गुरुवार, 29 जनवरी 2015

Importance of building height (भवन की ऊँचाई का महत्त्व)


भवन के आकार प्रकार, परिधि के साथ ऊँचाई निर्धारित करने  का सिद्धांत भी प्रतिपादित किया गया है तथा विभिन्न ऊँचाई निर्धारण के सूत्र साथ-साथ उनका जो नामकरण किया गया है, उनका महत्व उअनके नाम से ही ज्ञात हो जाता है।
1. शांतिक  (Peaceful)
ऊँचाई =11/4X चौड़ाई
2. पौष्टिक (Prosperous)
ऊँचाई =11/2X चौड़ाई
3. जयदा (Successful)
ऊँचाई =13/4X चौड़ाई
4. अदभुत (Wonderful)
ऊँचाई =2X चौड़ाई
5. सर्वधाधिक (as desired by all)
ऊँचाई =21/8X चौड़ाई

उपरोक्त ऊँचाई बहुमंजिला भवनों एवं उनके प्रत्येक भाग पर भी लागू होती है । इसका सबसे सरल आधार है भवन निर्माण योजना में पदों के नाप का आधार ।

बुधवार, 28 जनवरी 2015

Varuthani ekadashi (वरूथिनी एकादशी)

पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर ने जब श्री कृष्ण से पूछा कि भगवन वैसाख कृष्ण पक्ष की एकादशी को क्या कहते हैं? इस व्रत का क्या विधान एवं महत्व है? तब श्री कृष्ण ने पाण्डु पुत्र सहित मानव कल्याण के लिए इस व्रत का वर्णन किया।श्री कृष्ण ने कहा- "वैसाख कृष्ण पक्ष की एकादशी को वरूथिनी के नाम से जाना जाता है। एक बार पृथ्वी के राजा मान्धाता ने वैसाख कृष्ण पक्ष में एकादशी का व्रत रखा था, जिसके फलस्वरूप मृत्यु पश्चात उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। त्रेतायुग में जन्मे राम के पूर्वज इच्छवाकु वंश के राजा धुन्धुमार को भगवान शिव ने एक बार श्राप दे दिया था। धुन्धुमार ने तब इस एकादशी का व्रत रखा जिससे वह श्राप से मुक्त हो कर उत्तम लोक को प्राप्त हुए।

वरूथिनी एकादशी व्रत विधि
श्री कृष्ण द्वारा व्रत के महात्मय को सुनने के पश्चात युधिष्ठिर बोले हे गुणातीत हे योगेश्वर अब आप इस व्रत का विधान जो है वह सुनाइये। युधिष्ठिर की बात सुनकर श्री कृष्ण कहते हैं "हे धर्मराज इस व्रत का पालन करने वाले को दशमी के दिन स्नानादि से पवित्र होकर भगवान की पूजा करनी चाहिए। इस दिन कांसे के बर्तन, मसूर दाल, मांसाहार, शहद, शाक, उड़द, चना, का सेवन नहीं करना चाहिए। व्रती को इस दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और स्त्री प्रसंग से दूर रहना चाहिए। आत्मिक शुद्धि के लिए पुराण का पाठ और भग्वद चिन्तन करना चाहिए।

एकादशी के दिन प्रात: स्नान करके श्री विष्णु की पूजा विधि सहित करनी चाहिए। विष्णु सहस्त्रनाम का जाप एवं उनकी कथा का रसपान करना चाहिए। श्री विष्णु के निमित्त निर्जल रहकर व्रत का पालन करना चाहिए। किसी के लिए अपशब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए व परनिन्दा से दूर रहना चाहिए। रात्रि जागरण कर भजन, कीर्तन एवं श्री हरि का स्मरण करना चाहिए।

द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात स्वयं तुलसी से परायण करने के पश्चात अन्न जल ग्रहण करना चाहिए।

वरूथिनी एकादशी का महत्व
श्री कृष्ण ने कहा है वैसाख कृष्ण पक्ष की एकादशी को वरूथिनी के नाम से जाना जाता है। इस एकादशी का बड़ा महात्म्य है। जो भक्त श्री विष्णु में मन को लगाकर श्रद्धा पूर्वक इस एकादशी का व्रत रखता है उसे दस हजार वर्ष तक तपस्या करने का पुण्यफल प्राप्त होता है। वरूथिनी एकादशी के व्रत से दानों में जो उत्तम दान कन्या दान कहा गया है उसका फल मिलता है।

माधव यह भी कहते है कि पृथ्वी पर मनुष्य के कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले चित्रगुप्त जी भी इस एकदशी के व्रत के पुण्य को लिखने में असमर्थ हैं। पापी से पापी व्यक्ति भी इस व्रत का पालन करे तो उसके पाप विचार धीरे धीरे लोप हो जाते हैं व स्वर्ग का अधिकारी बन जाता है।

Kamada Ekadashi's first year (वर्ष की पहली एकादशी कामदा)

"कामदा एकादशी" जिसे फलदा एकादशी भी कहते हैं, श्री विष्णु का उत्तम व्रत कहा गया है। इस व्रत के पुण्य से जीवात्मा को पाप से मुक्ति मिलती है। यह एकादशी कष्टों का निवारण करने वाली और मनोनुकूल फल देने वाली होने के कारण फलदा और कामना पूर्ण करने वाली होने से कामदा कही जाती है। इस एकादशी की कथा श्री कृष्ण ने पाण्डु पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाई थी। इससे पूर्व राजा दिलीप को वशिष्ठ मुनि ने सुनायी थी।

कामदा एकादशी की विधि
एकादशी के दिन स्नानादि से पवित्र होने के पश्चात संकल्प करके श्री विष्णु के विग्रह की पूजन करें। विष्णु को फूल, फल, तिल, दूध, पंचामृत आदि नाना पदार्थ निवेदित करें। आठों प्रहर निर्जल रहकर विष्णु जी के नाम का स्मरण एवं कीर्तन करें। एकादशी व्रत में ब्राह्मण भोजन एवं दक्षिणा का बड़ा ही महत्व है, अत: ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करें।

कामदा एकादशी कथा
पुण्डरीक नामक नाग का राज्य अत्यंत वैभवशाली एवं सम्पन्न था। उस राज्य में गंधर्व, अप्सराएं एवं किन्नर भी रहा करते थे। इस राज्य में ललिता नामक अति सुन्दर अप्सरा और ललित नामक श्रेष्ठ गंधर्व का वास था। ये दोनों पति पत्नी थे। इनके बीच अगाध प्रेम की धारा बहती थी। दोंनों में इस कदर प्रेम था कि वे सदा एक दूसरे का ही स्मरण किया करते थे, संयोगवश एक दूसरे की नज़रों के सामने नहीं होते तो विह्वल हो उठते। इसी प्रकार की घटना उस वक्त घटी जब ललित महाराज पुण्डरीक के दरबार में उपस्थित श्रेष्ठ जनों को अपने गायन और नृत्य से आनन्दित कर रहा था।

गायन और नृत्य करते हुए ललित को अपनी पत्नी ललिता का स्मरण हो आया जिससे गायन और नृत्य में वह ग़लती कर बैठा। सभा में कर्कोटक नामक नाग भी उपस्थित था जिसने महाराज पुण्डरीक को ललित की मनोदशा एवं उसकी गलती बता दी। पुण्डरीक इससे अत्यंत क्रोधित हुआ और ललित को राक्षस बन जाने का श्राप दे दिया। 

ललित के राक्षस बन जाने पर ललिता अत्यंत दु:खी हुई और अपने पति को श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए यत्न करने लगी। एक दिन एक मुनि ने ललिता की दु:खद कथा सुनकर उसे कामदा एकादशी का व्रत करने का परामर्श दिया। ललिता ने उसी मुनी के आश्रम में एकादशी व्रत का पालन किया और द्वादशी के दिन व्रत का पुण्य अपने पति को दे दिया। व्रत के पुण्य से ललित पहले से भी सुन्दर गंधर्व रूप में लौट आया।

कामदा एकादशी का महत्व
इस प्रकार जो चैत्र शुक्ल पक्ष में एकादशी का व्रत रखता है उसकी कामना पूर्ण होती है।

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

Santan sukh (सन्तान सुख)


पंचम स्थान पर स्वामी जितने ग्रहों के साथ होगा, उतनी संतान होगी। जितने पुरुष ग्रह होंगे, उतने पुत्र और जितने स्त्रीकारक ग्रहों के साथ होंगे, उतनी संतान लड़की होगी। सप्तमांश कुंडली के पंचम भाव पर या उसके साथ या उस भाव में कितने अंक लिखे हैं, उतनी संतान होगी। एक नियम यह भी है कि सप्तमांश कुंडली में चँद्र से पंचम स्थान में जो ग्रह हो एवं उसके साथ जीतने ग्रहों का संबंध हो, उतनी संतान होगी।

