गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

भगवान का प्रथम अवतार सनकादि मुनि.

"परमात्मा" जो निराकार हैं उन्होंने लीलार्थ 24 तत्वों के अण्ड का निर्माण किया। उस अण्ड से ही वे परमात्मा साकार रूप में बाहर निकले। उन्होंने जल की रचना की तथा हजारों दिव्य वर्षों तक उसी जल में शयन किया अतः उनका नाम नारायण हुआ। नार को जल भी कहते हैं । और जल में निरन्तर शयन करने वाले नारायण ।

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।  
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥
उन्हें जब बहु होने की इच्छा हुई तब वे जल से उठे तथा अण्ड के अधिभूत, अध्यात्म तथा अधिदैव ये तीन खण्ड किये। उन परमात्मा के आंतरिक आकाश से इन्द्रिय, मनः तथा देह शक्ति उत्पन्न हुई। साथ ही सूत्र, महान तथा असु नामक तीन प्राण भी उत्पन्न हुए। उनके खाने की इच्छा के कारण अण्ड से मुख निकला जिसके अधिदैव वरुण तथा विषय रसास्वादन हुआ। इसी प्रकार बोलने की इच्छा के कारण वाक इन्द्रिय हुई जिसके देव अग्नि तथा भाषण विषय हुआ। उसी तरह नासिका, नेत्र, कर्ण, चर्म, कर, पाद आदि निकला। यह परमात्मा का साकार स्थूल रूप है जिनका नमन वेद ‪"पुरुष सूक्त‬" से किये हैं। प्रलय काल में भगवान शेष पर शयन कर रहे थे।

वे ‪आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने‬ हैं अतः शेष जो सबके बाद भी रहते हैं वही उनकी शैया हैं। सृष्टि की इच्छा से जब उन्होंने आँखें खोलीं तो देखा कि सम्पूर्ण लोक उनमें लीन है। तभी रजोगुण से प्रेरित परमात्मा की नाभि से कमल अंकुरित हुआ जिससे सम्पूर्ण जल प्रकाशमय हो गया। नाभिपद्म से उत्पन्न ब्रह्मा पंकजकर्णिका पर आसीन थे। ब्रह्मा जी ने सोंचा कि मैं कौन, क्यों हूँ तथा मेरे जनक कौन हैं? वे कमलनाल के सहारे जल में प्रविष्ट हुए तथा सौं वर्ष तक निरंतर खोज करने पर भी कोई प्राप्त नहीं हुआ। अंत में वे पुनः यथास्थान बैठ गए। वहाँ हजारों वर्षों तक समाधिस्थ रहे। तभी उन्हें पुरुषोत्तम परमात्मा के दर्शन हुए। शेषनाग में शयन कर रहे प्रभु का नीलमणि के समान देह अनेक आभूषणों से आच्छादित था तथा वन माला और कौस्तुभ मणि स्वयं को भाग्यवान मान रहे थे। उनके अंदर ब्रह्मा जी ने अथाह सागर तथा कमल पर आसीन स्वयं को भी देखा। ब्रह्मा जी भगवान की स्तुति करते हैं -
ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां,
न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्।
नान्यत्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं,
मायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासी॥ ” भागवत

"चिरकाल से मैं आपसे अंजान था, आज आपके दर्शन हो गए। मैने आपको जानने का प्रयास नहीं किया, यही हम सब का सबसे बड़ा दोष है क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड में आप ही जानने योग्य हैं। अपने समीपस्थ जीवों के कल्याणार्थ आपने सगुण रूप धारण किया जिससे मेरी उत्पत्ति हुई। निर्गुण भी इससे भिन्न नहीं।" श्री भगवान ने कहा "मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, जाओ सृष्टि करो। प्रलय से जो प्रजा मुझमें लीन हो गई उसकी पुनः उत्पत्ति करो।" और भगवान अंतर्धान हो गए। ब्रह्मा जी ने सौ वर्षों तक तपस्या की। उस समय प्रलयकालीन वायु के द्वारा जल तथा कमल दोनो आंदोलित हो उठे। ब्रह्मा जी ने तप की शक्ति से उस वायु को जल सहित पी लिया। तब आकाशव्यापी कमल से ही चौदह लोकों की रचना हुई। ईश्वर काल के द्वारा ही सृष्टि किया करते हैं अतः काल की सृष्टि दस प्रकार की होती है -
1. महत्तत्व, 2. अहंकार, 3. तन्मात्राएँ, 4. इन्द्रियाँ, 5. इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता
6. पञ्चपर्वा अविद्या (तम, मोह, महामोह, तामिस्र, अन्धतामिस्र), 7. उपर उक्त छः सृष्टियाँ प्राकृतिक सर्ग कहलाते हैं। 8. स्थावर, 9. तिर्यक्, 10. मनुष्य 
ये वैकृतिक सर्ग कहलाती है।
इन सृष्टियों से ब्रह्मा जी को संतुष्टि न मिली तब उन्होंने मन में नारायण का ध्यान कर मन से दशम सृष्टि सनकादि मुनियों की थी जो साक्षात भगवान ही थे। ये सनकादि चार सनत, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार नामक महर्षि हैं तथा इनकी आयु सदैव पाँच वर्ष की रहती है। ब्रह्मा जी नें उन बालकों से कहा कि पुत्र जाओ सृष्टि करो। सनकादि मुनियों नें ब्रह्मा जी से कहा "पिताश्री! क्षमा करें। हमारे हेतु यह माया तो अप्रत्यक्ष है, हम भगवान की उपासना से बड़ा किसी वस्तु को नहीं मानते अतः हम भई जाकर उन्हीं की भक्ति करेंगे।" और सनकादि मुनि वहाँ से चल पड़े। वे वहीं जाया करते हैं जहाँ परमात्मा का भजन होता है। नारद जी को इन्होंने भागवत सुनाया था तथा ये स्वयं भगवान शेष से भागवत श्रवण किये थे। ये जितने छोटे दिखते हैं उतनी ही विद्याकंज हैं। ये चारो वेदों के ही रूप कहे जा सकते हैं।

