शनिवार, 3 जनवरी 2015

Part-1 (मन्त्र की सत्ता)The power of mantra

मंत्रों की अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र सत्ता है । जीवन के पार्थिव-अपार्थिव, चेतन-अचेतन, निष्क्रिय और सक्रिय जीवन में मन्त्र की सर्वोपरि महत्ता है । बिना मन्त्र के जीवन का अस्तित्व सम्भव ही नहीं । वेदों में मन्त्र को सर्वोच्च सत्ता एवं उन्हें ब्रह्म के समान माना है । हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है इसके मूल में मन्त्र की सत्ता विद्यमान है । मानव जो बोलता है वह अपने आप में शब्द है और जब शब्द का सम्बन्ध अर्थ से हो जाता है तो वह कल्याणमय बन जाता है । वे शब्द निरर्थक होते हैं जिनके मूल में अर्थ  विद्यमान नहीं होता । श्रीकालीदासजी ने "वागर्थाविव​" कहकर इसी कथन की पुष्टी की है, जिनके मूल में अर्थ है वही शब्द सार्थक हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता ।

क्योंकि जब शब्द को ब्रह्म कह दिया जाता है तब प्रत्येक शब्द ब्रह्ममय बन जाता है । हम लौकिक व्यक्ति जिन शब्दों के अर्थ समझ लेते हैं उन्हें सार्थक कहते हैं पर जिन शब्दों का अर्थ हम नहीं समझ पाते वे वास्तव में ही इतने उच्चकोटि के होते हैं कि हमारी बुद्धी उन शब्दों के मूल तक नहीं पहुँच पाती और इसीलिए हम अपने अहं के वशीभूत होकर उन शब्दों को निष्क्र य कह देते हैं । तात्पर्य यह नहीं की वह हर शब्द जिसका मूल रहस्य हमारी समझ में नहीं आते वे उच्चकोटि के होते हैं परन्तु इसप्रकार के निश्चित लय और शब्दों से बंधे हुए समूह को मन्त्र कहा जा सकता है ।

एक व्यक्ति से एक भिखारी ने कुछ याचना की तो व्यक्ति ने उसे अनशुना कर दिया पर जब वह कुछ आगे चला तो दूसरा भिखारी मिला इस भिखारी ने भी याचना करते हुए वही बोला जो पहले भिखारी ने कहा तो उस व्यक्ति ने उसे कुछ पैसा देदिया । अब यहाँ पर दोनों भिखारियों ने एक ही शब्द का प्रयोग किया था पर पहले भिखारी ने सामान्य शब्दों में अपनी बात रखी वहीं दूसरे ने उन्हीं शब्दों को विशेष लय से उच्चारित कर अपनी बात रखी जिसका प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़ा, कहने का मतलब है कि मन्त्र के प्रभाव में उसका लय अपना महत्व रखता है वह मन्त्र व्यर्थ होता है जो लय, स्वर विहीन हो ।

मंत्र का अर्थ शास्त्रों में "मन: तारयति इति मंत्र:" के रूप में बताया गया है, अर्थात मन को तारने वाली ध्वनि ही मंत्र है। वेदों में शब्दों के संयोजन से ऐसी ध्वनि उत्पन्न की गई है, जिससे मानव मात्र का मानसिक कल्याण हो। "बीज मंत्र" किसी भी मंत्र का वह लघु रूप है, जो मंत्र के साथ उपयोग करने पर उत्प्रेरक का कार्य करता है। यहां हम यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बीज मंत्र मंत्रों के प्राण हैं या उनकी चाबी हैं: जैसे एक मंत्र-“श्रीं” मंत्र की ओर ध्यान दें तो इस बीज मंत्र में “श” लक्ष्मी का प्रतीक है, “र” धन सम्पदा का, “ई” प्रतीक शक्ति का और सभी मंत्रों में प्रयुक्त “बिन्दु” दुख हरण का प्रतीक है। इस तरह से हम जान पाते हैं कि एक अक्षर में ही मंत्र छुपा होता है। इसी तरह ऐं, ह्रीं, क्लीं, रं, वं आदि सभी बीज मंत्र अत्यंत कल्याणकारी हैं। हम यह कह सकते हैं कि बीज मंत्र वे गूढ़ मंत्र हैं, जो किसी भी देवता को प्रसन्न करने में कुंजी का कार्य करते हैं ।

मंत्र शब्द मन +त्र के संयोग से बना है !मन का अर्थ है सोच ,विचार ,मनन ,या चिंतन करना ! और "त्र" का अर्थ है बचाने वाला , सब प्रकार के अनर्थ, भय से ! लिंग भेद से मंत्रो का विभाजन पुरुष ,स्त्री ,तथा नपुंसक के रूप में है। पुरुष मन्त्रों के अंत में "हूं फट " स्त्री मंत्रो के अंत में "स्वाहा " ,तथा नपुंसक मन्त्रों के अंत में "नमः " लगता है ।

मंत्र वह माध्यम है जिनके द्वारा विभिन्न देवी देवताओं का आह्वान किया जाता है, उनसे प्रार्थना, याचना की जाती है जिससे वे जातक के शारीरिक, मानसिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास मे संतुलन स्थापित कर सकें तथा जातक के जीवन को सुखी बना सकें। मंत्र शास्त्र को एक पूर्ण विकसित आध्यात्मिक विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। मंत्रों का सही चुनाव एवं सही उच्चारण जातक के शारीरिक, मानसिक , भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास में संतुलन स्थापित करता है एवं जातक के जीवन मे सुख, समृद्धि एवं शांति स्थापित करता है।

यदि मंत्रों को पूर्ण वैदिक रीति से पूर्ण शुद्धता एवं श्रद्धा के साथ उच्चरित किया जाए तो इनसे निकलने वाली तरंगें संबन्धित दैविक शक्ति की तरंगों से संपर्क स्थापित करती हैं। हमारे ऋषियों को इन तरंगों की जानकारी थी तथा उन्होंने इन तरंगों से संपर्क स्थापित करने के लिए ही विभिन्न मंत्रों की खोज की।

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