संतान सुख कैसे होगा, इसके लिए भी हमें पंचम स्थान का ही विश्लेषण करना होगा। पंचम स्थान का मालिक किसके साथ बैठा है, यह भी जानना होगा। पंचम स्थान में गुरु शनि को छोड़कर पंचम स्थान का अधिपति पाँचवें हो तो संतान संबंधित शुभ फल देता है। यदि पंचम स्थान का स्वामी आठवें, बारहवें हो तो संतान सुख नहीं होता। यदि हो भी तो सुख मिलता नहीं या तो संतान नष्ट होती है या अलग हो जाती है। 

यदि पंचम स्थान का अधिपति सप्तम, नवम, ग्यारहवें, लग्नस्थ, द्वितीय में हो तो संतान से संबंधित सुख शुभ फल देता है। द्वितीय स्थान के स्वामी ग्रह पंचम में हो तो संतान सुख उत्तम होकर लक्ष्मीपति बनता है।

पंचम स्थान का अधिपति छठे में हो तो दत्तक पुत्र लेने का योग बनता है। पंचम स्थान में मीन राशि का गुरु कम संतान देता है। पंचम स्थान में धनु राशि का गुरु हो तो संतान तो होगी, लेकिन स्वास्थ्य कमजोर रहेगा। गुरु का संबंध पंचम स्थान पर संतान योग में बाधा देता है। सिंह, कन्या राशि का गुरु हो तो संतान नहीं होती। इस प्रकार तुला राशि का शुक्र पंचम भाव में अशुभग्रह के साथ (राहु, शनि, केतु) के साथ हो तो संतान नहीं होती। पंचम स्थान में मेष, सिंह, वृश्चिक राशि हो और उस पर शनि की दृष्टि हो तो पुत्र संतान सुख नहीं होता। पंचम स्थान पर पड़ा राहु गर्भपात कराता है। यदि पंचम भाव में गुरु के साथ राहु हो तो चांडाल योग बनता है और संतान में बाधा डालता है यदि यह योग स्त्री की कुंडली में हो तो। यदि यह योग पुरुष कुंडली में हो तो संतान नहीं होती। नीच का राहु भी संतान नहीं देता। राहु, मंगल, पंचम हो तो एक संतान होती है। पंचम स्थान में पड़ा चँद्र, शनि, राहु भी संतान बाधक होता है। यदि योग लग्न में न हों तो चँद्र कुंडली देखना चाहिए। यदि चँद्र कुंडली में यह योग बने तो उपरोक्त फल जानें। पंचम स्थान पर राहु या केतु हो तो पितृदोष, दैविक दोष, जन्म दोष होने से भी संतान नहीं होती। यदि पंचम भाव पर पितृदोष या पुत्रदोष बनता हो तो उस दोष की शांति करवाने के बाद संतान प्राप्ति संभव है। पंचम स्थान पर नीच का सूर्य संतान पक्ष में चिंता देता है। पंचम स्थान पर नीच का सूर्य ऑपरेशन द्वारा संतान देता है। पंचम स्थान पर सूर्य मंगल की युति हो और शनि की दृष्टि पड़ रही हो तो संतान की शस्त्र से मृत्यु होती है।

Delay in marriage (विवाह में देरी)


सप्तम में बुध और शुक्र दोनो के होने पर विवाह वादे चलते रहते है, विवाह आधी उम्र में होता है। 
चौथा या लगन भाव मंगल (बाल्यावस्था) से युक्त हो,सप्तम में शनि हो तो कन्या की रुचि शादी में नही होती है। सप्तम में शनि और गुरु शादी देर से करवाते हैं। चन्द्रमा से सप्तम में गुरु शादी देर से करवाता है,यही बात चन्द्रमा की राशि कर्क से भी माना जाता है। सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो,कोई शुभ ग्रह योगकारक नही हो,तो पुरुष विवाह में देरी होती है। सूर्य मंगल बुध लगन या राशिपति को देखता हो,और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो आध्यात्मिकता अधिक होने से विवाह में देरी होती है।

लगन में सप्तम में और बारहवें भाव में गुरु या शुभ ग्रह योग कारक नही हों,परिवार भाव में चन्द्रमा कमजोर हो तो विवाह नही होता है,अगर हो भी जावे तो संतान नही होती है। महिला की कुन्डली में सप्तमेश या सप्तम शनि से पीडित हो तो विवाह देर से होता है। राहु की दशा में शादी हो,या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।

दोष निवारण के लिये शुभ दिन


वैसे तो विधाता के द्वारा निर्मित सभी दिन शुभ मानें गये हैं पर कुछ तिथि शास्त्रों के अनुसार विशेष मानी गई हैं।
दोष निवारण के लिये जैसे:-
  1.   पित्र दोष के लिए शुक्ल पक्ष का पहला रविवार ।
  2.   कालसर्प दोष के लिए अष्टमी,चौदश,अमावस्या ।
  3.   मंगल दोष के लिये कृष्ण पक्ष का द्वितीय मंगलवार।
  4.   शनि की साढ़े साती या ढैय्या के लिये कृष्ण पक्ष की शनिवार और अमावस्या ।
  5.   चंद्र की शांति के लिये शुक्ल पक्ष की षष्ठी ।
  6.   गुरु की शांति के लिये किसी भी पक्ष की पंचमी तिथि ।
  7.   बुध की शांति के लिये शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि ।
  8.   शुक्र की शांति के लिये तृतीया तिथि ।


गुरुवार, 15 जनवरी 2015

चांडाल योग का अर्थ क्या है?

चांडाल शब्द का अर्थ होता है क्रूर कर्म करनेवाला, नीच कर्म करनेवाला। इस चांडाल शब्द पे से ज्योतिष -शास्त्र में एक योग है. जिसे गुरु चांडाल योग या विप्र योग कहा जाता है। राहू और केतु दोनों छाया ग्रह है। पुराणों में यह राक्षस है। राहू और केतु के लिए बड़े सर्प  या अजगर की कल्पना करने में आती है। राहू सर्प का मस्तक है तो केतु सर्प की पूंछ. ज्योतिषशास्त्र में राहू -केतु दोनों पाप ग्रह है। अत: यह दोनों ग्रह जिस भाव में या जिस ग्रह के साथ हो उस भाव या उस ग्रह संबंधी अनिष्ठ फल दर्शाता है। यह दोनों ग्रह चांडाल जाती के है। इसलिए गुरु के साथ इनकी युति गुरु चांडाल या विप्र (गुरु) चांडाल ( राहू-केतु ) योग कहा जाता है।

राहू-केतु जिस तरह गुरु के साथ चांडाल योग बनाते है इसी तरह अन्य ग्रहों के साथ चांडाल योग बनाते है जो निम्न प्रकार के है।

१) रवि-चांडाल योग : सूर्य के साथ राहू या केतु हो तो इसे रवि चांडाल योग कहते है। इस युति को सूर्य ग्रहण योग भी कहा जाता है। इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक गुस्सेवाला और जिद्दी होता है। उसे शारीरिक कष्ठ भी भुगतना पड़ता है। पिता के साथ मतभेद रहता है और संबंध अच्छे नहीं होते।पिता की तबियत भी अच्छी नहीं रहती।
२) चन्द्र-चांडाल योग : चन्द्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे चन्द्र चांडाल योग कहते है। इस युति को चन्द्र ग्रहण योग भी कहा जाता है. इस योग में जन्म लेनेवाला शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नहीं भोग पाता, माता संबंधी भी अशुभ फल मिलता है। नास्तिक होने की भी संभावना होती है।
३) भौम-चांडाल योग : मंगल के साथ राहू या केतु हो तो इसे भौम चांडाल योग कहते है। इस युति को अंगारक योग भी कहा जाता है. इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक क्रोधी, जल्दबाज, निर्दय और गुनाखोर होता है। स्वार्थी स्वभाव, धीरज न रखनेवाला होता है। आत्महत्या या अकस्मात की संभावना भी होती है।
४) बुध-चांडाल योग : बुध के साथ राहू या केतु हो तो इसे बुध चांडाल योग कहते है. बुद्धि और चातुर्य के ग्रह के साथ राहू-केतु होने से बुध के कारत्व को हानी पहुचती है। और जातक अधर्मी, धोखेबाज और चोरवृति वाला होता है।
५) गुरु-चांडाल योग : गुरु के साथ राहू या केतु हो तो इसे गुरु चांडाल योग कहते है।ऐसा जातक नास्तिक, धर्मं में श्रद्धा न रखनेवाला और नहीं करने जेसे कार्य करनेवाला होता है।
६) भृगु-चांडाल योग : शुक्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे भृगु चांडाल योग कहते है। इस योग में जन्म लेनेवाले जातक का जातीय चारित्र शंकास्पद होता है. वैवाहिक जीवन में भी काफी परेशानिया रहती है। विधुर या विधवा होने की सम्भावना भी होती है।
७) शनि-चांडाल योग : शनि के साथ राहू या केतु हो तो इसे शनि चांडाल योग कहते है। इस युति को श्रापित योग भी कहा जाता है। यह चांडाल योग भौम चांडाल योग जेसा ही अशुभ फल देता है। जातक झगढ़ाखोर, स्वार्थी और मुर्ख होता है। ऐसे जातक की वाणी और व्यव्हार में विवेक नहीं होता। यह योग अकस्मात मृत्यु की तरफ भी इशारा करता है।

