो एक दम असली है।

11. कूर्म अवतार


इस अवतार को आवेशावतार माना जाता है । जब श्रृष्टी कार्य में कोई संकट आये और देवता उन ब्रह्मका आहवाहन करे तो उस कार्य को पूर्ण करने हेतु परमात्मा ने जो अवतार लिया वह आवेश अवतार माना जाता है । मत्स्य, कूर्म, मोहनी आदि अवतार आवेशावतार कहे जाते हैं । कूर्म के अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नोंकी प्राप्ती की।

देवराज इन्द्र, दैत्यराज बलि से युद्ध में हार गये स्वर्ग दैत्यों के आधीन था, तब इन्द्र दु:खी हो भगवान विष्णु के पास आये प्रणाम किया और अपनी समस्या बताकर उपाय पूछा ।

तब श्रीनारायण बोले- देवराज एक उपाय है कि तुम राजा बली से मैत्री करलो और मिलकर समुद्र का मंथन करो । समुद्र मंथन से जो अमृत निकलेगा वह आप सभी देवता पीलेना तब आप कभी पराजित नहीं होंगे ।

"इन्द्र" राजा बली के समक्ष यह बात रखी और बोले- दैत्यराज हम दोनों भाई हैं, दैत्य और देवता दोनों एक पिता की संतान हैं फिर भी हम आपस में लड़ते हैं । मैं चाहता हूँ हम सब मिलकर समुद्र का मंथन करें । और उसमें से जो अमृत निकले उसे मिलकर पीलें फिर हम भी अमर, तुम भी अमर. हमने सब उपाय सोच लिया बस आप हाँ करदो । इस विशाल कार्य को मन्दर पर्वत और वासुकी साँप के सहारे से ही किया जा सकता था, जहाँ पर्वत को मथिनी का डंडा और वासुकी को रस्सी के समान उपयोग किया गया।

समुद्र का मंथन करने लगे, जहाँ एक तरफ असुर थे और दुसरी तरफ देव थे। लेकिन इस मंथन करने से एक घातक जहर निकलने लगी जिससे घुटन होने लगी और सारी दुनिया पर खतरा आ गया। लेकिन भगवान महादेव बचाव के लिए आए और उस ज़हर का सेवन किया और अपने कंठ में उसे बरकरार रखा जिससे उनका नीलकंठ नाम पड़ा। मंथन जारी रहा लेकिन धीरे धीरे पर्वत डूबने लगा। तभी भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार (कछुआ) में अवतीर्ण हुए एक विशाल कछुए का अवतार लिया ताकि अपने पीट कर पहाड़ को उठा सकें। उस कछुए के पीठ का व्यास 100,000 योजन था।

कामधेनु, कल्पवृक्ष, शंख, कौस्तुभमणी, ऐरावतहाथी जैसे १४ रत्नों के साथ अमृत कलश के साथ प्रकट हुआ। इस प्रकार से भगवान का कूर्म अवतार हुआ।

कैसे करें आरती ?..


हमारे सनातन धर्म में देव आराधना के अनेको विधियाँ है उन्हींमें से एक है देवार्ती या नीराजन, हम आरती क्यों और कैसे करें यह जाने और समझें ।

घर हो या मंदिर, भगवान की पूजा के बाद घड़ी, घंटा और शंख ध्वनि के साथ आरती की जाती है। बिना आरती के कोई भी पूजा अपूर्ण मानी जाती है। इसलिए पूजा शुरू करने से पहले लोग आरती की थाल सजाकर बैठते हैं। पूजा में आरती का इतना महत्व क्यों हैं इसका उत्तर स्कंद पुराण में मिलता है। इस पुराण में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति मंत्र नहीं जानता, पूजा की विधि नहीं जानता लेकिन आरती कर लेता है तो भगवान उसकी पूजा को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेते हैं।

आरती का धार्मिक महत्व होने के साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है। रुई शुद्घ कपास का होता है इसमें किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती है। इसी प्रकार घी भी दूध का मूल तत्व होता है। कपूर और चंदन भी शुद्घ और सात्विक पदार्थ है।जब रुई के साथ घी और कपूर की बाती जलाई जाती है तो एक अद्भुत सुगंध वातावरण में फैल जाती है। इससे आस-पास के वातावरण में मौजूद नकारत्मक उर्जा भाग जाती है और सकारात्मक उर्जा का संचार होने लगता है।

आरती में बजने वाले शंख और घंटी के स्वर के साथ जिस किसी देवता को ध्यान करके गायन किया जाता है उसके प्रति मन केन्द्रित होता है जिससे मन में चल रहे द्वंद का अंत होता है। हमारे शरीर में सोई आत्मा जागृत होती है जिससे मन और शरीर उर्जावान हो उठता है। और महसूस होता है कि ईश्वर की कृपा मिल रही है। 

