पक्ष दो होते हैं 1. कृष्णपक्ष 2. शुक्लपक्ष, ये दोनों पक्ष पन्द्रह-पन्द्रह दिनों के होते है, कृष्णपक्ष के अंत में अमावश्या और शुक्लपक्ष के अंत में पूर्णिमा तिथी आती है । या तो यूँ समझें की जब आकाश में चन्द्रमा घटता हुआ दिखाई दे उसे कृष्णपक्ष कहते हैं और जब चन्द्रमा बढता हुआ दिखे तो उसे शुक्लपक्ष कहते हैं । इस प्रकार दोनों पक्षों को मिलाकर माह कहलाता है । प्रत्येक माह में एक राशिका भी स्थान होता है, जिसदिन सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करे उसे संक्रान्ति माना जाता है ।
आमतौर पर यह स्थिति 32 माह और 16 दिन में एक बार यानी हर तीसरे वर्ष में बनती है। ऐसा सूर्य और पृथ्वी की गति में होने वाले परिवर्तन से तिथियों का समय घटने-बढऩे के कारण होता है। पुराणों में देखें तो भगवान नृसिंह ने इसी महीने में हिरण्यकशिपु का बध किया था, यह माह भगवान श्रीहरि के द्वारा निर्मित है, इसलिए इस माह का एक और नाम "पुरुषोत्तममास" भी है ।
पुरुषोत्तम
मास तीन साल
में एक बार
आता है। इसे
स्वयं भगवान ने
अपने नाम से
जोड़ा था। यह
मास धर्म और
पुण्य कार्य करने
के लिए सर्वोत्तम
होता है क्योंकि
इस माह में
पूजन-पाठ करने
से अधिक पुण्य
मिलता है। इस
माह में श्राद्ध,
स्नान और दान
से कल्याण होता
है।
हमारे
धर्म ग्रंथों में
अधिक मास से
संबंधित कई नियम
बताए गए हैं।
यह नियम हमारे
खान-पान से
लेकर व्यवहार को
भी प्रभावित करते
हैं। महर्षि वाल्मीकि
ने अधिक मास
के नियमों के
संबंध में कहा
है कि इस
महीने में गेहूं,
चावल, सफेद धान,
मूंग, जौ, तिल,
मटर, बथुआ, शहतूत,
सामक, ककड़ी, केला,
घी, कटहल, आम,
हर्रे, पीपल, जीरा, सौंठ,
इमली, सुपारी, आंवला,
सेंधा नमक आदि
भोजन पदार्थों का
सेवन करना चाहिए।
इसके
अतिरिक्त मांस, शहद, चावल
का मांड, चौलाई,
उरद, प्याज, लहसुन,
नागरमोथा, छत्री, गाजर, मूली,
राई, नशे की
चीजें, दाल, तिल
का तेल और
दूषित अन्न का
त्याग करना चाहिए।
तांबे के बर्तन
में गाय का
दूध, चमड़े में
रखा हुआ पानी
और केवल अपने
लिए ही पकाया
हुआ अन्न दूषित
माना गया है।
अतएव इनका भी
त्याग करना चाहिए।
पुरुषोत्तम
मास में जमीन
पर सोना, पत्तल
पर भोजन करना,
शाम को एक
वक्त खाना, रजस्वला
स्त्री से दूर
रहना और धर्मभ्रष्ट
संस्कारहीन लोगों से संपर्क
नहीं रखना चाहिए।
किसी प्राणी से
द्रोह नहीं करना
चाहिए। परस्त्री का भूल
करके भी सेवना
नहीं करना चाहिए।
देवता, वेद, ब्राह्मण,
गुरु, गाय, साधु-सन्यांसी, स्त्री और
बड़े लोगों की
निंदा नहीं करना
चाहिए।
अधिक
मास में किए
विधि-विधान के
साथ जाने वाले
धर्म-कर्म से
करोड़ गुना फल
मिलता है। पितरों
की कृपा प्राप्ति
के लिए इस
मास में पुण्य
कर्म करना चाहिए।
इस
संसार में मनुष्य
माया से मुक्ति
पाने के लिए