वर्तमान में देवगुरु बृहस्पति राहु के साथ नीच राशि मकर में युति बनाकर बैठे हैं। गुरु-राहु की युति को चांडाल योग के नाम से जाना जाता है। सामान्यत: यह योग अच्छा नहीं माना जाता। जिस भाव में फलीभूत होता है, उस भाव के शुभ फलों की कमी करता है। यदि मूल जन्म कुंडली में गुरु लग्न, पंचम, सप्तम, नवम या दशम भाव का स्वामी होकर चांडाल योग बनाता हो तो ऐसे व्यक्तियों को जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है। जीवन में कई बार गलत निर्णयों से नुकसान उठाना पड़ता है। पद-प्रतिष्ठा को भी धक्का लगने की आशंका रहती है।

वास्तव में गुरु ज्ञान का ग्रह है, बुद्धि का दाता है। जब यह नीच का हो जाता है तो ज्ञान में कमी लाता है। बुद्धि को क्षीण बना देता है। राहु छाया ग्रह है जो भ्रम, संदेह, शक, चालबाजी का कारक है। नीच का गुरु अपनी शुभता को खो देता है। उस पर राहु की युति इसे और भी निर्बल बनाती है। राहु मकर राशि में मित्र का ही माना जाता है (शनिवत राहु) अत: यह बुद्धि भ्रष्ट करता है। निरंतर भ्रम-संदेह की स्थिति बनाए रखता है तथा गलत निर्णयों की ओर अग्रसर करता है।

यदि मूल कुंडली या गोचर कुंडली इस योग के प्रभाव में हो तो निम्न उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं- 
१. योग्य गुरु की शरण में जाएँ, उसकी सेवा करें और आशीर्वाद प्राप्त करें। स्वयं हल्दी और केसर का टीका लगाएँ।
२. निर्धन विद्यार्थियों को अध्ययन में सहायता करें।
३. निर्णय लेते समय बड़ों की राय लें। 
४. वाणी पर नियंत्रण रखें। व्यवहार में सामाजिकता लाएँ।
५. खुलकर हँसे, प्रसन्न रहें।
६. गणेशजी और देवी सरस्वती की उपासना और मंत्र जाप करें।
७. बरगद के वृक्ष में कच्चा दूध डालें, केले का पूजन करें, गाय की सेवा करें।
८. राहु का जप-दान करें।

गुरु स्वयं नवम भाव का कारक माना जाता है, उसके निर्बल होने के कई प्रभाव सामने आ सकते हैं। धर्मस्थानों की क्षति, दुर्घटनाएँ संभावित हैं। लोगों की धार्मिक आस्था लड़खड़ाएगी। लग्न पर दोनों ग्रहों की दृष्टि मतिभ्रम की स्थिति उत्पन्न करेगी। इससे सत्तापक्ष द्वारा गलत निर्णय लेकर जनता का विश्वास खो देने की पूर्ण आशंका रहेगी। पराक्रम पर इनकी दृष्टि महँगाई, मंदी जैसे मुद्दों पर विराम नहीं लगने देगी। 

साथ ही असामाजिक तत्वों की गतिविधियाँ भी बढ़ेंगी। सरकार की नीति टालमटोल वाली रह सकती है, जिसका फल कोई भारी नुकसान के रूप में मिल सकता है। बुद्धि और संतान भाव पर इनकी दृष्टि बुद्धिजीवी वर्ग में शासकों के प्रति गहरे असंतोष को जन्म देगी। राज्यों में असंतोष फैलने, उपद्रव भड़कने की आशंका रहेगी। सत्ता में भारी परिवर्तन के भी आसार रहेंगे।

दशा-महादशा पर विचार करें तो वर्तमान में भारत शुक्र की महादशा में केतु के अंतर से गुजर रहा है। सप्तम में केतु कुछ विशेष फलदायी नहीं है। अत: गोचर का प्रभाव हावी रहने का पूर्ण अंदेशा है। अत: जागरूकता तथा सजगता रखना अच्छा होगा। सत्तापक्ष व अधिकारियों को अपने कर्तव्य निभाना चाहिए तथा सुरक्षा व्यवस्थाओं को सजग रखना चाहिए।

मांगलिक होने का अर्थ क्या है?

मंगल की स्थिति से रोजी रोजगार एवं कारोबार मे उन्नति एवं प्रगति होती है तो दूसरी ओर इसकी उपस्थिति वैवाहिक जीवन के सुख बाधा डालती है।कुण्डली में जब प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में मंगल होता है तब मंगलिक दोष (मांगलिक​ दोष​​) लगता है । इस दोष को विवाह के लिए अशुभ माना जाता है।यह दोष जिनकी कुण्डली में हो उन्हें मंगली जीवनसाथी ही तलाश करनी चाहिए ऐसी मान्यता है। सातवाँ भाव जीवन साथी एवम गृहस्थ सुख का है । इन भावों में स्थित मंगल अपनी दृष्टि या स्थिति से सप्तम भाव अर्थात गृहस्थ सुख को हानि पहुँचाता है ज्योतिशास्त्र में कुछ नियम बताए गये हैं जिससे वैवाहिक जीवन में मांगलिक दोष नहीं लगता है।

कोई जातक चाहे वह स्त्री हो या पुरुष उसके मांगलिक होने का अर्थ है कि उसकी कुण्डली में मंगल अपनी प्रभावी स्थिति में है। शादी के लिए मंगल को जिन स्थानों पर देखा जाता है वे १,४,७,८ और १२ भाव हैं। इनमें से केवल आठवां और बारहवां भाव सामान्य तौर पर खराब माना जाता है। सामान्य तौर का अर्थ है कि विशेष परिस्थितियों में इन स्थानों पर बैठा मंगल भी अच्छे परिणाम दे सकता है। तो लग्न का मंगल व्यक्ति की पर्सनेलिटी को बहुत अधिक तीक्ष्ण बना देता है, चौथे का मंगल जातक को कड़ी पारिवारिक पृष्ठभूमि देता है। सातवें स्थान का मंगल जातक को साथी या सहयोगी के प्रति कठोर बनाता है। आठवें और बारहवें स्थान का मंगल आयु और शारीरिक क्षमताओं को प्रभावित करता है। इन स्थानों पर बैठा मंगल यदि अच्छे प्रभाव में है तो जातक के व्यवहार में मंगल के अच्छे गुण आएंगे और खराब प्रभाव होने पर खराब गुण आएंगे। मांगलिक व्यक्ति देखने में ललासी वाले मुख का, कठोर निर्णय लेने वाला, कठोर वचन बोलने वाला, लगातार काम करने वाला, विपरीत लिंग के प्रति कम आकर्षित होने वाला, प्लान बनाकर काम करने वाला, कठोर अनुशासन बनाने और उसे फॉलो करने वाला, एक बार जिस काम में जुटे उसे अंत तक करने वाला, नए अनजाने कामों को शीघ्रता से हाथ में लेने वाला और लड़ाई से नहीं घबराने वाला होता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण गैर मांगलिक व्यक्ति अधिक देर तक मांगलिक के सानिध्य में नहीं रह पाता।

मंगलिक दोष 
१. कुण्डली में जब प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में मंगल होता है तब मंगलिक दोष  लगता है।
२. कुण्डली में चतुर्थ और सप्तम भाव में मंगल मेष अथवा कर्क राशि के साथ योग बनाता है तो मंगली दोष लगता है।

