गुरुवार, 16 जुलाई 2015

क्या है विवाह संस्कार​

सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक- युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है । भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है । इसलिए कहा गया है "धन्यो गृहस्थाश्रमः" । सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं । वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों के साधकों को वाञ्छित सहयोग देते रहते हैं । ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों- कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्यक है । युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।

विवाह दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है । दो प्राणी अपने अलग- अलग अस्तित्व को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ और कुछ अपूर्णताएँ दे रखी हैं । विवाह  से एक- दूसरे की अपूर्णताओं की अपनी विशेषताओं से पूर्ण करते हैं, इससे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है । एक- दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति- पथ पर अग्रसर होते जाना विवाह का उद्देश्य है । वासना का दाम्पत्य- जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानतः दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके ।

विवाह  के चरण :
1. वर-वरण (तिलक) 2. द्वार पूजा 3. विवाह संस्कार का विशेष कमर्काण्ड 4. कन्या को आशिर्वाद (चढा़व)
5. परस्पर उपहार 6. हस्तपीतकरण 7. कन्यादान - गुप्तदान 8. गोदान 9. पाणिग्रहण 10. ग्रन्थिबन्धन 11. वर-वधू की प्रतिज्ञाएँ 12. ह्रदयालम्भन​ 13. प्रायश्चित होम 14. शिलारोहण 15. लाजाहोम एवं परिक्रमा (भाँवर) 16. सप्तपदी 17. आसन परिवतर्न 18. पाद प्रक्षालन 19. शपथ आश्वासन 20. मंगल तिलक! 

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