आरती: 

आरती को 'आरात्रिक' अथवा 'नीराजन' के नाम से भी पुकारा गया है। आराध्य के पूजन में जो कुछ भी त्रुटि या कमी रह जाती है, उसकी पूर्ति आरती करने से हो जाती है। साधारणतया 5 बत्तियों वाले दीप से आरती की जाती है जिसे 'पंचप्रदीप' कहा जाता है। इसके अलावा 1, 5, 7, 11 अथवा विषम संख्या के अधिक दीप जलाकर भी आरती करने का विधान है।

दीपक की लौ की दिशा पूर्व की ओर रखने से आयु वृद्धि, पश्चिम की ओर दुःख वृद्धि, दक्षिण की ओर हानि और उत्तर की ओर रखने से धनलाभ होता है। लौ दीपक के मध्य लगाना शुभ फलदायी है। इसी प्रकार दीपक के चारों ओर लौ प्रज्वलित करना भी शुभ है।

आरती के द्वारा व्यक्ति की भावनाएं तो पवित्र होती ही हैं, साथ ही आरती के दीये में जलने वाला गाय का घी तथा आरती के समय बजने वाला शंख वातावरण के हानिकारक कीटाणुओं का निर्मूलन करता है। 'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के अनुसार जो धूप, आरती को देखता है, वह अपनी कई पीढ़ियों का उद्धार करता है।

आरती कैसे करें ?

’प्रथम दीप माला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवें साष्टांग दण्डवत से आरती करें।‘ ’आरती उतारते समय सर्व प्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाऐं, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाऐं। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह 'पंचारती' कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं।

इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है:-
1. दीपमाला से, 
2. जल से भरे शंख से, 
3. धुले हुए वस्त्र से, 
4. आम और पीपल आदि के पत्तों से 
5. साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। 
पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।
आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं। एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। दूसरी मान्यता है की आरती द्वारा ईश्वर की नज़र उतारी जाती है, या बलाएं ली जाती हैं, व भक्तजन उसे इस प्रकार अपने ऊपर लेने की भावना करते हैं, जिस प्रकार एक मां अपने बच्चों की बलाएं ले लेती है। ये मात्र सांकेतिक होता है, असल में जिसका उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपना समर्पण व प्रेम जताना होता है।

आरती थाल  पीतल, तांबा, चांदी या सोना धातु का बना हो। इसमें एक गुंधे हुए आटे का, धातु का, गीली मिट्टी आदि का दीपक रखा होता है। ये दीपक गोल, या पंचमुखी, सप्त मुखी, अधिक विषम संख्या मुखी हो सकता है। इसे तेल या शुद्ध घी द्वारा रुई की बत्ती से जलाया गया होता है। प्रायः तेल का प्रयोग रक्षा दीपकों में किया जाता है, व आरती दीपकों में घी का ही प्रयोग करते हैं। बत्ती के स्थान पर कपूर भी प्रयोग की जा सकती है। इस थाली में दीपक के अलावा पूजा के फ़ूल, धूप-अगरबत्ती आदि भी रखे हो सकते हैं। इसके स्थान पर सामान्य पूजा की थाली भी प्रयोग की जा सकती है। कई स्थानों पर, विशेषकर नदियों की आरती के लिये थाली की जगह आरती दीपक प्रयोग होते हैं। इनमें बत्तियों की संख्या १०१ भी होती है। इन्हें शत दीपक या सहस्रदीप भी कहा जाता है। ये विशेष ध्यानयोग्य बात है, कि आरती कभी सम संख्य़ा दीपकों से नहीं की जाती है।

आरती के लिए तेल:-
1. गाय के शुद्ध घी से ऐश्वर्य की प्राप्ती । 2. तिल के तेल से धन की प्राप्ती । 3. सरसों के तेल से कष्टों का निवारण होता है ।

घर अथवा मंदिर में बहुत से देवता विद्यमान होते हैं । इसलिए सबसे पहले गणपती और अंत में श्रीविष्णु या इष्टदेवता की आरती करनी चाहिये । आरती के बाद हाथ धुलकर पुष्पांञ्जली कर पुष्प अर्पण करें ।


ततश्च मूलमंत्रेण दत्वा पुष्पांञ्जलीत्रयम्। 
महानिरांजनंकुर्यान्महावाद्यजयस्वनै:॥ 
प्रज्वलयेत तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा । 
आरार्तिकं शुभे पात्र विषमानेकवर्तिकम्॥