आज की नई युवा पीढी इस व्रत के विषय से अनभिग्य है और नाना प्रकार की बातें करते हैं । कल परमा एकादशी का व्रत है इस अवसर में बहुत से हरि भक्त सत्यनारायण व्रत करते हैं यह उनकी आस्था, श्रद्धा और विश्वास है । बहुत से भक्त प्रत्येक माह की पूर्णिमा को, कुछ लोग संक्रान्तियों में, तो कुछ अपने बच्चों के जन्मोत्सव या विवाहोत्सव में यह व्रत करते हैं । कथा के अन्त में यजमान को सबसे पहले प्रसाद मिलता है। उसके बाद सभी उपस्थित भक्तों को पञ्चामृत, मोहनभोग, पंजीरी आदि का प्रसाद वितरित किया जाता है। पर क्या आपको इस व्रत के विषय में जानकारी है? नहीं,.. तो हम आज आपको सत्यनारायण व्रत के विषय में बतायेंगे ।
इस कथा की विषयवस्तु के बारे में बहुत कम लोग रुचि लेकर जानने का प्रयास करते हैं। वास्तव में सत्य का ही एक रूप नारायण का है । सत्य को साक्षात भगवान नारायण मानकर सत्यव्रत को जीवन में उतारना ही सत्यनारायण व्रत का मूल उद्देश्य है । यह सत्यनारायण कथा नहीं, सत्यनारायण व्रत कथा है । जिसने सत्य को धारण किया सत्य का व्रत किया उसकी कथा है । इस व्रत कथा के माध्यम संसारी जन सत्यव्रत ग्रहणकर वास्तविक सुख-समृद्धि का अधिकारी बन जाता है । इस व्रत के माध्यम से एक संदेश प्रमिख रूपसे उभरता है, य अदि मनुष्य अपने जीवन में सत्यनिष्ठा का व्रत अपना ले तो उसे इहलोक और परलोक में सच्चे सुख की प्राप्ती होती है और यदि वह असत्य का आचरण करता है तो दु:ख और कष्ट भोगना होता है ।
मुण्डकोपनिषद में कहा गया है "सत्यमेव जयते नानृतम्" अर्थात सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं । यहां पर सत्य से तात्पर्य केवल सत्य वचनों का पालन करने से नहीं, अपितु धर्म की पूर्ण रूप से रक्षा और प्राणियों के कल्याण की भावना भी सत्यव्रत में सम्मिलित है । वास्तव में सत्य-व्रत को अपनाकर मनुष्य अपने उत्तम व्यवहार और श्रेष्ठ कर्मों से ही अपने इष्ट की सच्ची आराधना कर सकता है।
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यम ऋतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः॥१०।०२।१६__ श्रीमद्भागवत.
सत्यनारायण व्रत कथा का वर्णन स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में मिलता है। इस कथा में सनातनीय चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के साथ-साथ राजा और रंक का भी उल्लेख है । अर्थात- यह व्रत किसी एक के लिए नहीं, समाज के सभी वर्गों के लिए है । सत्य का आचरण सभी को करना ही चाहिये इस व्रत से समाज में प्रेम, सद्भावना का उदय होता है ।परमात्मा ने हमें क्या कुछ नहीं दिया, तो क्या इस व्रत के द्वारा हम उसका आभार प्रकट नहीं कर सकते ।
एक गरीब किसान के दो पुत्र थे बड़े कानाम किशन और दूसरे का नाम रामू था । किशन अपने जिम्मेदारियों को समझने वाला सद्पुत्र था । पिताने वर्षों बाद आने वाले मेले के लिए दोनों को दस रुपय दिया। दोनों खुश हो मेले में पहुँचे तो रामू ने उस दस रुपय की मिठाई, चाट आदि खाकर खर्च करदिया, और किशन ने मीठा खरीद उसे घर लेके आया । पिता ने अपने बड़े पुत्र किशन के इस कार्य से प्रसन्न हो गये पर छोटे पुत्र को व्यर्थ का खर्चीला जान उसे पैसा देना बन्द करदिया ।
बात इतनी सी है की जब हम परमात्मा के दिये अन्न धन को उन्हीं को निवेदित करते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं किसी निर्धन को देते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं । पर जब हम परमात्मा के दिये धन का उपयोग मात्र अपने पोषण में खर्च करते हैं तब वे हमें व्यर्थ का खर्चीला समझ हमसे रूठ जाते हैं । यह व्रत नित्य के किये गये अपराधों से मुक्त करता है ।
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