यंत्रमित्याहुरेतस्मिन देव: प्रीणाति:।
शरीरमिव जीवस्य दीपस्य स्नेहवत प्रिये ॥ ____कुलार्णव तंत्र
यंत्र मन्त्रों का ही चित्रात्मक रूप है और देवी-देवता अपने निर्धारित यंत्रों में स्वयं वस करते हैं । पूजा-स्थल पर यंत्रों को स्थापित करके उनकी पूजा-अर्चना करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है । भुवनेश्वरीक्रम चंडिका में "भगवान शिव देवी पार्वती से कहते हैं, कि हे पार्वती! जिस प्रकार प्राणी के लिए शरीर अवश्यक है, उसी प्रकार देवताओं के लिए यंत्र आवश्यक है ।
यंत्र वास्त्व में सजगता को धारण करने का एक माध्यम माना गया है । यंत्रों की विभिन्न आकृतियाँ होती हैं, जैसे त्रिकोण, अधोमुख, वर्गाकार, पंचकोणाकार आदि । यंत्र पूजन से भक्त अपने इष्टदेव की कृप सहज ही प्राप्त करलेता है ।
वेदों के अनुसार सभी यंत्रों में श्रीयंत्र का स्थान प्रथम है, श्रीयंत्र में ३३ कोटि देवताओं का वास है । कलियुग में श्रीयंत्रको कामधेनु के समान माना गया है । श्रीयंत्र शीघ्र प्रभाव दिखाने वाला यंत्र माना गया है । यह यंत्र सिद्ध होने पर सभी प्रकार की श्री अर्थात चारों पुरुषार्थ की प्राप्ती होती है । श्रीयंत्र में वस्तुदोष निवारण की भी अभूतपूर्व क्षमता है ।
श्रीविद्या की उपासना ही श्रीयंत्र की उपासना है। श्रीविद्या पंचदशाक्षरी बीज मंत्रों से ही श्रीयंत्र बना है। श्रीयंत्र की उपासना का विधान तो बहुत ही लंबा है। श्रीचक्र बाजार से लेकर दर्शन करने से उसका कोई फल नहीं है। जब तक प्राण-प्रतिष्ठा न की गई हो। गुरु परंपरा से न बनाया गया हो। तांत्रिक अनुष्ठान की विधि पूर्ण होना आवश्यक है। यंत्र का वजन सही हो। रेखाएं साफ हों, तभी दर्शन का फल है।
प्राण-प्रतिष्ठित श्रीयंत्र को लें। पंचोपचार से पूजन करने के बाद इस यंत्र को पूर्ण ब्रह्मांड जानें, और अपने शरीर को भी वही जानें, फिर एकाग्रता के साथ शुद्ध घी के दीप की लौ का दर्शन करें और इस श्लोक का नित्य १००० बार उच्चारण करें।
यंत्र प्रत्यक्ष हो, यंत्र के मध्य बने बिंदु को देखते हुए यह कार्य होना चाहिए। यह क्रिया ४५ दिन तक लगातार हो।
भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणामिति स्तोतुं वाञ्छन कथयंति भवानि त्वमिति य:।
तदैव त्वं तस्मै दिशसि निज सायुज्यपदवीं मुकुन्द ब्रह्मेन्द्रस्फुटमकुट नीराजितपदाम॥
यह अनुभूत प्रयोग है..