मंगल भी निम्न लिखित परिस्तिथियों में दोष कारक नहीं होगा :
१. चतुर्थ और सप्तम भाव में मंगल मेष, कर्क, वृश्चिक अथवा मकर राशि में हो और उसपर क्रूर ग्रहों की दृष्टि नहीं हो।
२. मंगल राहु की युति होने से मंगल दोष का निवारण हो जाता है।
३. लग्न स्थान में बुध व शुक्र की युति होने से इस दोष का परिहार हो जाता है।
४. कर्क और सिंह लग्न में लगनस्थ मंगल अगर केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी हो तो यह राजयोग बनाता है जिससे मंगल का अशुभ प्रभाव कम हो जाता है।
५. वर की कुण्डली में मंगल जिस भाव में बैठकर मंगली दोष बनाता हो कन्या की कुण्डली में उसी भाव में सूर्य, शनि अथवा राहु हो तो मंगल दोष का शमन हो जाता है।
६. जन्म कुंडली के १,४,७,८,१२,वें भाव में स्थित मंगल यदि स्व ,उच्च मित्र आदि राशि -नवांश का ,वर्गोत्तम ,षड्बली हो तो मांगलिक दोष नहीं होगा।
७. यदि १,४,७,८,१२ भावों में स्थित मंगल पर बलवान शुभ ग्रहों कि पूर्ण दृष्टि हो।

मंगल दोष के लिए व्रत और अनुष्ठान  
अगर कुण्डली में मंगल दोष का निवारण ग्रहों के मेल से नहीं होता है तो व्रत और अनुष्ठान द्वारा इसका उपचार करना चाहिए. मंगला गौरी और वट सावित्री का व्रत सौभाग्य प्रदान करने वाला है. अगर जाने अनजाने मंगली कन्या का विवाह इस दोष से रहित वर से होता है तो दोष निवारण हेतु इस व्रत का अनुष्ठान करना लाभदायी होता है.जिस कन्या की कुण्डली में मंगल दोष होता है वह अगर विवाह से पूर्व गुप्त रूप से घट से अथवा पीपल के वृक्ष से विवाह करले फिर मंगल दोष से रहित वर से शादी करे तो दोष नहीं लगता है.प्राण प्रतिष्ठित विष्णु प्रतिमा से विवाह के पश्चात अगर कन्या विवाह करती है तब भी इस दोष का परिहार हो जाता है.मंगलवार के दिन व्रत रखकर सिन्दूर से हनुमान जी की पूजा करने एवं हनुमान चालीसा का पाठ करने से मंगली दोष शांत होता है.कार्तिकेय जी की पूजा से भी इस दोष में लाभ मिलता है.महामृत्युजय मंत्र का जप सर्व बाधा का नाश करने वाला है. इस मंत्र से मंगल ग्रह की शांति करने से भी वैवाहिक जीवन में मंगल दोष का प्रभाव कम होता है.लाल वस्त्र में मसूर दाल, रक्त चंदन, रक्त पुष्प, मिष्टान एवं द्रव्य लपेट कर नदी में प्रवाहित करने से मंगल अमंगल दूर होता है. आइए जाने कि कुंडली में मंगल दोष कैसे होता है। जब मंगल कुंडली के १, ४, ७, ८ या १२ वें स्थान पर हो तो यह एक मंगल दोष है और ऐसे जातक को मांगलिक कहा जाता है। हमारे समाज में मंगल दोष की उपस्थिति एक बहुत बड़ा डर या भ्रम बन गया है। यहां तक की ज्योतिष की लिखी हुई पुरानी किताबों में भी मंगल दोष के बारे में मतभेद हैं, क्या क्या अपवाद उपलब्ध हैं और निवारण के उपाय क्या हैं। जो भी हो मंगल दोष को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह वैवाहिक जीवन में समस्याएं पैदा कर सकता है। इसलिए विवाह से पहले मंगल दोष के लिए कुंडली मिलाना अनिवार्य है। यह भी जरुरी है कि कुंडली का विश्लेषण करें और यह पता लगाएं कि कुंडली में मंगल दोष है या नहीं।

१. यदि मंगल १ले भाव में रख कर ४, ७ और ८ भाव पर दृष्टि करता है। तो १ हाउस व्यक्ति के चरित्र  को दर्शाता है। इस कारण से व्यक्ति बहुत आवेगी और तुरंत गुस्सा करनेवाला हो सकता है। मंगल से दृष्ट ४ थां भाव ,घर, गाड़ी, अग्नि, रसायन या बिजली से दुर्घटना को दर्शाता है। दृष्ट ७ वें भाव में वैवाहिक जीवन में बाधायें आती हैं। ८ वें भाव में होने से भयंकर दुर्घटना हो सकती है। इस प्रकार लग्न में मंगल का बैठना अशुभ माना जाता है।
२. यदि मंगल ४ थें भाव में बैठा है तो यह ४ के साथ ७, १० और ११ को भी प्रभावित करेगा। हमने ४ और ७ के प्रभावित प्रभावों को देखा है। प्रभावित १०वां भाव व्यवसाय में तेजी से बदलाव, अनिद्रा और पिता से तनाव का कारण हो सकता है। ११ वें भाव के प्रभावित होने से चोरी या दुर्घटना में हानि हो सकती है। इसलिए ४ थे भाव में मंगल बहुत अच्छा नहीं है।
३. यदि मंगल ७ वें भाव में हो तो यह १०, १ और२ को प्रभावित करता है। ७वां भाव वैवाहिक जीवन और जीवनसाथी का स्थान होता है। इसलिए यहां मंगल का होना वैवाहिक जीवन में कठिनाइयों का सूचक है। २ रे भाव में मंगल पारिवारिक सदस्यों के बीच विवाद पैदा करता है। मतभेद के कारण परिवार में ख़ुशी की कमी और समस्याएं आ सकती हैं। पैसे खो सकते हैं या खर्च की अधिकता हो सकती है। इसलिए ७ वें भाव में मंगल कठिनाइयों को बढ़ा सकता है।
४. यदि मंगल ८ वें घर में बैठा है तो यह ११, २ और ३ को प्रभावित करेगा। व्यक्ति आग, रसायन या बिजली से जानलेवा दुर्घटना का शिकार हो सकता है। यदि ३रां घर मंगल से दृष्ट है तो भाई बहन में तनाव होता है। यह व्यक्ति को बहुत कठोर और हठी बना देता है। इसलिए ८ वें घर में मंगल का होना अच्छा नहीं है।
५. अगर मंगल १२ वें भाव में हो तो यह ३, ६ और ७ भाव को प्रभावित करता है। १२ वां भाव व्यक्ति की आदतों को दर्शाता है। इससे व्यक्ति खर्च की अधिकता के बोझ तले दब जाता है। व्यक्ति को हाइपर टेंशन के साथ ही पेट से जुड़ी और खून से जुड़ी बीमारियां हो सकती हैं। इसलिए १२ हाउस में मंगल का होना भी अशुभ है। इस प्रकार मंगल दोष कई तरह की समस्यायों का कारण है। लेकिन ये बहुत मोटे दिशा निर्देश हैं। कई अन्य पहलू और कोण से अध्ययन की जरूरत है। कुडली की समग्र शक्ति, ग्रहों की शक्ति, उपयोगी पहलू और मंगल की शक्ति पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए। 

मंगल दोष के अपवाद और निवारण:
१. यदि मंगल दुर्बल है।
२. यदि मंगल आच्छादित है।
३. यदि मंगल मेष या वृश्चिक में है।
४. यदि मंगल उच्च का है।
५. यदि मंगल सिंह के ८वें भाव में है।
६. यदि मंगल धनु के १२ वें भाव में है।
७. यदि मंगल लाभदायक है।
८. यदि उच्च लाभ ९ वें घर में बैठा हो।
९. यदि मंगल नवांश में अपनी राशि में हो ।
१०. यदि लड़का और लड़की दोनों मांगलिक हों ।
मंगल दोष वैवाहिक जीवन में समस्याएं लाता है और उसे बहुत प्रभावित करता है । लेकिन कुंडली मिलान और मंगल दोष का आकलन एक विशेषज्ञ ज्योतिष का काम है और यह लड़का लड़की दोनों की
कुंडली का सावधानीपूर्व विश्लेषक करने के बाद ही किया जा सकता है। 