जय विजय को श्राप:
एक समय चारों सनकादि कुमार भगवान विष्णु के दर्शनार्थ वैकुण्ठ जा पहुंचे। वे वहाँ के सौंदर्य को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। वहाँ स्फटिक मणि के स्तंभ थे, भूमि पर भी अनेकों मणियाँ जड़ित थीं। भगवान के सभी पार्षद नन्द, सुगन्ध सहित वैकुण्ठ के पति का सदैव गुणगान किया करते हैं। चारों मुनि छः ड्योढ़ियाँ लाँघकर जैसे ही सातवीं ड्योढ़ी पर चढ़े उनका दृष्टिपात दो महाबलशाली द्वारपाल जय तथा विजय पर हुआ। कुमार जैसे ही आगे बढ़े दोनों द्वारपालों ने मुनियों को धृष्टतापूर्वक रोक दिया। यद्यपि वे रोकने योग्य न थे इसपर सदा शांत रहने वाले सनकादि मुनियों को भगवत इच्छा से क्रोध आ गया। वे द्वारपालों से बोले "अरे! बड़ा आश्चर्य है। वैकुण्ठ के निवासी होकर भी तुम्हारा विषम स्वभाव नहीं समाप्त हुआ? तुम लोग तो सर्पों के समान हो। तुम यहाँ रहने योग्य नहीं अतः तुम नीचे लोक में जाओ। तुम्हारा पतन हो जाये।" इसपर दोनो द्वारपाल मुनियों के चरणों पर गिर पड़े। तभी भगवान का आगमन हुआ। मुनियों नें भगवान को प्रणाम किया। श्री भगवान कहते हैं "हे ब्रह्मन्! ब्राह्मण सदैव मेरे आराध्य हैं। मैं आपसे मेरे द्वारपालों द्वारा अनुचित व्यवहार हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ।" उन्होंने द्वारपालों से कहा "यद्यपि मैं इस श्राप को समाप्त कर सकता हूँ परंतु मैं ऐसा नहीं करुंगा क्योंकि तुम लोगों को ये श्राप मेरी इच्छा से ही प्राप्त हुआ है। तुम लोग इसके ताप से तपकर ही चमकोगे, यह परीक्षा है इसे ग्रहण करो। एक बात और... तुम मेरे बड़े प्रिय हो।" द्वारपालों ने श्राप को ग्रहण किया। मुनियों ने कहा "प्रभु! आप तो हमारे भी स्वामी हैं और सब ब्राह्मणों का आदर करते हुए सभी लोग मुक्ति को प्राप्त करें यह सोचकर हमें आदर प्रदान करते हैं। प्रभु आप धन्य हैं। सदैव हमारे हृदय में वास करें। और द्वारपालों की मुक्ति आपके करकमलों से ही होगी" भगवान ने द्वारपालों को कहा "द्वारपालों तुम तीन जन्म तक राक्षस योनि में जाओगे तथा मैं तुम्हारा उद्धार करुंगा।" इसी श्राप के कारण ये दोनों द्वारपाल तीन जन्मों तक राक्षस बने। प्रथम जन्म में ये दोनों ही हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु बनें, द्वितीय में रावण तथा कुम्भकर्ण तथा तृतीय जन्म में ये ही शिशुपाल तथा दन्तवक्र बने।
__Bagavat Mahapuran

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

What is Yagna ''यज्ञ क्या है''

यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म। श्रेष्ठ कर्म। सतकर्म। वेदसम्मत कर्म।
सकारात्मक भाव से ईश्वरीय-प्रकृति तत्व से किए गए आवाहन से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है ।
यज्ञ 5 प्रकार के होते है : 
(1) ब्रह्मयज्ञ, (2) देवयज्ञ, (3) पितृयज्ञ, (4) वैश्वदेवयज्ञ, (5) अतिथि यज्ञ ।

(1) ब्रह्मयज्ञ : जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्य । मनुष्य से बढ़कर है पितर, अर्थात माता-पिता और आचार्य । पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पाँच शक्तियाँ और देव से बढ़कर है- ईश्वर और हमारे ऋषिगण । ईश्वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से । इसके करने से मनुष्य ऋषि से उऋण हो जाता है । इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्ट होता है।

(2) देवयज्ञ : देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं । इस ‘देव ऋण’ से मनुष्य उऋण हो जाता है । हवन करने को ‘देवयज्ञ’ कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएँ (लकड़ियाँ) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जाँटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं। इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है।

(3) पितृयज्ञ : सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता-पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इस ‘पितृ ऋण’ भी से मनुष्य उऋण हो जाता है ।

(4) वैश्वदेवयज्ञ : इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद- पुराण कहते हैं।

(5) अतिथि यज्ञ : अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्य संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा- सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्तव्य है।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

Shell (शंख​)

शंख का एक अपना महत्त्व:
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धार्मिक अनुष्ठानों में शंख का एक अपना महत्त्व है, पूजा-पाठ में शंख बजाने का चलन युगों-युगों से है । देश के कई भागों में लोग शंख को पूजाघर में रखते हैं और इसे नियमित रूप से बजाते हैं। ऐसे में यह उत्सुकता एकदम स्वाभाविक है कि शंख केवल पूजा-अर्चना में ही उपयोगी है या इसका सीधे तौर पर कुछ लाभ भी है। शंख रखने, बजाने व इसके जल का उचित इस्तेमाल करने से कई तरह के लाभ होते हैं। कई फायदे तो सीधे तौर पर सेहत से जुड़े हैं।

धार्मिक ग्रंथों में शंख को माता लक्ष्मी का भाई बताया गया है, क्योंकि माता लक्ष्मी की तरह शंख भी सागर से ही उत्पन्न हुआ है। शंख की गिनती समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में होती है। ऐसी मान्यता है कि जिस घर में शंख होता है, वहां लक्ष्मी का वास होता है, शंख को इसलिए भी शुभ माना गया है, क्योंकि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु, दोनों ही अपने हाथों में इसे धारण करते हैं ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि शंख में जल रखने और इसे छिड़कने से वातावरण शुद्ध होता है। पूजा-पाठ में शंख बजाने से वातावरण पवित्र होता है. जहां तक इसकी आवाज जाती है, इसे सुनकर लोगों के मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं। अच्छे विचारों का फल भी स्वाभाविक रूप से बेहतर ही होता है।शंख की आवाज लोगों को पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित करती है। ऐसी मान्यता है कि शंख की पूजा से कामनाएं पूरी होती हैं। इससे दुष्ट आत्माएं पास नहीं भटकती हैं।

