भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की एकाद्शी अजा एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। इस दिन भगवान श्री विष्णु की पूजा पूजा की जाती है। इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी होती है। अजा एकादशी व्रत का नियम पालन दशमी तिथि की रात से प्रारंभ हो जाता है। एकादशी के दिन सुबह नित्य कर्मों से निवृत्त होकर साफ वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने बैठकर व्रत का संकल्प लें। इस दिन यथासंभव उपवास करें। उपवास में अन्न ग्रहण नहीं करें संभव न हो तो एक समय फलाहारी कर सकते हैं।
इसके बाद भगवान विष्णु की पूजा विधि-विधान से करें। भगवान विष्णु को पंचामृत से स्नान कराएं। स्नान के बाद उनके चरणामृत को व्रती (व्रत करने वाला) अपने और परिवार के सभी सदस्यों के अंगों पर छिड़कें और उस चरणामृत को पीएं। इसके बाद भगवान को गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पूजन सामग्री अर्पित करें।
विष्णु सहस्त्रनाम का जप एवं उनकी कथा सुनें। रात को भगवान विष्णु की मूर्ति के समीप हो सोएं और दूसरे दिन यानी द्वादशी के दिन वेदपाठी ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देकर आशीर्वाद प्राप्त करें। जो मनुष्य यत्न के साथ विधिपूर्वक इस व्रत को करते हुए रात्रि जागरण करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट होकर अंत में वे स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं।
कथा :
एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य दान में दे दिया है। राजा ने स्वप्न में जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था, उसकी आकृति महर्षि विश्वामित्र से मिलती-जुलती थी। अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुँचे। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में दिया अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे, तभी विश्वामित्र ने राजा से पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ मांगी। राजा ने कहा- "हे ऋषिवर! आप पाँच सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएँ ले सकते हैं।" विश्वामित्र ने कहा- "तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या दान की हुई वस्तु दक्षिणा में देना चाहते हो।"
तब राजा हरिश्चन्द्र को भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएँ जुटाईं तो सही, परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएँ पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा था, वह जाति से डोम था। वह श्मशान का स्वामी होने के नाते मृतकों के संबंधियों से ऽकरऽ लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था। उस डोम ने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था, जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर ऽअंतिम संस्कारऽ के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे ऽकरऽ वसूल करके उसे अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।
राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था। हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहाँ एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर माँगा। परन्तु उस अवला के पास कफ़न तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला ऽकरऽ अदा करने के लिए धन कहाँ से आता? कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से ऽअंतिम संस्कारऽ न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका। उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकने लगी। बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे। वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक था, उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व, जिसका सांप के काटने से असमय ही देहान्त हो गया था।
पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे। उस दिन एकादशी थी और महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। दूसरे परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे। मानो कह रहे हों- "हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे?" परन्तु यह तो उनके परिक्षा की घड़ी थी। उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- "देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊँगा।
यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। ऽकरऽ लिए बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।" रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर ऽकरऽ के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले- "हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है, तुम इतिहास में अमर रहोगे।" राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- "भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्याचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।" और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।"
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