जीवन भर भटकता
रहता है पर
उसे मुक्ति नहीं
मिलती। जिस क्षण
श्रीमद्भागवत व भगवान
श्रीकृष्ण, भगवान विष्णु
के प्रति उसके
मन में भाव
जागता है, उसी
क्षण माया से
मुक्ति मिल जाती
है। भगवान की
भक्ति में लीन
होकर प्राणी पापों
से मुक्ति पाकर
अपना लोक और
परलोक दोनों सुधार
लेता है।
पुरुषोत्तम
मास में विष्णु
सहस्त्रनाम का पाठ
और गणपति अथर्वशीर्ष
मनुष्य को पुण्य
की ओर ले
जाते हैं। भागवत
कथा व पुरुषोत्तम
मास का संयोग
भी अपने आप
में बहुत दुर्लभ
है। कहते हैं
कि स्वर्ग में
सब कुछ मिल
सकता है, पर
भागवत कथा नहीं।
भगवान मिल जाएंगे,
लेकिन भगवान की
कथा नहीं। अधिक
मास अर्थात पुरुषोत्तम
मास भगवान विष्णु
ने मानव के
पुण्य के लिए
ही बनाया है।
पुराणों
में उल्लेख है
कि जब हिरण्य
कश्यप को वरदान
मिला कि वह
साल के बारह
माह में कभी
न मरे तो
भगवान ने मलमास
की रचना की।
जिसके बाद ही
नृसिंह अवतार लेकर भगवान
ने उसका वध
किया। इस माह
में भगवान विष्णु
के नाम का
जाप करना ही
हितकर होता है।
इस जाप से
ही पापों से
मुक्ति मिलती है।
अधिक
मास में सूर्य
की संक्रान्ति (सूर्य
का एक राशि
से दूसरी राशि
में प्रवेश) न
होने के कारण
इसे ऽमलमास (मलिन
मास) कहा गया।
स्वामीरहित होने से
यह मास देव-पितर आदि
की पूजा तथा
मंगल कर्मों के
लिए त्याज्य माना
गया है ।
इससे लोग इसकी
घोर निंदा करने
लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने
कहाः "मैं इसे
सर्वोपरि - अपने तुल्य
करता हूँ। सदगुण,
कीर्ति, प्रभाव, षडैश्वर्य, पराक्रम,
भक्तों को वरदान
देने का सामर्थ्य
आदि जितने गुण
मुझमें हैं, उन
सबको मैंने इस
मास को सौंप
दिया।
अहमेते
यथा लोके प्रथितः
पुरुषोत्तमः। तथायमपि
लोकेषु प्रथितः पुरुषोत्तमः॥
उन
गुणों के कारण
जिस प्रकार मैं
वेदों, लोक और शास्त्रों
में 'पुरुषोत्तम' नाम
से विख्यात हूँ,
उसी प्रकार यह
मलमास भी भूतल
पर 'पुरुषोत्तम' नाम से
प्रसिद्ध होगा और
मैं स्वयं इसका
स्वामी हो गया
हूँ।" इस
प्रकार अधिकमास,
मलमास, 'पुरुषोत्तम मास' के
नाम से विख्यात
हुआ।
भगवान
कहते हैं- 'इस
मास में मेरे
उद्देश्य से जो
स्नान (ब्रह्ममुहूर्त में उठकर
भगवत्स्मरण करते हुए
किया गया स्नान),
दान, जप, होम,
स्वाध्याय, पितृतर्पण तथा देवार्चन
किया जाता है,
वह सब अक्षय
हो जाता है।
जो प्रमाद से
इस बात को
खाली बिता देते
हैं, उनका जीवन
मनुष्यलोक में दारिद्रय,
पुत्रशोक तथा पाप
के कीचड़ से
निंदित हो जाता
है इसमें संदेह
नहीं है।
सुगंधित
चंदन, अनेक प्रकार
के फूल, मिष्टान्न,
नैवेद्य, धूप, दीप
आदि से लक्ष्मी
सहित सनातन भगवान
तथा पितामह भीष्म
का पूजन करें।
घंटा, मृदंग और
शंख की ध्वनि
के साथ कपूर
और चंदन से
आरती करें। ये
न हों तो
रूई की बत्ती
से ही आरती
कर लें। इससे
अनंत फल की
प्राप्ति होती है।