आयुर्वेद, विज्ञान और वास्तु:
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वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख की आवाज से वातावरण में मौजूद कई तरह के जीवाणुओं-कीटाणुओं का नाश हो जाता है। कई टेस्ट से इस तरह के नतीजे मिले हैं। आयुर्वेद के मुताबिक, शंखोदक के भस्म के उपयोग से पेट की बीमारियां, पथरी, पीलिया आदि कई तरह की बीमारियां दूर होती हैं। हालांकि इसका उपयोग एक्सपर्ट वैद्य की सलाह से ही किया जाना चाहिए।

शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है, पुराणों के अनुसार अगर श्वास का रोगी नियमित तौर पर शंख बजाए, तो वह बीमारी से मुक्त हो सकता है के 
शंख में रखे पानी का सेवन करने से हड्डियां मजबूत होती हैं। यह दांतों के लिए भी लाभदायक है। शंख में कैल्शियम, फास्फोरस व गंधक के गुण होने की वजह से यह फायदेमंद है। वास्तुशास्त्र के मुताबिक भी शंख में ऐसे कई गुण होते हैं, जिससे घर में पॉजिटिव एनर्जी आती है। शंख की आवाज से सोई हुई भूमि जाग्रत होकर शुभ फल देती है।

शंख के प्रकार:
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शंख मुख्य रूप से दो हैं १.दक्षिणावर्ती २.वामवर्ती, मंदिर में रखे जाने वाले शंख उल्टे हाथ के तरफ खुलते हैं और बाजार में आसानी से मिल जाते हैं, यह वामवर्ती शंख है। जबकि दक्षिणावर्ती शंख सीधे हाथ के तरफ खुलते हैं और बहुत चमत्कारी होते हैं और बहुत ही मुश्किल से मिल पाते हैं। दक्षिणावर्ती शंख एक दुर्लभ वस्तु है। ये आसानी से नहीं मिल पाता है क्योंकि दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है।

इसलिए ही ज्योतिष में बताया गया है कि दक्षिणावर्ती शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है। तंत्र शास्त्र ने सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले शंख को यदि पूर्ण विधि-विधान के साथ लाल कपड़े में लपेटकर अपने घर में अलग-अलग स्थान पर रखें तो हर तरह की परेशानियों का हल हो सकता है। इसलिए घर में शंख रखा जाना शुभ माना जाता है। वर्तमान समय में वास्तु-दोष के निवारण के लिए जिन चीजों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से यदि दक्षिणावर्ती शंख का उपयोग किया जाए तो कई प्रकार के लाभ हो सकते हैं। इससे आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह में विलंब जैसे अनेक दोष दूर होते हैं। कहते हैं कि जिस घर में नियमित शंख ध्वनि होती है वहां कई तरह के रोगों से मुक्ति मिलती है।

शंख पूजन से श्री समृद्धि आती है यदि इस शंख में दूध भरकर किसी नि:संतान महिला को पिलाया जाए तो उसे जल्द ही संतान सुख की प्राप्ति होती है। इस शंख में रात भर पानी भर कर रखे सुबह मुख पर लगाने से दाग धब्बे व काले निशान हट जाते है। पूजा करने के बाद इस शंख के जल को घर में छिडकने पर घर पर कोई बुरा साया नहीं पड़ता है।

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

How to circled (कैसे करे परिक्रमा)

प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है। पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है।

शास्त्रों में लिखा है जिस स्थान पर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई हो, उसके मध्य बिंदु से लेकर कुछ दूरी तक दिव्य प्रभा अथवा प्रभाव रहता है,यह निकट होने पर अधिक गहरा और दूर दूर होने पर घटता जाता है, इसलिए प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ती हो जाती है.
  • कैसे करे परिक्रमा

देवमूर्ति की परिक्रमा सदैव दाएं हाथ की ओर से करनी चाहिए क्योकि दैवीय शक्ति की आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है।बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है, जिससे हमारा तेज नष्ट हो जाता है.जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम भुगतना पडता है.
  • किस देव की कितनी परिक्रमा करनी चाहिये ?

वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।इस संबंध में धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और इससे हमारे पाप नष्ट होते है.सभी देवताओं की परिक्रमा के संबंध में अलग-अलग नियम बताए गए हैं.

१. - महिलाओं द्वारा "वटवृक्ष" की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है.

२. - "शिवजी" की आधी परिक्रमा की जाती है.है शिव जी की परिक्रमा करने से बुरे खयालात और अनर्गल स्वप्नों का खात्मा होता है।भगवान शिव की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघे.

३. - "देवी मां" की एक परिक्रमा की जानी चाहिए.

४. - "श्रीगणेशजी और हनुमानजी" की तीन परिक्रमा करने का विधान है.गणेश जी की परिक्रमा करने से अपनी सोची हुई कई अतृप्त कामनाओं की तृप्ति होती है.गणेशजी के विराट स्वरूप व मंत्र का विधिवत ध्यान करने पर कार्य सिद्ध होने लगते हैं.

५. - "भगवान विष्णुजी" एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए.विष्णु जी की परिक्रमा करने से हृदय परिपुष्ट और संकल्प ऊर्जावान बनकर सकारात्मक सोच की वृद्धि करते हैं.

६. - सूर्य मंदिर की सात परिक्रमा करने से मन पवित्र और आनंद से भर उठता है तथा बुरे और कड़वे विचारों का विनाश होकर श्रेष्ठ विचार पोषित होते हैं.हमें भास्कराय मंत्र का भी उच्चारण करना चाहिए, जो कई रोगों का नाशक है जैसे सूर्य को अर्घ्य देकर "ॐ भास्कराय नमः" का जाप करना.देवी के मंदिर में महज एक परिक्रमा कर नवार्ण मंत्र का ध्यान जरूरी है.इससे सँजोए गए संकल्प और लक्ष्य सकारात्मक रूप लेते हैं.

