गणानां त्वा गणपति गुँ हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ न: श्रृण्वन्नूतिभि: सीद सादनम्॥ (ऋग्वेद -२।२३।१)
श्रीगणेशका
वास्तविक अर्थ क्या
है इस पर विचार
करना अति आवश्यक
प्रतीत होता है-
"गण"
का अर्थ ह्ऐ- वर्ग, समूह या समुदाय । "ईश" का अर्थ है स्वामी । गणदेवों
के स्वामी होनेसे उन्हें "गणेश" कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य
"गणदेवता कहे गये हैं जो दशों दिशाओं की रक्षा करते हैं ।
“गण”
शब्द रुद्रके अनुचरके लिये भी आता है । जैसा कि रामायणमें कहा गया है-
धनाध्यक्षसमो देव: प्राप्तो हि
वृषभध्वज: ।
उमासहायो देवेशो गणैश्च बहुभिर्युत: ॥
संख्याविशेषवाली
सेनाका भी बोधक गण-शब्द है, इसके स्वामी गणेशजी हैं। "महानिर्वाणतन्त्र"
के अनुसार-
गणपस्तु महेशानि गणदीक्षाप्रवर्त्तक:
।
ज्यौतिषशास्त्रमें
अश्विनी आदि जन्म-नक्षत्रोंके अनुसार देव, मानव और राक्षस- ये तीन गण हैं । इन सब प्रकार
के गणों के ईश श्रीगणेशजी हैं ।
तुलसीदास
जी ने मानस में देवी पार्वती को श्रद्धा और शिव को विश्वास बताया है । किसी देव कार्य
में हम जबतक श्रद्धा नहीं रखेंगे तब तक उस कार्य में विश्वास ही नहीं होगा और यदि विश्वास
नहीं होगा तो श्रद्धा का होना भी असम्भव है । जब किसी देव कार्य में श्रद्धा और विश्वास
होता है तो कार्य अवश्य सिद्ध हो जाता है । इसकारण भी शुभकार्य की सिद्धी अर्थात पूर्णता
के लिए गणनाथ की पूजा की जाती है ।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे
निर्गमे तथा ।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
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