शरीरमिव जीवस्य दीपस्य स्नेहवत प्रिये ॥ ____कुलार्णव तंत्र
यंत्र मन्त्रों का ही चित्रात्मक रूप है और देवी-देवता अपने निर्धारित यंत्रों में स्वयं वस करते हैं । पूजा-स्थल पर यंत्रों को स्थापित करके उनकी पूजा-अर्चना करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है । भुवनेश्वरीक्रम चंडिका में "भगवान शिव देवी पार्वती से कहते हैं, कि हे पार्वती! जिस प्रकार प्राणी के लिए शरीर अवश्यक है, उसी प्रकार देवताओं के लिए यंत्र आवश्यक है ।
यंत्र वास्त्व में सजगता को धारण करने का एक माध्यम माना गया है । यंत्रों की विभिन्न आकृतियाँ होती हैं, जैसे त्रिकोण, अधोमुख, वर्गाकार, पंचकोणाकार आदि । यंत्र पूजन से भक्त अपने इष्टदेव की कृप सहज ही प्राप्त करलेता है ।
वेदों के अनुसार सभी यंत्रों में श्रीयंत्र का स्थान प्रथम है, श्रीयंत्र में ३३ कोटि देवताओं का वास है । कलियुग में श्रीयंत्रको कामधेनु के समान माना गया है । श्रीयंत्र शीघ्र प्रभाव दिखाने वाला यंत्र माना गया है । यह यंत्र सिद्ध होने पर सभी प्रकार की श्री अर्थात चारों पुरुषार्थ की प्राप्ती होती है । श्रीयंत्र में वस्तुदोष निवारण की भी अभूतपूर्व क्षमता है ।
श्रीविद्या की उपासना ही श्रीयंत्र की उपासना है। श्रीविद्या पंचदशाक्षरी बीज मंत्रों से ही श्रीयंत्र बना है। श्रीयंत्र की उपासना का विधान तो बहुत ही लंबा है। श्रीचक्र बाजार से लेकर दर्शन करने से उसका कोई फल नहीं है। जब तक प्राण-प्रतिष्ठा न की गई हो। गुरु परंपरा से न बनाया गया हो। तांत्रिक अनुष्ठान की विधि पूर्ण होना आवश्यक है। यंत्र का वजन सही हो। रेखाएं साफ हों, तभी दर्शन का फल है।
प्राण-प्रतिष्ठित श्रीयंत्र को लें। पंचोपचार से पूजन करने के बाद इस यंत्र को पूर्ण ब्रह्मांड जानें, और अपने शरीर को भी वही जानें, फिर एकाग्रता के साथ शुद्ध घी के दीप की लौ का दर्शन करें और इस श्लोक का नित्य १००० बार उच्चारण करें।
यंत्र प्रत्यक्ष हो, यंत्र के मध्य बने बिंदु को देखते हुए यह कार्य होना चाहिए। यह क्रिया ४५ दिन तक लगातार हो।
भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणामिति स्तोतुं वाञ्छन कथयंति भवानि त्वमिति य:।
तदैव त्वं तस्मै दिशसि निज सायुज्यपदवीं मुकुन्द ब्रह्मेन्द्रस्फुटमकुट नीराजितपदाम॥
यह अनुभूत प्रयोग है..
महान खोजों के क्रम में ऽश्रीयंत्रऽ की खोज भी एक विस्मयकारी खोज है, जो कि आज के संतप्त मानव को हर प्रकार की शांति प्रदान करने में पूर्ण समर्थ है। ब्रह्मांड का प्रतीक श्री विद्या के यंत्र को ऽश्रीयंत्रऽ कहते हैं या ऽश्रीचक्रऽ कहते हैं। यह अकेला ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। श्री शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र श्री विद्या से संबंध रखता है। श्री विद्या का अर्थ साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि हर प्रकार की ऽश्रीऽ देने वाली विद्या को कहा जाता है।
यह परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है। यह चक्र ही उनका निवास एवं रथ है। यह ऐसा समर्थ यंत्र है कि इसमें समस्त देवों की आराधना-उपासना की जा सकती है। सभी वर्ण संप्रदाय का मान्य एवं आराध्य है। यह यंत्र हर प्रकार से श्री प्रदान करता है जैसा कि दुर्गा सप्तशती में कहा गया है-