परिक्रमा के संबंध में नियम

१. - परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए. साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी. ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती

२. - परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें. जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें.

३.- उलटी अर्थात बाये हाथ की तरफ परिक्रमा नहीं करनी चाहिये.


इस प्रकार देवी-देवताओं की परिक्रमा विधिवत करने से जीवन में हो रही उथल-पुथल व समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाता है.इस प्रकार सही परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है.

Hamare Sanskar (हमारे संस्कार)


आज समाज इतना जागरुक है की अपनी संस्कृति, अपने संस्कार का त्याग कर पश्चिम सभ्यता की शरण ले रहे हैं । जिससे समाज में धार्मिक संकट के बादल गहराते जा रहे हैं । एक ओर स्वयं धर्म की बात करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर अपने ही धर्म के प्रतीक चिन्हों को हटाते जा रहे हैं । वह मात्र अज्ञानता के कारण, आज हम आपको सिर पर शिखा रखने का धार्मिक व वैज्ञानिक महत्त्व बताने जा रहे हैं आषा है की आप पश्चिम संस्कृति का परित्याग कर अपने सनातनी संस्कृति के संस्कारों का स्वीकार्य करें ।

हमारे सनातनीय धर्म में जितने भी संस्कार या रीतियाँ ऋषि मुनियों द्वारा निर्मित की गई, आज उन सभी संस्कारों और रीतियों को विज्ञान भी स्वीकार करता है परन्तु दुर्भाग्य है कि हम हमारे ही संस्कारों त्याग कर रहे हैं और विदेशी पश्चिम समाज हमारे संस्कारो की ओर अकर्शित हो रहा है ।

शिखा तो हर एक सनातनीय का मूल पहचान है, आप यह जानें कि सिर के पीछे एक केन्द्रस्थान होता है प्राचीन काल में लोग भले ही पूरे सिर के बाल कटवा लेते थे लेकिन इस स्थान के बाल नहीं कटवाते थे । इस स्थान के बालों को शिखा के नाम से जाना जाता है। यह आवश्यक नहीं पौरोहित कार्य करने वाले ब्राह्मण ही शिखा, तिलक या उपवीत धारण करना चाहिए । उपवीत सभी द्विजातीय को धारण करना चाहिए, पर शिखा, तिलक धर्म के सभी वर्ग को धारण करना अनिवार्य बताया गया है ।

आज भी बहुत से लोग हैं जो शिखा रखते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि शिखा के बालों को गांठ लगाकर रखना चाहिए । बहुत से लोग फैशन के चक्कर में शिखा रखना पसंद नहीं करते और इसे कटवा लेते हैं । जबकि प्राचीन ग्रंथों में बताया गया है कि शिखा कटने के मतलब सिर कटना होता है। किसी व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाता था लेकिन किसी कारण उसका सिर नहीं काटा जा सकता था तो उसकी शिखा काट दी जाती थी। शिखा कटे हुए व्यक्ति को दास माना जाता था।

यह तो शिखा के विषय में प्राचीन मान्यताओं की बात हुई। असल में शिखा रखने के बड़े ही फायदे हैं इसलिए शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य को शिखा जरुर रखना चाहिए। आइये जानें शिखा रखने के पांच बड़े फायदे ।

1. शिखा का सबसे पहला लाभ यह है कि यह व्यक्ति की बौद्घिक एवं स्मरण शक्ति को बढ़ाने का काम कारता है। आपने चाणक्य और कई अन्य प्राचीन विद्वानों की तस्वीरें देखी होगी जिसमें उनके सिर पर शिखा दिखी होगी। यह शिखा इसलिए रखते थे कि उनकी बौद्घिक क्षमता बनी रही।

2. एक पाश्चात्य वैज्ञनिक हुए सर चार्ल ल्यूक्स। इन्होंने शिखा के फायदे पर जब शोध किया तब बताया कि शिखा का जिस्म के उस जरुरी अंग से बहुत संबंध है जिससे ज्ञान वृद्घि और तमाम अंगों का संचालन होता है। जब से मैंने इस विज्ञान की खोज की है तब से मैं खुद चोटी रखता हूं ।

3. मस्तिष्क के भीतर जहां पर बालों आवर्त होता है उस स्थान पर नाड़ियों का मेल होता है। इसे अधिपति मर्म कहा जाता है । यानी यह बहुत ही नाजुक स्थान होता है । यहां चोट लगने पर व्यक्ति की तुरंत मृत्यु हो सकती है। शिखा इस स्थान के लिए कवच का काम करता है । यह तीव्र सर्दी, गर्मी से मर्मस्थान को सुरक्षित रखने के साथ ही चोट लगने से भी बचाव करता है।

4. मस्तिष्क में जहां शिखा स्थान है वहां शरीर की सभी नाड़ियों का मेल होता है। इसलिए इस स्थान का प्रभाव शरीर के सभी अंगों पर होता है। सुषुम्ना के मूल स्थान को मस्तुलिंग कहते हैं। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों- यानी कान, नाक, जीभ, आँख आदि का संबंध हैं और कामेन्द्रियों जैसे हाथ, पैर, गुदा, इन्द्रिय आदि का संबंध मस्तुलिंग से हैं।

5. मस्तिष्क व मस्तुलिंग जितने सामर्थ्यवान होते हैं उतनी ही ज्ञानेन्द्रियों और कामेन्द्रियों की शक्ति बढती हैं। शिखा का यह भी फायदा है कि यह व्यक्ति के मन को भी संयमित करता है। इसे बांधकर रखने से व्यक्ति अपनी काम भावनाओं पर भी नियंत्रण रख पाता है। 

अब जरा विचार कीजिए हम इतने महत्त्वपूर्ण शिखा का धारण कर किस ओर जा रहे हैं । हम अपने संस्कार को स्वीकार न कर स्वयं अंधेरे में जा रहे हैं । 

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

Akshaya Tritiya (अक्षय तृतीया)

"अक्षय तृतीया" वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं । पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है । इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है । वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था।