यहां मंगल दोष निवारण के कुछ उपाय दिए गए हैं। 
ये मंगल दोष के प्रभाव को काम करेंगे और अच्छा परिणाम देंगे :
१. प्रतिदिन गणेशजी को गुड़ और लाल फूल चढ़ाएं और पूजा करते हुए १०८ बार यह मंत्र पढ़ें: ॐ गं गणपतये नमः।
२. यदि स्वस्थ हों तो हर चार महीने में एक बार मंगलवार को रक्तदान करें।
३. मंगल यन्त्र की स्थापना करें और मंगल प्रार्थना करें।
४. मंगलवार को सूर्योदय से लेकर अगले सूर्योदय तक का व्रत करें और इस अवधि में सिर्फ फल और दूध ही लें।
५. मंगल चंडिका मंत्र का नियमित जाप करें।
६. कुम्भ विवाह, विष्णु विवाह और अश्वत्थ विवाह कराएं।
७. प्रतिदिन हनुमान चालीसा पढ़ें।
८. चिड़ियों को मीठा खिलाएं।


बुधवार, 7 जनवरी 2015

Part-2 वास्तु विज्ञान​ (Architectural Science)

सही दिशा (cardinal direction) में भवन बनाएँ:

सही दिशा से तात्पर्य है कि भवन की स्थिति सही दिशा में हो जैसा नीचे चित्र में दर्शाया गया है, विदिक दिशा में भवन बनाने पर विभिन्न दिशाओं से प्राप्त होने वाली ऊर्जाओं का प्रवाह अनुकूल अवस्था में प्राप्त नहीं होता है। वास्तु शास्त्र नियमों में इसी उद्देश्य से, मर्म स्थानों पर निर्माण से बचना निहित है जिस तरह हमारे शरीर में इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाड़ी क्रियाशील रहती हैं उसी तरह से भवन में निम्नानुसार उपरोक्त नाड़ियाँ सही दिशा में भवन निर्वाण से क्रियाशील रहती हैं तथा हमारे स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव डालती हैं।

१.  भूखंड में सही दिशा में भवन की स्थिति                         २. भूखंड एवं भवन की विदिक दिशा की स्थिति


भवन में योनि का निर्धारण:
योनि का शाब्दिक अर्थ होता है उत्पत्ति। भवन सूर्य उदय के संदर्भ में भवन की  दिशा के निर्धारण को पूर्व योनि कहते हैं। भूखण्ड में प्रमुखत: ८योनि स्थितियाँ होती हैं, प्रत्येक स्थिति को उस विशेष दिशा की योनि कहते है, जिनका नाम उनके गुणों के आधार पर रखा गया है।

        ऐसे भूखंड जिनकी कोने की स्थिति विदिक होती है । व्यास, घूमरा, कुकुर एवं खर, इनको शुभ नहीं माना गया है। उपरोक्त प्रत्येक योनि के अंकों की उस दिशा को निज योनि संज्ञा दी गई है। अत: भवन की परिधि नाप का जो योग होता है, उसमें ८ का भाग देने पर जो शेष बचता है, उसे योनि अंक मानकर व्यय का निर्धारण किया जाता है ।
वास्तु के आकार-प्रकार के नाप के सिद्धांत:
वास्तु सिद्धांतों का आधार मानव संरचना है, उसी तारतम्य में वास्तु के आकार-प्रकार भूमि का नाप एवं गणना का आधार मानव हस्त अपनाया गया है, जिसे पुरुष प्रमाण कहते हैं, इसे पर्व, हस्ता, दंड, रज्जू एवं योजन के नाम से जाना जाता है, मूर्ति निर्माण को ताल माप दंड का आधार बनाया गया है। 
    भवन, प्रासाद, देवालय आदि की परिधि के नाप को बहुत महत्व दिया गया है। भवन की ऊँचाई उसी अनुपात में निर्धारित होती है। मंदिर निर्माण का आधार मानव संरचना ही है।
पुरुष माप का रहस्य:
१. चाहे दोनों हाथ फैला लो, चाहे तीन क़दम चलकर दूरी तय करो, या नाप लो या बीस बित्ता नाप लो (एक बित्ता १२ अंगुल का होता है) १२० अंगुल का पुरुष नाप माना गया है । यह सिद्ध करता है कि मानव माप कितना सटीक है एवं एक निश्चित गणितीय माप में है । अनुकूल ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए मानव माप के अनुसरण का आधार यही है।
पुरुष-प्रमान का आधार:
पुरुष शरीर के दाएँ हाथ की बीच की अंगुली के पोर को अंगुल नाप माना गया है, चूँकि अंगुर नाप सभी का अलग-अलग होता है अत: उसे प्रमाणिक नाप करने के लिए यवा की अंगुली की पोर का आधार बनाया गया है। जिसे ८,७,६,यवा नाप के अनुसार उत्तमा, मध्यमा एवं अधमा नाप की श्रेणी में वास्तु सिद्धांत के आधार को निम्नानुसार प्रामाणिक माना गया है। 
1तिल=1/64 अंगुला=0.47mm    1विसाती=12 अंगुला=360mm
1यवा=1/8 अंगुला=3.75mm      1हस्ता=24 अंगुला=720mm
1अगुला=1 अंगुला=30mm       1डंडा=4 हस्ता=2.88m
1पर्वा=3 अंगुला=90mm          8डंडा=1रज्जू=22.8m
1पदा =8अंगुला=240mm        10रज्जू=1योजन=280km

भवन की ऊँचाई का महत्त्व​:

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

Part-1 वास्तु विज्ञान​ (Architectural Science)

दिशा, दशा सुधारती है

1. पूर्व (East): प्रात:कालीन पूर्व दिशा से उदयमान सूर्य नई रोशनी लाकर अंधकार को दूर कर, आपकी दिनचर्या को आगे बढाने के लिए नई स्फूर्ति लेकर आता है। अत: सूर्य भगवान के लिए पूर्व कि सभी खिड़कियाँ और दरवाज़े प्रात: काल में खोलकर रखें ।

2. पश्चिम (West): पश्चिम दिशा की ओर बैठकर कोई निर्णय न लें, हो सकता है आपको पछताना पड़े, वरुण देवता पश्चिम दिशा के अधिपति हैं। 

3. उत्तर (North): उत्तर दिशा आपके सभी प्रश्नों के उत्तर देती है, आपकी उलझनों को सुलझाती है । यह दिशा आपको एवं आपके विचारों को नई स्फूर्ति प्रदान करती है । वतावरण में चुंबकीय तरंगें उत्तर से सक्षिण की ओर प्रवाहित होती हैं । अत: उत्तर मुखी होकर बैठना आपके लिए उपयुक्त है । कुबेर (धनका स्वामी) इस दिशा के अधिपति हैं । उत्तर दिशा की खिड़कियों को खोलकर रखें और कुबेर का स्वागत करें, घर में ऊर्जा एवं धन के प्रवेशको सहज बनाएँ ।

4. दक्षिण (South): दक्षिण अर्थात दक्षिणा देना, कुछ गँवाना। अत: दक्षिण दिशा की ओर बैठकर कोई कार्य न करें । अन्यथा स्वास्थ्य एवं धन की हानि हो सकती है।

5. पाताल (Nadilr): भूसतह के अंदर का भाग सुदृण है आपकी नींव यदि मजबूत है। तो आपके विचार सुदृढ होंगे । अत: भूतल के नीचे निवास न बनाएँ, अपने को ऊपर उठाएँ, गढ्ढे में न डालें ।

6. आकाश (Zenith): आकाश का अर्थ है ऊँचाई, ऊँचाई भवन को उपलब्ध कराती है। हमारे लिए कार्य करने के लिए उपयुक्त जगह उपलब्ध कराती है। हमारे  लिए कार्य करने के लिए उपयुक्त जगह उपलब्ध होती है । जीवनदायिनी अंतरिक्ष ऊर्जा हमें आकाश से ही प्राप्त होती है । अत: जीवन में उपयुक्त उँचाई पाने के लिए भवन को भी उपयुक्त ऊँचाई नियमानुसार उपलब्ध कराएँ।

जानें आपका घर कौन सा मुखी है :
बहुत से लोगों को यह जानने में कठिनाई होती है कि उनका घर वास्तु नियमों के अंतर्गत किस दिशा में स्थित है । कौन सा मुखी है ।

       अत​: जब आप अपने घर से मुख्य सड़क की ओर निकलते हैं और निकलते समय जो दिशा आपके सामने है वही दिशा है, जिस पर आपका भवन स्थित है । उदाहरण के लिए जब आप अपने घर से बाहर निकलते हैं और इसी दिशा में प्रात​: कालीन सूर्य उदय होता है । तो समझिए आपका घर पूर्व मुखी है । आपके दाएँ हाथ पर दक्षिण दिशा है, बाएँ हाथ पर उत्तर दिशा है और आपकी पीठ की ओर पश्चिम दिशा  है । चुंबकीय कंपास से दिशा ज्ञान आसानी से किया जा सकता है ।