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा
आराधना किए जाने पर आदिशक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग, अपवर्ग देने वाली होती है। उपासना सिद्ध होने पर सभी प्रकार की ऽश्रीऽ अर्थात चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए इसे ऽश्रीयंत्रऽ कहते हैं। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर सुंदरी हैं। इसे शास्त्रों में विद्या, महाविद्या, परम विद्या के नाम से जाना जाता है। वामकेश्वर तंत्र में कहा है-
सर्वदेव मयी विद्या
दुर्गा सप्तशती में- विद्यासि सा भगवती परमाहि देवि।
हे देवी! तुम ही परम विद्या हो। इस महाचक्र का बहुत विचित्र विन्यास है। यंत्र के मध्य में बिंदु है, बाहर भूपुऱ, भुपुर के चारों तरफ चार द्वार और कुल दस प्रकार के अवयय हैं, जो इस प्रकार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, वहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल कमल, षोडषदल कमल, तीन वृत्त, तीन भूपुर। इसमें चार उर्ध्व मुख त्रिकोण हैं, जिसे श्री कंठ या शिव त्रिकोण कहते हैं। पांच अधोमुख त्रिकोण होते हैं, जिन्हें शिव युवती या शक्ति त्रिकोण कहते हैं। आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी में कहा-
चतुर्भि: श्रीकंठे: शिवयुवतिभि: पश्चभिरपि
नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में ४३ त्रिकोण, २८ मर्म स्थान, २४ संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है।
यही नवावरण पूजा के नव देवता है,मतान्तर से इन्हे प्रकटा गुप्ता गुप्ततरा परा सम्प्रदाया कुलकौला निगर्भा अतिरहस्या परापरातिरहस्या इत्यादि नाम से भी पुकारते हैं।
श्रीयंत्र का सरल अर्थ है - श्री का यंत्र अर्थात गृह। नियमनार्थक यम धातु से बना यंत्र शब्द गृह अर्थ को ही प्रकट करता है। क्योंकि गृह में ही सब वस्तुओं का नियंत्रण होता है। श्रीविद्या को ढूंढने के लिये उसके गृह श्रीयंत्र की ही शरण लेनी होगी। आगे श्री अर्था श्रीविद्या के परिचय से ज्ञात होगा कि वह उपास्य और उपेय दोनों है। उपेय वस्तु को उसके अनुकूल स्था ही अन्वेषण करने से सिद्धि होती है,अन्यथा मनुष्य उपहासास्पद बनता है। आदि कवि श्रीवालमीकिनी ने श्रीसीताजी के अन्वेषण में तत्पर श्रीहनुमानजी के द्वारा कहलाया है- "यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते",अर्थात जिस प्राणी की जो योनि होती है वह उसी में ढूंढा जा सकता है। भगवान शंकराचार्य ने भी यंत्र का उद्धार देते हुये "तव शरणकोणा: परिणत:" इस वाक्य में यंत्र के अर्थ में गृहवाचक शरण पद का प्रयोग किया है। इस न्याय से उत्तरभारत एवं दक्षिण भारत में स्थित श्रीनगर नामक स्थानो की सार्थकता सिद्ध होती है। क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन नगरों में श्रीविद्या के उपासक अधिक संख्या में मिलते थे,और अब भी थोडे बहुत पाये जाते है। अस्तु यह विश्व ही श्रीविद्या का गृह है। यहां विश्व शब्द से पिण्डाण्ड एवं ब्रह्मांड दोनो का ग्रहण है। मायाण्ड प्रकृत्यण्ड भी स्थूल सूक्ष्म रूप से इन्ही के अन्तर्गत आ जाता है,यह आगे चलकर ततद्विशेष यंत्रों के विवरण से विशेषतया स्पष्ट हो जायेगा।