वैशाख मास को भगवान विष्णु के नाम पर ऽमाधव मासऽ कहा जाता है। इस मास के शुक्लपक्ष की तृतीया को सनातन ग्रंथों में अक्षय-फलदायी बताया गया है। इसी कारण इस तिथि का नाम "अक्षय तृतीया" पड़ गया। भविष्य पुराण में कहा गया है- 
यत किंचिद दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु । 
तत सर्वमक्षयं यस्मात तेनेयमक्षया स्मृता ॥ 
अर्थात इस तिथि में थोड़ा या बहुत, जितना और जो कुछ भी दान दिया जाता है, उसका फल अक्षय हो जाता है। ऋषि-मुनियों का निर्देश है कि अक्षय तृतीया के दिन हर व्यक्ति को अपनी साम‌र्थ्य के अनुसार दान अवश्य करना चाहिए। भविष्योत्तर पुराण में जौ-चने का सत्तू, दही-चावल, गन्ने का रस, दूध से बनी मिठाई, शक्कर, जल से भरे घड़े, अन्न तथा ग्रीष्म ऋतु में उपयोगी वस्तुओं के दान की बात कही गई है।

प्यासे पथिकों के लिए प्याऊ लगवाती हैं। कुछ लोग शीतल जल का शर्बत पिलाते हैं। सही मायनों में तन-मन-धन से गरीबों की सेवा ही नारायण की अर्चना है। धन होने पर दान जरूर करें, इससे मन को संतोष मिलता है और चित्त शुद्ध हो जाता है। अक्षय तृतीया संग्रह करने की बजाय दान देने की प्रेरणा देती है यह तिथि अपने नाम के अनुरूप अक्षय फल देने में समर्थ है।

अक्षय का मतलब जो कभी क्षय नहीं होता है। इसलिए इस दिन जप, दान, या कोई भी जो शुभ कार्य किया जाता है वह क्षय नहीं होता । अक्ती के दिन किसी भी कार्य की शुरू करना एवं वस्तु की खरीदारी करना बहुत शुभ माना जाता है। इस बार अक्षय तृतीया २१ अप्रैल २०१५ को मनाई जायेगी । सोमवार की रात्रि१९:०२ से तृतीया तिथी का प्रवेश होगा जो दिनांक २१ मंगलवार को सायं १७: ०५ तक रहेगी । इस दिन सूर्योदय ०६: २१ बजे और सूर्यास्त १८: ५३ पर होंगे । सौभाग्य योग रात्रि२२: ३५ बजे तक है । वही सूर्य मेष राशि और चन्द्र वृषभ राशि पर स्थिर रहेंगे । आज के दिन राहूकाल का समय दोपहर १५: ४५ से १७: १९ तक रहेगा । अमृतकाल का समय प्रात​: ०९: ४१ से ११: ११ तक है । विशेष मुहूर्त  चौघड़िया:- ०९: २९ से ११: ०३ तक चल​, ११: ०३ से १२: ३७ तक लाभ,  १२: ३७ से १४: ११ तक अमृत,​ १५: ४५ से १७: १९ तक शुभ ।

अक्षय तृतीया पर क्या करें
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने से मनोकामना पूर्ण होती है। नैवेद्य में जौ या गेहूं या सत्तू, ककडी और चने की दाल अर्पित की जाती है। तत्पश्चात फल, फूल, बर्तन तथा वस्त्र आदि दान कर दक्षिणा देने की मान्यता है। इस दिन ग्रीष्म का प्रारंभ माना जाता है इसलिए इस दिन जल से भरे घड़े, कुल्हड़, सकोरे, पंखे, खड़ाऊं, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककडी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गर्मी के मौसम में लाभ देने वाली वस्तुओं का दान किया जाता है। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद अथवा पीले गुलाब से करना चाहिए।

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

Shri Hnuman Upasana (श्रीहनूमान उपासना)

बल, बुद्धि, विकास के लिए करें हनुमानजी की उपासना:
श्रीराम भक्त हनूमान (ज्ञानिनामग्रगन्यम्) अर्थात ज्ञानियों में श्रेष्ठ ज्ञानी हैं । इस घोर कलियुग में अपने भक्तों पुकार शीघ्रता से सुनते हैं, और उसका कल्याण करते है । धर्म शास्त्रों के अनुसार हनुमान जी का जन्म चैत्र के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा माना जाता है । इसलिए प्रतिवर्ष चैत्र पूर्णिमा को हनुमान जयंती के रूप में यह उत्सव मनाया जाता है, जो इस वर्ष पूर्णिमा 4 अप्रैल 2015 दिन शनिवार​ को है । 
देखा जाए तो हनुमान जी की उपासना के अनेको विधी विधान प्रचलन में है, परन्तु यह समय बार- बार उपलब्ध नहीं हो पाता । इस बार 4 अप्रैल 2015 को प्रात: 06:26 am. से ही खण्डग्रास चन्द्र ग्रहण का सूतक लग रहा है, साथ ही शनिवार का दिन जो हनुमानजी की उपासना का महत्वपूर्ण समय माना गया है । हालाकि उपासक दिन में हनुमान जी के सहित किसी भी देवता की पूजा नहीं कर सकेंगे परन्तु रात्रि में 08 pm. बजे से यह अनुष्ठान अवश्य प्रारम्भ किया जा सकता है ।

कैसे करे उपासना:
ग्रहण काल की समाप्ती के बाद साफ सफाई कर स्नान करें, बाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हुआ है। आज के दिन हनुमान जी का षोड्शोपचार पूजन करें। पूजन के उपचारो मे गंधपूर्ण तेल मे सिंधूर मिलाकर उससे मूर्ति चर्चित करें। पुन्नाम (हजारा, गुलहजारा) आदि के फूल चढ़ाए और नैवैद्य मे चूरमा या आटे के लड्डू व फल इत्यादि अर्पण करके ‘वाल्मिकीय रामायणऽ अथवा श्री राम चरितमानस के सुंदरकाण्ड का पाठ करें। हनुमत जयंती के पावन अवसर पर हनुमान चालीसा, हनुमत अष्टक व बजरंग बाण का पाठ करने से शनि, राहु व केतु जन्य दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है। इस दिन सुंदर कांड का पाठ करते हुए अष्टादश मंत्र का जप भी करना चाहिए। 

अष्टादश मंत्र -
॥ॐ भगवते आन्जनेयाय महाबलाय स्वाहा॥
इस मंत्र जाप 108 माला करें.. 