सोमवार, 5 जनवरी 2015

Vedic importance of education (वैदिक शिक्षा के महत्व)



वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है जिसका अर्थ है: जानना, ज्ञान इत्यादि। वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है । वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, क्योकि माना जाता है कि इसके मन्त्रों को परमेश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे । वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है । वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं ।

वेदों का महत्व- 
भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसे पुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और हिन्दू धर्म का मुख्य आधार हैं। न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है। मानव-जाति और विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से ही मिलता है।

विश्व के वाङ्मय में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तक नहीं है। आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है। वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है। अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरुपण किया गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वाले भाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है, उनको ‘ऋत्विकऽ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चार गण हैं। (१) होतृगण, (२) अध्वर्युगण, (३) उद्गातृगण तथा (४) ब्रह्मगण। उपर्युक्त चारों गणों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं।

(१) ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘ऋक्ऽ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमें होतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरुप के भी कुछ मन्त्र हैं।

(२) यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘गद्यात्मकऽ मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘यजुर्वेद है। इसमें कुछ पद्यबद्ध, मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (क) शुक्लयजुर्वेद और (ख) कृष्णयजुर्वेद।

(३) सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेद है।

(४) अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। अथर्व का अर्थ है कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अतः इसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार या कमी-पुर्ति करने वाले मन्त्र भी है। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध है। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्य विषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्दराशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षि द्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नाम अथर्ववेद है। वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं ।

ऋग्वेद (इसमें देवताओं का आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं -- यही सर्वप्रथम वेद है) (यह वेद मुख्यतः ऋषि मुनियों के लिये होता है) सामवेद (इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं)(यह वेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है) यजुर्वेद (इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं)(यह वेद मुख्यतः क्षत्रियो के लिये होता है) अथर्ववेद (इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिये मन्त्र हैं)(यह वेद मुख्यतः व्यापारियो के लिये होता है) हर वेद के चार भाग होते हैं । पहले भाग (संहिता) के अलावा हरेक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं । कुल मिलाकर ये हैं : संहिता (मन्त्र भाग) ब्राह्मण-ग्रन्थ (गद्य में कर्मकाण्ड की विवेचना) आरण्यक (कर्मकाण्ड के पीछे के उद्देश्य की विवेचना) उपनिषद (परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन) ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं जो हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं । बाकी ग्रन्थ स्मृति के अन्तर्गत आते हैं ।

The importance of Swastika (स्वास्तिक का महत्व)

विभिन्न धर्मों के उपासना-स्थलों के ऊर्जास्तरों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया तो चर्च में क्रॉस के इर्दगिर्दलगभग १०००० बोविस ऊर्जा का पता चला। मस्जिदों में इसका स्तर ११००० बोविस रिकार्ड किया गया है। शिवमंदिर में यह स्तर १६००० बोविस से अधिक प्राप्त हुआ। हिन्दू धर्म के प्रधान चिह्न स्वस्तिक में यह ऊर्जा १०,००००० (दस लाख) बोविस पायी गयी। इससे स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में इस चिह्न को इतना महत्त्व क्यों दिया गया है और क्यों इसे धार्मिक कर्मकांडों के दौरान, पर्व-त्यौहारों में एवं मुंडन के उपरान्त छोटे बच्चों के मुंडित मस्तक पर, गृह-प्रवेश के दौरान दरवाजों पर और नये वाहनों की पूजा व अर्चना के समय वाहनों पर पवित्र प्रतीक के रूप में अंकित किया जाता है। 

स्वास्तिक का महत्व....
स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक हो या सनातनी हो या जैनी ,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवाह आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ॐ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है। हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है,बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे,चारों तरफ़ भटके नहीं,वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है, उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है, बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ऽसुऽ उपसर्ग तथा ऽअस्तिऽ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से बना है, इसलिये सु+अस्ति़स्वास्ति इसमें ऽइकोयणचिऽ सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। 

स्वास्ति में भी अस्ति को अव्यय माना गया है और "स्वास्ति" अव्यय पद का अर्थ कल्याण मंगल शुभ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में "क" प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे स्वास्तिक का नाम दे दिया जाता है।  

स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है,अङ्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,हिटलर का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है।


Om (ॐ)

ओम का यह चिह्न ‘ॐ अद्भुत है। यह पुरे ब्रह्मांड को प्रदर्शित करती है। बहुत सारी आकाश गंगाएँ ऐसे ही फैली हुई है। ब्रह्म का मतलब होता है विस्तार, फैलाव और बढ़ना । ओंकार ध्वनि ‘ॐ  को दुनिया में जितने भी मंत्र है उन सबका केंद्र कहा गया है। ॐ शब्द के उच्चारण मात्र से शरीर में एक सकारात्मक उर्जा आती है।हमारे शास्त्र में ओंकार ध्वनि के १०० से भी ज्यादा मतलब समझाई गयी है । कई बार ऐसे देखा गया है कि मंत्रों में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिसका कोई अर्थ नहीं निकलता है ,लेकिन उससे निकली हुई ध्वनि शरीर के उपर अपना प्रभाव डालती हुई प्रतीत होती है।

सनातन धर्म में जो धार्मिक विधिया होती है उन सभी के शुरुआत में ‘ॐ शब्द का ही उच्चारण किया जाता हा । ॐ शब्द का जब आप उच्चारण करते है उस समय भी ‘ओऽ पर अधिक बल दिया जाता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं । इस मंत्र के चमकार बहुत सरे है । प्रत्येक मंत्र के पहले ॐ शब्द का उच्चारण किया जाता है। योग साधना में इसका बहुत अधिक महत्त्व है।अगर इस शब्द का उच्चारण प्रतिदिन निश्चित अंतराल पे किया जाये तो सभी प्रकार के मानसिक रोग दूर हो जाते हैं। ॐ को अनाहत ध्वनि (नाद) कहते हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अन्दर और इस ब्रह्मांड में सदैव गूँजता रहता है। इसके गूँजते रहने के पीछे कोई कारण नहीं है

प्राचीन भारतीय धार्मिक आस्था की बात से चले तो ब्रह्मांड के रचना के पहले ही प्रणव मंत्र का उच्चारण किया गया था । इस मंत्र का अन्त नहीं है । सामान्य रूप से नियम यही कहता है कि ध्वनी उत्पन्न होने का कारण किसी की टकराहट होती है , लेकिन अनाहत ध्वनि को उत्पन्न करना संभव नहीं है 

अनाहत का मतलब किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीज़ों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है। साधारण मानव उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी व्यक्ति ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है । इसके बावजूद भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: शांत और ध्यान में होना बहुत ही जरूरी है। जो भी व्यक्ति उस ध्वनि को सुनने लगता है, वह ईश्वर से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है, ॐ का उच्चारण करते रहना । 

जो व्यक्ति ॐ और ब्रह्म के पास रहता है, वह नदी के पास लगे वृक्षों की तरह है जो कभी नहीं मुर्झाते। – हिन्दू नियम पुस्तिका। इस शब्द का सभी धर्मो तथा सभी सम्प्रदायों में बड़ा ही महत्त्व है। ॐ शब्द को हिन्दू धर्म का प्रतीक चिह्न ही नहीं अपितु इसे हिन्दू परम्परा का सबसे पवित्र शब्द शब्द मन जाता है।हिन्दू धर्म के सभी वेद मंत्रों का उच्चारण भी ॐ से ही प्रारंभ किया जाता रहा है । ॐ नाम में हिन्दू ,मुस्लिम या इसाई जैसी कोई भी बात नहीं है। यह सोचना कि ॐ किसी एक खास धर्म का चिन्ह है,यह बिलकुल भी गलत है, बल्कि ॐ शब्द तो उसी समय से चला आ रहा है जब कोई धर्म इस दुनिया में था ही नही उस समय सिर्फ एक ही धर्म था और वो थी मानवता । यह तो अच्छाई, शक्ति, ईश्वर भक्ति और आदर का प्रतीक मन जाता है। उदाहरण के तैर पर अगर हिन्दू अपने सब मन्त्रों और भजनों में ॐ शब्द को शामिल करते हैं , तो इसाई धर्म में भी इसी सी मिलते जुलते एक शब्द आमेन का प्रयोग धार्मिक दृष्टी से किया जाता है । मुस्लिम इसको आमीन कहते है तथा इस शब्द को यद करते है , बौद्ध इसे “ओं मणिपद्मेहूं” कह कर प्रयोग करते हैं। सिख समुदाय भी “इक ओंकार” अर्थात एक ॐ का गुण गाता है। यह अंग्रेज़ी का शब्द ओम्नि, जिसका अर्थ अनंत और कभी ख़त्म न होने वाले तत्त्वों पर लगाया जाता हैं ।

