शनिवार, 19 दिसंबर 2015

गण्डमूल / मूल नक्षत्र

मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा बड़े मूल कहलाते है। अश्वनी, रेवती व मघा छोटे मूल कहलाते है। बड़े मूलो में जन्मे बच्चे के लिए 27 दिन के बाद जब चन्द्रमा उसी नक्षत्र में जाये तो शांति करवानी चाहिए ऐसा पराशर का मत भी है, तब तक बच्चे के पिता को बच्चे का मुह नहीं देखना चाहिए। जबकि छोटे मूलो में जन्मे बच्चे की मूल शांति उस नक्षत्र स्वामी के दूसरे 10वें या 19वें दिन में  नक्षत्र में करायी जा सकती है।

यदि जातक के जन्म के समय चद्रमा इन नक्षत्रों में स्थित हो तो मूल दोष होता है। इसकी शांति नितांत आवश्यक होती है। जन्म समय में यदि यह नक्षत्र पड़े तो दोष होता है। 

गण्डमूल में जन्म का फल : 
विभिन्न चरणों में दोष विभिन्न लोगो को लगता है, साथ ही इसका फल हमेशा बुरा ही हो ऐसा नहीं है।  
अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में : पिता के लिए कष्टकारी
द्वितीय पद में : आराम तथा सुख केलिए उत्तम 
तृतीय पद में : उच्च पद 
चतुर्थ पद में : राज सम्मान 
आश्लेषा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में : यदि शांति करायीं जाये तो शुभ 
द्वितीय पद में : संपत्ति के लिए अशुभ 
तृतीय पद में : माता को हानि 
चतुर्थ पद में : पिता को हानि 
मघा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में : माता को हानि 
द्वितीय पद में : पिता को हानि 
तृतीय पद में : उत्तम 
चतुर्थ पद में : संपत्ति व शिक्षा के लिए उत्तम 
ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में : बड़े भाई के लिए अशुभ 
द्वितीय पद में : छोटे भाई के लिए अशुभ 
तृतीय पद में : माता के लिए अशुभ 
चतुर्थ पद में : स्वयं के लिए अशुभ 
मूल  नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में : पिता के जीवन में परिवर्तन 
द्वितीय पद में : माता के लिए अशुभ 
तृतीय पद में : संपत्ति की हानि 
चतुर्थ पद में : शांति कराई जाये तो शुभ फल 
रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में : राज सम्मान 
द्वितीय पद में : मंत्री पद 
तृतीय पद में : धन सुख 
चतुर्थ पद में : स्वयं को कष्ट
अभुक्तमूल
ज्येष्ठा की अंतिम एक घडी तथा मूल की प्रथम एक घटी अत्यंत हानिकर हैं इन्हें ही अभुक्तमूल कहा जाता है, शास्त्रों के अनुसार पिता को बच्चे से 8 वर्ष तक दूर रहना चाहिए यदि यह संभव ना हो तो कम से कम 6 माह तो अलग ही रहना चाहिए मूल शांति के बाद ही बच्चे से मिलना चाहिए अभुक्तमूल पिता के लिए अत्यंत हानिकारक होता है

शनिवार, 5 सितंबर 2015

ग्रहों की शान्ति के लिए करें श्रीगणेशाराधना..

ज्योतिष शास्त्र में बुध ग्रह को भगवान श्रीगणेशजी से संबद्ध किया गया है। यही कारण है की बुधवार के दिन भगवान श्रीगणेश की विशेष पूजा की जाती है। इनकी उपासना नवग्रहों की शांति कारक व व्यक्ति के सांसारिक-आध्यात्मिक दोनों तरह के लाभ की प्रदायक है। अथर्वशीर्ष में इन्हें सूर्य व चंद्रमा के रूप में संबोधित किया है। सूर्य से अधिक तेजस्वी प्रथम वंदनदेव हैं। इनकी रश्मि चंद्रमा के सदृश्य शीतल होने से एवं इनकी शांतिपूर्ण प्रकृति का गुण शशि द्वारा ग्रहण करके अपनी स्थापना करने से वक्रतुण्ड में चंद्रमा भी समाहित हैं। पृथ्वी पुत्र मंगल में उत्साह का सृजन एकदंत द्वारा ही आया है। 