कुशल ब्राह्मणों के द्वारा यह अनुष्ठान कराने हेतु आप हमसे सम्पर्क कर सकते हैं।
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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

Vastu tips (वास्तु टिप्स)

वास्तु टिप्स :- जिनसे घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है. :-

वास्तु सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा के सिद्धांत पर काम करता है। वास्तु के नियमों का पालन करते हुए जरूरी कार्यों में दिशाओं का ध्यान रखा जाता है तो घर का वातावरण शुभ रहता है।

खाना खाते समय ध्यान रखें ये बातें :-
१. वास्तु की मान्यता है कि पूर्व की ओर मुख करके भोजन करने से आयु बढ़ती है।
२. जो लोग उत्तर दिशा की ओर मुख करके भोजन करते हैं, उन्हें लंबी आयु के साथ ही लक्ष्मी कृपा भी प्राप्त होती है।
४. दक्षिण दिशा, यम की दिशा मानी जाती है और इस ओर मुख करके खाना खाने से भय बढ़ता है। बुरे सपने दिखाई देते हैं।
३. पश्चिम दिशा की ओर मुख करके खाना खाते हैं तो भोजन से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है। ध्यान रखें हमें उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन ग्रहण करना चाहिए।
५. हमेशा जमीन पर बैठकर ही भोजन करना चाहिए। थाली को जमीन पर न रखें, किसी चौकी या आसन पर रखना चाहिए।

दिशाएं और वास्तु अनुसार उनके नाम :-
उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशाओं के साथ ही चार दिशाएं और बताई गई हैं। ये इस प्रकार हैं... उत्तर-पूर्व को ईशान कोण कहा जाता है। उत्तर-पश्चिम को वायव्य कोण, दक्षिण-पूर्व को आग्नेय कोण एवं दक्षिण-पश्चिम को नैऋत्य कोण कहा जाता है।
१. घर का मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर दिशा में हो तो श्रेष्ठ रहता है, लेकिन ऐसा न हो तो घर के मुख्य द्वार पर स्वास्तिक, श्रीगणेश का चिह्न लगाना चाहिए।
२. घर के मुख्य द्वार पर तुलसी का पौधा रखना चाहिए। सुबह-सुबह तुलसी को जल अर्पित करें। शाम को तुलसी के पास दीपक जलाएं। पूर्व या उत्तर दिशा में तुलसी लगाने से आत्म विश्वास में बढ़ोतरी होती है।
३. घर में खिड़की, दरवाजों की संख्या सम हो तो शुभ रहता है। सम यानी २, ४, ६, ८ या १०. दरवाजे खिड़कियां अंदर की तरफ ही खुलना चाहिए, यह श्रेष्ठ रहता है।
४. घर में फालतू और बेकार सामान नहीं होना चाहिए। इस चीजों से घर में तनाव बना रहता है।
५. दीवार या छत पर दरार हो तो उन्हें जल्दी ठीक करवा लेना चाहिए।
६. धन संबंधी लाभ चाहते हैं तो तिजोरी का मुंह उत्तर या पूर्व दिशा में रखना चाहिए। धन के स्थान को सुगंधित बनाए रखना चाहिए। इसके लिए अगरबत्ती, इत्र, परफ्यूम आदि का उपयोग किया जा सकता है।
७. तिजोरी के दरवाजे पर कमल के आसन पर बैठी हुई महालक्ष्मी की तस्वीर लगानी चाहिए।
८. दक्षिण की दीवार पर दर्पण नहीं लगाना चाहिए। दर्पण पूर्व या उत्तर की दीवार पर होगा तो श्रेष्ठ रहेगा।
९. शाम के समय कुछ देर के लिए पूरे घर में रोशनी अवश्य करनी चाहिए।
१०. घर में मकड़ी के जाले नहीं होना चाहिए। ऐसा होने पर राहु ग्रह से अशुभ फल प्राप्त होते हैं।

Sankashti vrat (संकष्टी उपवास)

हिन्दू कैलेण्डर में प्रत्येक चन्द्र मास में दो चतुर्थी होती हैं। पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहते हैं और अमावस्या के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहते हैं। हालाँकि संकष्टी चतुर्थी का व्रत हर महीने में होता है लेकिन सबसे मुख्य संकष्टी चतुर्थी पुर्णिमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार माघ के महीने में पड़ती है और अमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार पौष के महीने में पड़ती है। संकष्टी चतुर्थी अगर मंगलवार के दिन पड़ती है तो उसे अंगारकी चतुर्थी कहते हैं और इसे बहुत ही शुभ माना जाता है। पश्चिमी और दक्षिणी भारत में और विशेष रूप से महाराष्ट्र और तमिल नाडु में संकष्टी चतुर्थी का व्रत अधिक प्रचलित है।

भगवान गणेश के भक्त संकष्टी चतुर्थी के दिन सूर्योदय से चन्द्रोदय तक उपवास रखते हैं। संकट से मुक्ति मिलने को संकष्टी कहते हैं। भगवान गणेश जो ज्ञान के क्षेत्र में सर्वोच्च हैं, सभी तरह के विघ्न हरने के लिए पूजे जाते हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि संकष्टी चतुर्थी का व्रत करने से सभी तरह के विघ्नों से मुक्ति मिल जाती है। 

संकष्टी चतुर्थी का उपवास कठोर होता है जिसमे केवल फलों, जड़ों (जमीन के अन्दर पौधों का भाग) और वनस्पति उत्पादों का ही सेवन किया जाता है। संकष्टी चतुर्थी व्रत के दौरान साबूदाना खिचड़ी, आलू और मूँगफली श्रद्धालुओं का मुख्य आहार होते हैं। श्रद्धालु लोग चन्द्रमा के दर्शन करने के बाद उपवास को तोड़ते हैं। 