इन बातो और तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि ॐ किसी धर्म , मज़हब या सम्प्रदाय का नही बल्कि पूरी इंसानियत का है। ठीक उसी प्रकार से जैसे कि हवा पानी रौशिनी समस्त मानव जाति के लिए हैं न कि केवल किसी एक सम्प्रदाय समुदाय और धर्म के लिए है । —
क्यों करते है ॐ का उच्चारण ?..~ हिंदू में ॐ शब्द के उच्चारण को बहुत शुभ माना जाता है. प्रायः सभी मंत्र ॐ से शुरू होते है। ॐ शब्द का मन, चित्त, बुद्धि और हमारे आस पास के वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ॐ ही एक ऐसा शब्द है जिसे अगर पेट से बोला जाए तो दिमाग की नसों में कम्पन होता है। इसके अलावा ऐसा कोई भी शब्द नही है जो ऐसा प्रभाव डाल सके। ॐ शब्द तीन अक्षरो से मिल कर बना है जो है “अ”, “उ” और “म”। जब हम पहला अक्षर “अ” का उच्चारण करते है तो हमारी वोकल कॉर्ड या स्वरतन्त्री खुलती है और उसकी वजह से हमारे होठ भी खुलते है। 
दूसरा अक्षर “उ” बोलते समय मुंह पुरा खुल जाता है और अंत में “म” बोलते समय होठ वापस मिल जाते है। अगर आप गौर से देखेंगे तो ये जीवन का सार है पहले जन्म होता है, फिर सारी भागदौड़ और अंत में आत्मा का परमात्मा से मिलन। ॐ के तीन अक्षर आद्यात्म के हिसाब से भी ईश्वर और श्रुष्टि के प्रतीकात्मक है। ये मनुष्य की तीन अवस्था (जाग्रत, स्वपन, और सुषुप्ति), ब्रहांड के तीन देव (ब्रहा, विष्णु और महेश) तीनो लोको (भू, भुवः और स्वः) को दर्शाता है. ॐ अपने आप में सम्पूर्ण मंत्र है।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

Part-2 (मन्त्र जप​) Mantra chanting

मंत्र का मूल भाव होता है- मनन। मनन के लिए ही मंत्रों के जप के सही तरीके धर्मग्रंथों में उजागर है। शास्त्रों के मुताबिक मंत्रों का जप पूरी श्रद्धा और आस्था से करना चाहिए। साथ ही एकाग्रता और मन का संयम मंत्रों के जप के लिए बहुत जरुरी है। माना जाता है कि इनके बिना मंत्रों की शक्ति कम हो जाती है और कामना पूर्ति या लक्ष्य प्राप्ति में उनका प्रभाव नहीं होता है।

शरीर को साफ रखने के लिए नित्य नहाना जरूरी है, उसी प्रकार कपड़े नित्य धोने आवश्यक हैं, घर की सफारि नित्य की जाती है। उसी प्रकार मन पर भी नित्य वातावरण में उड़ती-फिरती दुष्प्रवृतितयों की छाप पड़ती है, उस मलीनता को धोने के लिए नित्य "जप-उपासना" करनी आवश्यक है। "जप" के द्वारा "ईश्वर" को स्मृति-पटल पर अंकित किया जाता है। "जप" के आधार पर ही किसी सत्ता का "बोध" और "स्मरण" हमें होता है। स्मरण से आह्वाहन,से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ता है। ये क्रम लर्निग-रिटेन्शन-रीकाल-रीकाग्नीशनके रूप में मनौवेज्ञानिकों द्वारा भी समर्थित है।

"जप" करने से जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वो "सूक्ष्म शरीर" में उत्तेजना पैदा करती है और इसकी गर्मी से अन्तर्जत नये जागरण का अनुभव करता है। जो जप कर्ता के शरीर एवं मन में विभिन्न प्रकार की हलचलें उत्पन्न करता है तथा अनन्त आकाश में उड़कर सूक्ष्म वातावरण को प्रभावित करता है। इस ब्लॉग में हम केवल  सात्विक मन्त्रों"  के जप के संबंध में चर्चा करेंगें। 

विभिन्न प्रकार के मन्त्रों के लिए भिन्न-२ प्रकार की मालाओं द्वारा जप किये जाने का विधान है। गायत्री-मंत्र या अन्य कोरि भी सात्विक साधना के लिए तुलसी या चंदन की माला लेनी चाहिए। कमलगट्टे, हडिडयों व धतूरे आदि की माला तांत्रिक प्रयोग में प्रयुक्त होती हैं। 

जमीन पर बिना कुछ बिछाये साधना नहीं करनी चाहिए, इससे साधना काल में उत्पन्न होने वाली "विधुत" जमीन में उतर जाती है। आसन पर बैठकर ही जप करना चाहिए। "कुश" का बना आसन श्रेष्ठ है, सूती आसनों का भी प्रयोग कर सकते हैं। ऊनी, चर्म के बने आसन, तांत्रिक जपों के लिए प्रयोग किये जाते हैं। उस अवस्था में पालथी लगाकर बैठे, जिससे शरीर में तनाव उत्पन्न न हो, इसे "सुखासन" भी कह सकते हैं। यदि लगातार एक स्थिति में न बैठा जा सकें, तो आसन (मुद्रा) बदल सकते हैं। परन्तु पैरों को फैलाकर जप नहीं करना चाहिए। वज्रासन, कमलासन या सिद्धासन में बैठकर भी साधना की जा सकती है, परन्तु गृहस्थ मार्ग पर चलने वाले साधक व्यक्तियों को "सिद्धासन" में ज्यादा देर तक नही बैठना चाहिए।

जप के तीन प्रकार होते हैं-
(१) वाचिक जप-वह होता है जिसमें मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है।
(२) उपांशु जप-वह होता है जिसमें थोड़े बहुत जीभ व होंठ हिलते हैं, उनकी ध्वनि फुसफुसाने जैसी प्रतीत होती है। 
(३) मानस जप-इस जप में होंठ या जीभ नहीं हिलते, अपितु मन ही मन मन्त्र का जाप होता है। "जप साधना"की हम इन्हें तीन सीढि़यां भी कह सकते हैं। नया साधक ऽवाचिक जपऽ से प्रारम्भ करता है, तो धीरे-धीरे "उपांशु जप" होने लगता है, "उपांशु जप" के सिद्ध होने की स्थिति में "मानस जप" अनवरत स्वमेव चलता रहता है। 

जप जितना किया जा सकें उतना अच्छा है, परन्तु कम से कम एक माला (१०८ मन्त्र) नित्य जपने ही चाहिए। जितना अधिक जप कर सकें उतना अच्छा है। किसी योग्य सदाचारी, साधक व्यक्ति को गुरू बनाना चाहिए, जो साधना मार्ग में आने वाली विध्न-बाधाओं को दूर करता रहें व साधना में भटकने पर सही मार्ग दिखा सकें। यदि कोरि गुरू नहीं है तो कृपा करो गुरूदेव की नायी वाली उक्ति मानकर हनुमान" जी को ऽगुरू  मान लेना चाहिए।

प्रात:काल पूर्व की ओर तथा सायंकाल पश्चिम की ओर मुख करके जप करना चाहिए। "गायत्री मंत्र"उगते "सूर्य" के सम्मुख जपना सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि गायत्री जप, सविता (सूर्य) की साधना का ही मन्त्र है। एकांत में जप करते समय माला को खुले रूप में रख सकते हैं, जहां बहुत से व्यक्तियों की दृषिट पड़े। वहां ऽगोमुखऽ में माला को डाल लेना चाहिए या कपड़े से ढक लेना चाहिए।  माला जपते समय सुमेरू (माला के आरम्भ का बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे मस्तक व नेत्रों पर लगाना चाहिए तथा पीछे की ओर उल्टा ही वापस कर लेना चाहिए।  जन्म एवं मृत्यु के सूतक हो जाने पर, माला से किया जाने वाला जप स्थगित कर देना चाहिए, केवल मानसिक जप मन ही मन चालू रखा जा सकता हैं। जप के समय शरीर पर कम कपड़े पहनने चाहिये, यदि सर्दी का मौसम है तो कम्बल आदि ओढ़कर सर्दी से बच सकते हैं। 