चंदन, अक्षत और
पुष्पों के साथ
ताँबे के पात्र
में पानी रखकर
भक्ति से प्रातःपूजन
के पहले या
बाद में अर्घ्य
दें। अर्घ्य देते
समय भगवान ब्रह्माजी
के साथ मेरा
स्मरण करके इस
मंत्र को बोलें-
देवदेव
महादेव प्रलयोत्पत्तिकारक। गृहाणार्घ्यमिमं
देव कृपां कृत्वा
ममोपरि॥
स्वयम्भुवे
नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेऽमिततेजसे। नमोऽस्तुते
श्रियानन्त दयां कुरु
ममोपरि॥
"हे
देव ! हे महादेव
! हे प्रलय और
उत्पत्ति करने वाले
! हे देव ! मुझ
पर कृपा करके
इस अर्घ्य को
ग्रहण कीजिए। तुझ
स्वयंभू के लिए
नमस्कार तथा तुझ
अमिततेज ब्रह्म के लिए
नमस्कार। हे अनंत
! लक्ष्मी जी के
साथ आप मुझ
पर कृपा करें।"
पुरुषोत्तम
मास का व्रत
दारिद्रय, पुत्रशोक और वैधव्य
का नाशक है।
इसके व्रत से
ब्रह्महत्या आदि सब
पाप नष्ट हो
जाते हैं।
इस
महीने में केवल
ईश्वर के उद्देश्य
से जो जप,
सत्संग व सत्कथा– श्रवण, हरिकीर्तन, व्रत, उपवास,
स्नान, दान या
पूजनादि किये जाते
हैं, उनका अक्षय
फल होता है
और व्रती के
सम्पूर्ण अनिष्ट हो जाते
हैं। निष्काम भाव
से किये जाने
वाले अनुष्ठानों के
लिए यह अत्यंत
श्रेष्ठ समय है। "देवी भागवत" के
अनुसार यदि दान
आदि का सामर्थ्य
न हो तो
संतों-महापुरुषों की
सेवा सर्वोत्तम है,
इससे तीर्थस्नानादि के
समान फल प्राप्त
होता है।
इस
मास में प्रातःस्नान,
दान, तप नियम,
धर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ
नाम जप– गुरुमंत्र जप का अधिक
महत्त्व है। इस
महीने में दीपकों
का दान करने
से मनोकामनाएँ पूर्ण
होती हैं। दुःख
– शोकों का नाश
होता है। वंशदीप
बढ़ता है, ऊँचा
सान्निध्य मिलता है, आयु
बढ़ती है। इस
मास में आँवले
और तिल का
उबटन शरीर पर
मलकर स्नान करना
और आँवले के
वृक्ष के नीचे
भोजन करना यह
भगवान श्री पुरुषोत्तम
को अतिशय प्रिय
है, साथ ही
स्वास्थ्यप्रद और प्रसन्नताप्रद
भी है। यह
व्रत करने वाले
लोग बहुत पुण्यवान
हो जाते है।
इस
मास में सभी
सकाम कर्म एवं
व्रत वर्जित हैं।
जैसे – कुएँ, बावली, तालाब
और बाग आदि
का आरम्भ तथा
प्रतिष्ठा, नवविवाहिता वधू का
प्रवेश, देवताओं का स्थापन
(देवप्रतिष्ठा), यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह,
नामकर्म, मकान बनाना,
नये वस्त्र एवं
अलंकार पहनना आदि।
प्राणघातक
रोग आदि की
निवृत्ति के लिए
रूद्रजप आदि अनुष्ठान,
दान व जप-कीर्तन आदि, पुत्रजन्म
के कृत्य, पितृमरण
के श्राद्धादि तथा
गर्भाधान, पुंसवन जैसे संस्कार
किये जा सकते
हैं।
पुरुषोत्तम
मास का दूसरा
नाम मल मास
है । 'मल' कहते हैं पाप
को और 'पुरुषोत्तम' नाम है भगवान
का । इसलिए
हमें इसका अर्थ
यों लगाना चाहिए
की पापों को
छोडकर भगवान पुरुषोत्तम
में प्रेम करें
और वो ऐसा
करें की इस
एक महीने का