उत्तरी भारत में माघ माह के दौरान पड़ने वाली संकष्टी चतुर्थी को सकट चौथ के नाम से जाना जाता है। इसके साथ ही भाद्रपद माह के दौरान पड़ने वाली विनायक चतुर्थी को गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण विश्व में गणेश चतुर्थी को भगवान गणेश के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। तमिल नाडु में संकष्टी चतुर्थी को गणेश संकटहरा या संकटहरा चतुर्थी के नाम से जाना जाता है। 

कैसे करें संकष्टी गणेश चतुर्थी:
चतुर्थी के दिन सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। इस दिन व्रतधारी लाल रंग के वस्त्र धारण करें। श्रीगणेश की पूजा करते समय अपना मुंह पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर रखें। तत्पश्चात स्वच्छ आसन पर बैठकर भगवान गणेश का पूजन करें। फल, फूल, रौली, मौली, अक्षत, पंचामृत आदि से श्रीगणेश को स्नान कराके विधिवत तरीके से पूजा करें। श्री गणेश को तिल से बनी वस्तुओं, तिल-गुड़ के लड्‍डू तथा मोदक का भोग लगाएं। ॐ सिद्ध बुद्धि सहित महागणपति आपको नमस्कार है। नैवेद्य के रूप में मोदक व ऋतु फल आदि अर्पित है। तत्पश्चात गणेशजी की आरती करें। इस दिन अपने सामर्थ्य के अनुसार गरीबों को दान करें। तिल-गुड़ के लड्डू, कंबल या कपडे़ आदि का दान करें। 

विद्यार्थियों के लिए:
भगवान गणपती बुद्धी के प्रधान देवता हैं, भगवान गनपती की आराधना से ऐसे बच्चे जिनका मन पढाई में न लग रहा हो, याद बहुत करते है परंतु सब व्यर्थ हो जाता है । ऐसे बच्चे बुद्धिप्रदाता भगवान गणेश की आराधना करके अपना भविष्य उज्वल कर सकते हैं । इस अनुष्ठान में गणपती उपासना गणपत्युपनिषत् का 21 पाठ व हवन सम्मलित है ।

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बुधवार, 1 अप्रैल 2015

Shri yantram adoration (श्रीयंत्रम् उपासना)

यंत्रमित्याहुरेतस्मिन देव: प्रीणाति:।

शरीरमिव जीवस्य दीपस्य स्नेहवत प्रिये ॥ ____कुलार्णव तंत्र

यंत्र मन्त्रों का ही चित्रात्मक रूप है और देवी-देवता अपने निर्धारित यंत्रों में स्वयं वस करते हैं । पूजा-स्थल पर यंत्रों को स्थापित करके उनकी पूजा-अर्चना करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है । भुवनेश्वरीक्रम चंडिका में "भगवान शिव देवी पार्वती से कहते हैं, कि हे पार्वती! जिस प्रकार प्राणी के लिए शरीर अवश्यक है, उसी प्रकार देवताओं के लिए यंत्र आवश्यक है ।


यंत्र वास्त्व में सजगता को धारण करने का एक माध्यम माना गया है । यंत्रों की विभिन्न आकृतियाँ होती हैं, जैसे त्रिकोण, अधोमुख, वर्गाकार, पंचकोणाकार आदि । यंत्र पूजन से भक्त अपने इष्टदेव की कृप सहज ही प्राप्त करलेता है ।

वेदों के अनुसार सभी यंत्रों में श्रीयंत्र का स्थान प्रथम है, श्रीयंत्र में ३३ कोटि देवताओं का वास है । कलियुग में श्रीयंत्रको कामधेनु के समान माना गया है । श्रीयंत्र शीघ्र प्रभाव दिखाने वाला यंत्र माना गया है । यह यंत्र सिद्ध होने पर सभी प्रकार की श्री अर्थात चारों पुरुषार्थ की प्राप्ती होती है । श्रीयंत्र में वस्तुदोष निवारण की भी अभूतपूर्व क्षमता है ।

श्रीविद्या की उपासना ही श्रीयंत्र की उपासना है। श्रीविद्या पंचदशाक्षरी बीज मंत्रों से ही श्रीयंत्र बना है। श्रीयंत्र की उपासना का विधान तो बहुत ही लंबा है। श्रीचक्र बाजार से लेकर दर्शन करने से उसका कोई फल नहीं है। जब तक प्राण-प्रतिष्ठा न की गई हो। गुरु परंपरा से न बनाया गया हो। तांत्रिक अनुष्ठान की विधि पूर्ण होना आवश्यक है। यंत्र का वजन सही हो। रेखाएं साफ हों, तभी दर्शन का फल है।

प्राण-प्रतिष्ठित श्रीयंत्र को लें। पंचोपचार से पूजन करने के बाद इस यंत्र को पूर्ण ब्रह्मांड जानें, और अपने शरीर को भी वही जानें, फिर एकाग्रता के साथ शुद्ध घी के दीप की लौ का दर्शन करें और इस श्लोक का नित्य १००० बार उच्चारण करें। 


यंत्र प्रत्यक्ष हो, यंत्र के मध्य बने बिंदु को देखते हुए यह कार्य होना चाहिए। यह क्रिया ४५ दिन तक लगातार हो। 


भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणामिति स्तोतुं वाञ्छन कथयंति भवानि त्वमिति य:।

तदैव त्वं तस्मै दिशसि निज सायुज्यपदवीं मुकुन्द ब्रह्मेन्द्रस्फुटमकुट नीराजितपदाम॥

यह अनुभूत प्रयोग है..


