हमारे सनातन धर्म में 33 कोटि देवता
हैं, व्रत त्योहार भी सप्ताह में एक तो आ ही जाता है वह चाहे आप करें या नहीं । हर
मनुष्य किसी न किसी प्रकार से दु:खी रहता है, जिस कारण वह मन की इच्छा या किसी के कहने
पर कभी मंगलवार का व्रत करता है तो कभी शनिवार का । इसमें किसी की समश्या हल हो जाती
है, तो किसी की परेशानी बनी रहती है । इस प्रकार लोगों के बताये अनुसार हमारे देवाता,
उपासना आदि बदलते रहते हैं ।
आपको यह बात गांठ बाधनी होगी की हमारा
आराध्यदेव (इष्टदेव) एक ही होना चाहिए । उनपर हमारी पूर्ण श्रद्धा-विश्वास होना चाहिए।
वही आराध्यदेव हमारी रक्षा करते हैं, नित्य उनका स्मरण करना, जप करना ऐश्वर्य व तेजकारक
होता है ।
- हमारा आराध्यदेव कौन?
दुनिया में सबसे अधिक धार्मिक, भजन-चिन्तन
करनेवाला, पूजा-पाठ करने वाला हिन्दू ही है; परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि धर्म
के प्रति इतना आस्थावान हिन्दू जीवन के अन्तिम समय तक यह निश्चय ही नहीं कर पाता कि
हमार इष्ट कौन है? हम किसकी पूजा भजन कर कल्याण को प्राप्त कर सकते हैं?
एक ही परिवार में दस सदस्य हैं तो
सबके देवता अलग-अलग हैं । कोई हनुमानजी का भक्त है तो कोई शिवजी का कोई दुर्गाजी को तो कोई किसी अन्य देवता का । लोग
अपने-अपने देवी-देवता के लिए लड़ते झगड़ते भी हैं। पर किसी को मालुम नहीं कि शाश्वत कौन
है? किसकी उपासनासे शाश्वत धाम की प्राप्ति होगी? अनेक देवी-देवता मन में इस प्रकार
समा गये हैं कि अन्त समय तक हम किसी पर विश्वास ही नहीं टिका पाते ।
मृत्यु समय में जब पुत्र आस-पास खड़े
होकर कहते हैं कि दादा अब चिन्ता त्यागकर भगवान का स्मरण करो, तो दादाजी एक झटके में
कह गुजरते हैं- हे! हनुमन जी, दुर्गा माता, हे! रामजी रक्षा करो, हे! शिवजी वेड़ापार
करो । हे! सांई बाबा हे ब्रह्मदेव हे! सिद्धदेव औसतन बीस पच्चीस नामों का एक साथ स्मरण
करने लगते हैं। इस तरह भ्रान्ति अंत तक बनी रहती है । हमारे मनमें यह दोष बैठा है कि
कहीं उन देवता का नाम न लिया तो वे दु:ख न देने लगें, उनकी पूजा न की तो वे रूठ न जाएँ
। इस विषय में श्रीकृष्ण कहते हैं-
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।
नाष्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ ८/१५__गीता
अर्जुन! मुझे प्राप्त होकर पुरुष
क्षणभंगुर, दु:खों की खान पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है बल्कि वह पुरुष मुझे
प्राप्त होता है । जो पुनर्जन्म में आता है वह दु:खों की खान है । केवल मुझे प्राप्त
होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता बल्कि "स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम्” वह शाश्वत
सदा रहनेवाला स्थान, परमधाम को पा जाता है।
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन
। मामुपेत्य तु कौन्तेय न विद्यते ॥ ८/१६__गीता
अर्जुन! ब्रह्मा से लेकर चौदहों भुवन,
चराचर जगत पुनरावर्ती स्वभाव वाला है किन्तु मुझे प्राप्त होनेवाला पुरुष पुनर्जन्म
को प्राप्त न होकर शाश्वत धाम को पा लेता है । स्पष्ट है कि ब्रह्मा और उनके द्वारा
सृजित सारी सृष्टि मरणधर्मा है। इसके अन्दर देवता, पितर, दानव, ऋषि, सूर्य, चन्द्र,
सभी आ जाते हैं । मानव जीवन का परम लक्ष्य है अमरत्व की प्राप्ति । इस लक्ष्य की प्राप्ति
श्रीकृष्ण के अनुसार एक परमात्मा के चिन्तन से ही सम्भव है ।
अधिक नहीं, केवल एक परमात्मा के प्रति
श्रद्धा और उस परमात्मा के किसी एक नाम रूप ॐ अथवा राम का यदि आप जप करते हैं, तो
(धर्म को न जानते हुए भी) आप शुद्ध धार्मिक हैं, सम्पूर्ण क्रिया को न जानते हुए भी
आप क्रियावान हैं । न इसका फल नष्ट होगा और न आप ।
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