प्रेम अनंत कालके
लिए चिरस्थायी हो
जाए । भगवान
में प्रेम करना
ही तो जीवन
का परम-पुरुषार्थ
है, इसी केलिए
तो हमें दुर्लभ
मनुष्य जीवन और
सदसद्विवेक प्राप्त हुआ है
। हमारे ऋषियों
ने पर्वों और
शुभ दिनों की
रचना कर उस
विवेक को निरंतर
जागृत रखने के
लिए सुलभ साधन
बना दिया है,
इसपर भी यदि
हम ना चेतें
तो हमारी बड़ी
भूल है ।
इस
पुरुषोत्तम मास में
परमात्मा का प्रेम
प्राप्त करनेके लिए यदि
सबही नर-नारी
निम्नलिखित नियमों को महीनेभर
तक सावधानी के
साथ पालें तो
उन्हें बहुत कुछ
लाभ होने की
संभावना है ।
- प्रात:काल सूर्योदय
से पहले उठें
।
- गीताजी के पुरुषोत्तम-योग नामक 15वे अध्याय का
प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक पाठ
करें । श्रीमद
भागवत का पाठ
करें, सुनें ।
संस्कृत के श्लोक
ना पढ़ सकें
तो अर्थों का
ही पाठ करलें
।
- स्त्री-पुरुष दोनों एक
मतसे महीनेभर तक
ब्रह्मचर्य व्रत का
पालन करें ।
जमीनपर सोवें ।
- प्रतिदिन घंटे भर
किसी भी नियत
समयपर मौन रहकर
अपनी-अपनी रूचि
और विश्वास के
अनुसार भगवान का भजन
करें ।
- जान-बूझकर झूठ
ना बोलें ।
किसीकी निंदा ना करें
।
- भोजन और वस्त्रों
में जहां तक
बन सके, पूरी
शुद्धि और सादगी
बरतें । पत्तेपर
भोजन करें, भोजन
में हविष्यान्न ही
खाएं ।
- माता,पिता,गुरु,स्वामी आदि बड़ों
के चरणोंमें प्रतिदिन
प्रणाम करें ।
भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण
की पूजा करें।
पुरुषोत्तम
मास में दान
देनेका और त्याग
करनेका बड़ा महत्त्व
माना गया है,
इसलिए जहां तक
बन सके, जिसके
पास जो चीज़
हो वाही योग्य
पात्र के प्रति
दान देकर परमात्मा
की सेवा करनी
चाहिए । त्याग
करनेमें तो सबसे
पहले पापों का
त्याग करना ही
जरूरी है ।
जो भाई या
बहन हिम्मत करके
कर सकें, वे
जीवन भर के
लिए झूठ, क्रोध
और दूसरों की
जान-बूझकर बुराई
करना छोड़ दें
।
जीवन
भर का व्रत
लेनेकी हिम्मत ना हो
सकें तो जितने
अधिक दिनों का
ले सकें, उतना
ही लें ।
परन्तु जो भाई-बहन दिलकी
कमजोरी, इन्द्रियों की आसक्ति,
बुरी संगती अथवा
बिगड़ी हुयी आदत
के कारण मांस
खाते हैं और
मदिरा-पान करते
हैं तथा पर-स्त्री और पर-पुरुष से अनुचित
संबंध रखते हैं,
उनसे तो हम
हाथ-जोड़कर प्रार्थना
करते हैं की
वे इन बुराईयोंको
सदा के लिए
छोडकर दयामय प्रभुसे
अब तक की
भूल के लिए
क्षमा मांगे ।
जो
भाई-बहन ऊपर
लिखे सातों नियम
जीवन-भर पाल
सकें तो पालने
की चेष्ठा करें,
कम-से-कम
चातुर्मास नहीं तो
पुरुषोत्तम महीने तक
तो जरूर पालें
और भविष्य में
सदा इसे पालने
के लिए अपनेको
तैयार करें ।
अपनी कमजोरी देखकर
निराश ना हों,
दया के सागर
और परम करुनामय
भगवान का आश्रय
लेनेसे असंभव भी संभव
हो जाता है । जितने
नियम कम-से-कम पालन
कर सकें उतने
अवश्य ही पालें
।