जप के समय ध्यान लगाने के लिए जिस जप को कर रहे उनसे संबंधित देवी-देवता की तस्वीर रख सकते हैं, यदि रिश्वर के निराकार रूप की साधना करनी है, तो दीपक जला कर उसका मानसिक ध्यान किया जा सकता है, दीपक को लगातार देख कर जप करने की क्रिया दीपक त्राटक कहलाती है। इसे ज्यादा देर करने से आंखों पर विपरित प्रभाव पड़ सकता है, अत: बार-बार दीपक देखकर, फिर आंखे बन्द करके उसका मानसिक ध्यान करते रहना चाहिए। सूर्य के प्रकाश का मानसिक ध्यान करके भी जप किया जा सकता है। माला को कनिष्ठका व तर्जनी अंगुली से बिना स्पर्श किये जप करना चाहिये। कनिष्ठका व तर्जनी से जप, तांत्रिक साधनाओं में किया जाता है। 

ब्रह्ममुहुर्त जप, ध्यान आदि के लिए श्रेष्ठ समय होता है, हम शाम को भी जप कर सकते हैं, परन्तु रात्रि-अर्धरात्रि में केवल तांत्रिक साधनाएं ही की जाती हैं। गायत्री व महामृत्युंजय मन्त्र के जप प्रारम्भ में कठिन लगते हैं, परन्तु लगातार जप करने से जिव्हा इनकी अभ्यस्त हो जाती है और कठिन उच्चारण वाले मन्त्र भी सरल लगने लगते हैं।  

Part-1 (मन्त्र की सत्ता)The power of mantra

मंत्रों की अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र सत्ता है । जीवन के पार्थिव-अपार्थिव, चेतन-अचेतन, निष्क्रिय और सक्रिय जीवन में मन्त्र की सर्वोपरि महत्ता है । बिना मन्त्र के जीवन का अस्तित्व सम्भव ही नहीं । वेदों में मन्त्र को सर्वोच्च सत्ता एवं उन्हें ब्रह्म के समान माना है । हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है इसके मूल में मन्त्र की सत्ता विद्यमान है । मानव जो बोलता है वह अपने आप में शब्द है और जब शब्द का सम्बन्ध अर्थ से हो जाता है तो वह कल्याणमय बन जाता है । वे शब्द निरर्थक होते हैं जिनके मूल में अर्थ  विद्यमान नहीं होता । श्रीकालीदासजी ने "वागर्थाविव​" कहकर इसी कथन की पुष्टी की है, जिनके मूल में अर्थ है वही शब्द सार्थक हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता ।

क्योंकि जब शब्द को ब्रह्म कह दिया जाता है तब प्रत्येक शब्द ब्रह्ममय बन जाता है । हम लौकिक व्यक्ति जिन शब्दों के अर्थ समझ लेते हैं उन्हें सार्थक कहते हैं पर जिन शब्दों का अर्थ हम नहीं समझ पाते वे वास्तव में ही इतने उच्चकोटि के होते हैं कि हमारी बुद्धी उन शब्दों के मूल तक नहीं पहुँच पाती और इसीलिए हम अपने अहं के वशीभूत होकर उन शब्दों को निष्क्र य कह देते हैं । तात्पर्य यह नहीं की वह हर शब्द जिसका मूल रहस्य हमारी समझ में नहीं आते वे उच्चकोटि के होते हैं परन्तु इसप्रकार के निश्चित लय और शब्दों से बंधे हुए समूह को मन्त्र कहा जा सकता है ।

एक व्यक्ति से एक भिखारी ने कुछ याचना की तो व्यक्ति ने उसे अनशुना कर दिया पर जब वह कुछ आगे चला तो दूसरा भिखारी मिला इस भिखारी ने भी याचना करते हुए वही बोला जो पहले भिखारी ने कहा तो उस व्यक्ति ने उसे कुछ पैसा देदिया । अब यहाँ पर दोनों भिखारियों ने एक ही शब्द का प्रयोग किया था पर पहले भिखारी ने सामान्य शब्दों में अपनी बात रखी वहीं दूसरे ने उन्हीं शब्दों को विशेष लय से उच्चारित कर अपनी बात रखी जिसका प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़ा, कहने का मतलब है कि मन्त्र के प्रभाव में उसका लय अपना महत्व रखता है वह मन्त्र व्यर्थ होता है जो लय, स्वर विहीन हो ।

मंत्र का अर्थ शास्त्रों में "मन: तारयति इति मंत्र:" के रूप में बताया गया है, अर्थात मन को तारने वाली ध्वनि ही मंत्र है। वेदों में शब्दों के संयोजन से ऐसी ध्वनि उत्पन्न की गई है, जिससे मानव मात्र का मानसिक कल्याण हो। "बीज मंत्र" किसी भी मंत्र का वह लघु रूप है, जो मंत्र के साथ उपयोग करने पर उत्प्रेरक का कार्य करता है। यहां हम यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बीज मंत्र मंत्रों के प्राण हैं या उनकी चाबी हैं: जैसे एक मंत्र-“श्रीं” मंत्र की ओर ध्यान दें तो इस बीज मंत्र में “श” लक्ष्मी का प्रतीक है, “र” धन सम्पदा का, “ई” प्रतीक शक्ति का और सभी मंत्रों में प्रयुक्त “बिन्दु” दुख हरण का प्रतीक है। इस तरह से हम जान पाते हैं कि एक अक्षर में ही मंत्र छुपा होता है। इसी तरह ऐं, ह्रीं, क्लीं, रं, वं आदि सभी बीज मंत्र अत्यंत कल्याणकारी हैं। हम यह कह सकते हैं कि बीज मंत्र वे गूढ़ मंत्र हैं, जो किसी भी देवता को प्रसन्न करने में कुंजी का कार्य करते हैं ।

मंत्र शब्द मन +त्र के संयोग से बना है !मन का अर्थ है सोच ,विचार ,मनन ,या चिंतन करना ! और "त्र" का अर्थ है बचाने वाला , सब प्रकार के अनर्थ, भय से ! लिंग भेद से मंत्रो का विभाजन पुरुष ,स्त्री ,तथा नपुंसक के रूप में है। पुरुष मन्त्रों के अंत में "हूं फट " स्त्री मंत्रो के अंत में "स्वाहा " ,तथा नपुंसक मन्त्रों के अंत में "नमः " लगता है ।

मंत्र वह माध्यम है जिनके द्वारा विभिन्न देवी देवताओं का आह्वान किया जाता है, उनसे प्रार्थना, याचना की जाती है जिससे वे जातक के शारीरिक, मानसिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास मे संतुलन स्थापित कर सकें तथा जातक के जीवन को सुखी बना सकें। मंत्र शास्त्र को एक पूर्ण विकसित आध्यात्मिक विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। मंत्रों का सही चुनाव एवं सही उच्चारण जातक के शारीरिक, मानसिक , भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास में संतुलन स्थापित करता है एवं जातक के जीवन मे सुख, समृद्धि एवं शांति स्थापित करता है।

यदि मंत्रों को पूर्ण वैदिक रीति से पूर्ण शुद्धता एवं श्रद्धा के साथ उच्चरित किया जाए तो इनसे निकलने वाली तरंगें संबन्धित दैविक शक्ति की तरंगों से संपर्क स्थापित करती हैं। हमारे ऋषियों को इन तरंगों की जानकारी थी तथा उन्होंने इन तरंगों से संपर्क स्थापित करने के लिए ही विभिन्न मंत्रों की खोज की।

Part-17 (16. अन्त्येष्टि) Funeral

हिंदूओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलह संस्कारों में से अन्तिम (१६) संस्कार है।

व्यक्ति की मृत्यु के बाद किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार. इसे अंतिम या अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहते हैं. धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मरे हुए शरीर की विधिवत क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं. शास्त्रों में इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है. जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है. प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है. उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष है . मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है. इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।

अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है। 

Part-10 (11. विद्यारम्भ​) Vidyarmb

विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में हमारे आचार्यो में मतभिन्नता है। कुछ आचार्यो का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिये तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं। मेरी राय में अन्नप्राशन के समय शिशु बोलना भी शुरू नहीं कर पाता है और चूड़ाकर्म तक बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति जगने लगती है। इसलिये चूड़ाकर्म के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। 

प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।

जब बालक। बालिका की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें ।

शिशु को उत्तम विद्या प्रदान करने के लिए यह संस्कार किया जाता है. शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये. विद्या के बिना एक पशु और मानव में कोई अंतर नहीं होता है. विद्यारम्भ का अर्थ बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है. और शिशु के शिक्षा की शुरुआत करनी है