महान खोजों के क्रम में ऽश्रीयंत्रऽ की खोज भी एक विस्मयकारी खोज है, जो कि आज के संतप्त मानव को हर प्रकार की शांति प्रदान करने में पूर्ण समर्थ है। ब्रह्मांड का प्रतीक श्री विद्या के यंत्र को ऽश्रीयंत्रऽ कहते हैं या ऽश्रीचक्रऽ कहते हैं। यह अकेला ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। श्री शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र श्री विद्या से संबंध रखता है। श्री विद्या का अर्थ साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि हर प्रकार की ऽश्रीऽ देने वाली विद्या को कहा जाता है।

यह परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है। यह चक्र ही उनका निवास एवं रथ है। यह ऐसा समर्थ यंत्र है कि इसमें समस्त देवों की आराधना-उपासना की जा सकती है। सभी वर्ण संप्रदाय का मान्य एवं आराध्य है। यह यंत्र हर प्रकार से श्री प्रदान करता है जैसा कि दुर्गा सप्तशती में कहा गया है-

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा

आराधना किए जाने पर आदिशक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग, अपवर्ग देने वाली होती है। उपासना सिद्ध होने पर सभी प्रकार की ऽश्रीऽ अर्थात चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। इसील‍िए इसे ऽश्रीयंत्रऽ कहते हैं। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर सुंदरी हैं। इसे शास्त्रों में विद्या, महाविद्या, परम विद्या के नाम से जाना जाता है। वामकेश्वर तंत्र में कहा है-

सर्वदेव मयी विद्या

दुर्गा सप्तशती में- विद्यासि सा भगवती परमाहि देवि।

हे देवी! तुम ही परम विद्या हो। इस महाचक्र का बहुत विचित्र विन्यास है। यंत्र के मध्य में बिंदु है, बाहर भूपुऱ, भुपुर के चारों तरफ चार द्वार और कुल दस प्रकार के अवयय हैं, जो इस प्रकार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, वहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल कमल, षोडषदल कमल, तीन वृत्त, तीन भूपुर। इसमें चार उर्ध्व मुख त्रिकोण हैं, जिसे श्री कंठ या शिव त्रिकोण कहते हैं। पांच अधोमुख त्रिकोण होते हैं, जिन्हें शिव युवती या शक्ति त्रिकोण कहते हैं। आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी में कहा-

चतुर्भि: श्रीकंठे: शिवयुवतिभि: पश्चभिरपि

नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में ४३ त्रिकोण, २८ मर्म स्थान, २४ संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है।


  • नवचक्र


  1. बिन्दु तथा महाबिन्दु :- मूलकारण महात्रिपुर सुन्दरी कामेश्वर कामेश्वरी सामरस्य जगत की मूल योनि तथा शिवभाग
  2. त्रिकोण - आद्या विमर्शशक्ति या जीव भाव शब्द अर्थरूपी सृष्ति की कारणात्मिका पराशक्ति अहंभाव एवं जीव तत्व
  3. अष्टार - पुर्यष्टक कारण शरीर लिंगशरीर का कारण
  4. अन्तर्दशार- इन्द्रियवासना लिंग शरीर
  5. बहिर्दशार- तन्मात्रा तथा पंचभूत (इन्द्रिय विषय)
  6. चतुर्दशार- जाग्रत स्थूल शरीर
  7. अष्टदल- अष्टारवासना
  8. षोडसदल- दशारद्वय वासना
  9. भूपुर- बिन्दु त्रिकोण अष्टदल षोडसदल इन चारों की समष्टि प्रमातृपुर और प्रमाणपुर का पशुपदीय प्रकृति मन बुद्धि अहंकार और शिवपदीय शुद्ध विद्यादितत्वचतुष्टय का सामरस्य।


  • नवचक्रों के देवता और नाम के संकेत


  1. सर्वानन्दमय  -   महात्रुपुरसुन्दरी
  2. सर्वसिद्धिप्रद - त्रिपुराम्बा
  3. सर्वरोगहर -त्रिपुरसिद्धा
  4. सर्वरक्षाकर- त्रिपुरमालिनी
  5. सर्वार्थसाधक - त्रिपुरश्री
  6. सर्वसौभाग्यदायक - त्रिपुरवासिनी
  7. सर्वसंक्षोभणकारक- त्रिपुर सुन्दरी
  8. सर्वाशापरिपूरक - त्रिपुरेशी
  9. त्रैलोक्यमोहन - त्रिपुरा

यही नवावरण पूजा के नव देवता है,मतान्तर से इन्हे प्रकटा गुप्ता गुप्ततरा परा सम्प्रदाया कुलकौला निगर्भा अतिरहस्या परापरातिरहस्या इत्यादि नाम से भी पुकारते हैं।


  • श्रीयंत्र का शब्दार्थ


श्रीयंत्र का सरल अर्थ है - श्री का यंत्र अर्थात गृह। नियमनार्थक यम धातु से बना यंत्र शब्द गृह अर्थ को ही प्रकट करता है। क्योंकि गृह में ही सब वस्तुओं का नियंत्रण होता है। श्रीविद्या को ढूंढने के लिये उसके गृह श्रीयंत्र की ही शरण लेनी होगी। आगे श्री अर्था श्रीविद्या के परिचय से ज्ञात होगा कि वह उपास्य और उपेय दोनों है। उपेय वस्तु को उसके अनुकूल स्था ही अन्वेषण करने से सिद्धि होती है,अन्यथा मनुष्य उपहासास्पद बनता है। आदि कवि श्रीवालमीकिनी ने श्रीसीताजी के अन्वेषण में तत्पर श्रीहनुमानजी के द्वारा कहलाया है- "यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते",अर्थात जिस प्राणी की जो योनि होती है वह उसी में ढूंढा जा सकता है। भगवान शंकराचार्य ने भी यंत्र का उद्धार देते हुये "तव शरणकोणा: परिणत:" इस वाक्य में यंत्र के अर्थ में गृहवाचक शरण पद का प्रयोग किया है। इस न्याय से उत्तरभारत एवं दक्षिण भारत में स्थित श्रीनगर नामक स्थानो की सार्थकता सिद्ध होती है। क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन नगरों में श्रीविद्या के उपासक अधिक संख्या में मिलते थे,और अब भी थोडे बहुत पाये जाते है। अस्तु यह विश्व ही श्रीविद्या का गृह है। यहां विश्व शब्द से पिण्डाण्ड एवं ब्रह्मांड दोनो का ग्रहण है। मायाण्ड प्रकृत्यण्ड भी स्थूल सूक्ष्म रूप से इन्ही के अन्तर्गत आ जाता है,यह आगे चलकर ततद्विशेष यंत्रों के विवरण से विशेषतया स्पष्ट हो जायेगा।