- नवचक्र
- बिन्दु तथा महाबिन्दु :- मूलकारण महात्रिपुर सुन्दरी कामेश्वर कामेश्वरी सामरस्य जगत की मूल योनि तथा शिवभाग
- त्रिकोण - आद्या विमर्शशक्ति या जीव भाव शब्द अर्थरूपी सृष्ति की कारणात्मिका पराशक्ति अहंभाव एवं जीव तत्व
- अष्टार - पुर्यष्टक कारण शरीर लिंगशरीर का कारण
- अन्तर्दशार- इन्द्रियवासना लिंग शरीर
- बहिर्दशार- तन्मात्रा तथा पंचभूत (इन्द्रिय विषय)
- चतुर्दशार- जाग्रत स्थूल शरीर
- अष्टदल- अष्टारवासना
- षोडसदल- दशारद्वय वासना
- भूपुर- बिन्दु त्रिकोण अष्टदल षोडसदल इन चारों की समष्टि प्रमातृपुर और प्रमाणपुर का पशुपदीय प्रकृति मन बुद्धि अहंकार और शिवपदीय शुद्ध विद्यादितत्वचतुष्टय का सामरस्य।
- नवचक्रों के देवता और नाम के संकेत
- सर्वानन्दमय - महात्रुपुरसुन्दरी
- सर्वसिद्धिप्रद - त्रिपुराम्बा
- सर्वरोगहर -त्रिपुरसिद्धा
- सर्वरक्षाकर- त्रिपुरमालिनी
- सर्वार्थसाधक - त्रिपुरश्री
- सर्वसौभाग्यदायक - त्रिपुरवासिनी
- सर्वसंक्षोभणकारक- त्रिपुर सुन्दरी
- सर्वाशापरिपूरक - त्रिपुरेशी
- त्रैलोक्यमोहन - त्रिपुरा
यही नवावरण पूजा के नव देवता है,मतान्तर से इन्हे प्रकटा गुप्ता गुप्ततरा परा सम्प्रदाया कुलकौला निगर्भा अतिरहस्या परापरातिरहस्या इत्यादि नाम से भी पुकारते हैं।
- श्रीयंत्र का शब्दार्थ
श्रीयंत्र का सरल अर्थ है - श्री का यंत्र अर्थात गृह। नियमनार्थक यम धातु से बना यंत्र शब्द गृह अर्थ को ही प्रकट करता है। क्योंकि गृह में ही सब वस्तुओं का नियंत्रण होता है। श्रीविद्या को ढूंढने के लिये उसके गृह श्रीयंत्र की ही शरण लेनी होगी। आगे श्री अर्था श्रीविद्या के परिचय से ज्ञात होगा कि वह उपास्य और उपेय दोनों है। उपेय वस्तु को उसके अनुकूल स्था ही अन्वेषण करने से सिद्धि होती है,अन्यथा मनुष्य उपहासास्पद बनता है। आदि कवि श्रीवालमीकिनी ने श्रीसीताजी के अन्वेषण में तत्पर श्रीहनुमानजी के द्वारा कहलाया है- "यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते",अर्थात जिस प्राणी की जो योनि होती है वह उसी में ढूंढा जा सकता है। भगवान शंकराचार्य ने भी यंत्र का उद्धार देते हुये "तव शरणकोणा: परिणत:" इस वाक्य में यंत्र के अर्थ में गृहवाचक शरण पद का प्रयोग किया है। इस न्याय से उत्तरभारत एवं दक्षिण भारत में स्थित श्रीनगर नामक स्थानो की सार्थकता सिद्ध होती है। क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन नगरों में श्रीविद्या के उपासक अधिक संख्या में मिलते थे,और अब भी थोडे बहुत पाये जाते है। अस्तु यह विश्व ही श्रीविद्या का गृह है। यहां विश्व शब्द से पिण्डाण्ड एवं ब्रह्मांड दोनो का ग्रहण है। मायाण्ड प्रकृत्यण्ड भी स्थूल सूक्ष्म रूप से इन्ही के अन्तर्गत आ जाता है,यह आगे चलकर ततद्विशेष यंत्रों के विवरण से विशेषतया स्पष्ट हो जायेगा।
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