बुद्धि, विवेक के देवता होने के कारण बुध ग्रह के अधिपति तो ये हैं ही, जगत का मंगल करने, साधक को निर्विघ्नता पूर्ण कार्य स्थिति प्रदान करने, विघ्नराज होने से बृहस्पति भी इनसे तुष्ट होते हैं। धन, पुत्र, ऐश्वर्य के स्वामी गणेशजी हैं, जबकि इन क्षेत्रों के ग्रह शुक्र हैं। इस तथ्य से आप भी यह जान सकते हैं कि शुक्र में शक्ति के संचालक आदिदेव हैं। धातुओं व न्याय के देव हमेशा कष्ट व विघ्न से साधक की रक्षा करते हैं, इसलिए शनि ग्रह से इनका सीधा रिश्ता है। 
गणेशजी के जन्म में भी दो शरीर का मिलाप (पुरुष व हाथी) हुआ है। इसी प्रकार राहु-केतु की स्थिति में भी यही स्थिति विपरीत अवस्था में है अर्थात गणपति में दो शरीर व राहु-केतु के एक शरीर के दो हिस्से हैं। 

इसलिए ये भी गणपतिजी से संतुष्ट होते हैं। गणेशजी की स्तुति, पूजा, जप, पाठ से ग्रहों की शांति स्वमेव हो जाती है। किसी भी ग्रह की पीडा में यदि कोई उपाय नहीं सूझे अथवा कोई भी उपाय बेअसर हो तो आप गणेशजी की शरण में जाकर समस्या का हल पा सकते हैं। 

विघ्न, आलस्य, रोग निवृत्ति एवं संतान, अर्थ, विद्या, बुद्धि, विवेक, यश, प्रसिद्धि, सिद्धि की उपलब्धि के लिए चाहे वह आपके भाग्य में ग्रहों की स्थिति से नहीं भी लिखी हो तो भी विनायकजी की अर्चना से सहज ही प्राप्त हो जाती है।

आनंद का प्रतीक "मोदक"

भगवान गणेश का प्रत्येक श्रृंगार व वस्तु हमें शिक्षा देती है। आज हम भगवान श्रीगणेश को अति प्रिय मोदक के विषय में चर्चा करेंगे।

"मोद" यानी आनंद "क" का अर्थ है छोटा-सा भाग। अतः मोदक यानी आनंद का छोटा-सा भाग। मोदक का आकार नारियल समान, यानी "खऽ"नामक ब्रह्मरंध्र के खोल जैसा होता है। कुंडलिनी के "ख" तक पहुंचने पर आनंद की अनुभूति होती है। हाथ में रखे मोदक का अर्थ है कि उस हाथ में आनंद प्रदान करने की शक्ति है। "मोदक" मान का प्रतीक है, इसलिए उसे ज्ञानमोदक भी कहते हैं।

आरंभ में लगता है कि ज्ञान थोड़ा सा ही है (मोदक का ऊपरी भाग इसका प्रतीक है।), परंतु अभ्यास आरंभ करने पर समझ आता है कि ज्ञान अथाह है। (मोदक का निचला भाग इसका प्रतीक है।) जैसे मोदक मीठा होता। वैसे ही ज्ञान से प्राप्त आनंद भी।

दक्षिणाभिमुखी मूर्ति और उत्तराभिमुखी मूर्ति


जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं। यहां दक्षिण का अर्थ दक्षिण दिशा या दाईं ओर से है । दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली व दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है। जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है।


इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को ऽजागृतऽ माना जाता है। ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांड के अंतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है। उससे सात्विकता बढ़ती है व दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता।

दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती, क्योंकि तिर्य्*क (रज) लहरियां दक्षिण दिशा से आती हैं। दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप-पुण्य का हिसाब रखा जाता है। इसलिए यह बाजू अप्रिय है। यदि दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें या सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखें तो जैसी अनुभूति मृत्यु के पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्था में होती है, वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा करने से होने लगती है। इसलिए ऐसी मूर्ति की पूजा करने का मन नहीं करता।


जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहते हैं। वाम यानी बाईं ओर या उत्तर दिशा। बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है। यह शीतलता प्रदान करती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक है, आनंददायक है।

इसलिए पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति रखी जाती है। इसकी पूजा वैद्यिक​ पद्धति से की जाती है। भगवान श्रीगणेश के पास हाथी का सिर, मोटा पेट और चूहा जैसा छोटा वाहन है, लेकिन इन समस्याओं के बाद भी वे विघ्नविनाशक, संकटमोचक की उपाधियों से प्रतिष्ठित किये गए हैं। कारण यह है कि उन्होंने अपनी कमियों को कभी अपना नकारात्मक पक्ष नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी ताकत बनाया। उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सूंड बताती है कि सफलता का पथ सीधा नहीं है।

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

श्रावन मास और सोमवार

मनुष्य जीवन बहुत ही मुश्किल से मिलता है पौराणिक शास्त्रों में कहा गया है कि 84 लाख योनियाँ पार कर आत्मा को यह पंचतत्व से मिश्रित श्रेष्ठशरीर मिलता है, जिसे हम मनुष्य शरीर कहते है । जिसका मुख्य उद्देश्य जीवन को मर्यादा और विभिन्न मार्गों का अनुशरण करते हुए आंतरीक प्राण आत्मा को इश्वर तत्व तक पहुचाना होता है।

शास्त्रों में महादेव को सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले परम अराध्य देव के रुप में जाना जाता है और इसी कारण इन्हें भोलेनाथ के नाम से पुकारा जाता है। भक्तों द्वारा पुकारने व पूजा करने पर यह शीघ्र अति शीघ्र प्रसन्न होकर भक्तों के कष्टों का हरण कर देते है। और यदि व्यक्ति सच्चे मन से शिव का स्मरण करता है तो उसे भी भगवान शिव की असीम कृपा प्राप्त होती है ।

कथा और ताण्डव मंत्र महिमा

कथा:
मित्रो आप सब ज्ञान के धनी है आप सब जानते हैं की लंकाधिपति रावण भगवान शिव का प्रिय भक्त था, वह इतना ऐश्वर्यशाली था की उसके शिव पूजन के लिए स्वयं इन्द्रदेव गंगाजी का जल लेके आते थे और सृष्टिकरता ब्रह्माजी वेद में अष्टाध्यायी का पाठ करते थे । पूजन के बाद रावण प्रार्थना रूपमें ताण्डव स्तोत्र का गान करता था, तब स्वयं शिवजी प्रकट होकर दर्शन दिया करते थे ।

पर आश्चर्य की बात यह है की वह सुखी नहीं था यह उसका मंत्र ही कहता है -
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ 

हे! शिव मैं आपके मंत्रों का उच्च स्वर से अलाप करता हूँ, पर मैं सुखी कब होउँगा । अर्थात वह सुखी नहीं । तो वह किस सुख की कामना करता था ? वह सुख है "मुक्ती" का । इस राक्षस योनी से मुझे मुक्ती कब मिलेगी यही उसकी कामना थी । 

शिवलिंग

“शिवलिंग” भगवान शंकर का प्रतीक है। उनके निश्छल ज्ञान और तेज़ का यह प्रतिनिधित्व करता है। शिव का अर्थ है- कल्याणकारी। लिंग का अर्थ है - सृजन। 
भगवान शंकर के शिवलिंग की जल, दूध, बेलपत्र से पूजा की जाती है। सर्जनहार के रूप में उत्पादक शक्ति के चिह्न के रूप में लिंग की पूजा होती है। 

सभी देवी-देवताओं की साकार रूप की पूजा होती है लेकिन भगवान शिव ही एक मात्र ऐसे देवता हैं जिनकी पूजा साकार और निराकार दोनों रूप में होती है। शिवपुराण में कहा गया है कि साकार और निराकार दोनों ही रूप में शिव की पूजा कल्याणकारी होती है लेकिन शिवलिंग की पूजा करना अधिक उत्तम है। शिव पुराण के अनुसार शिवलिंग की पूजा करके जो भक्त शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं उन्हें प्रातः काल से लेकर दोपहर से पहले ही इनकी पूजा कर लेनी चाहिए। इस दौरान शिवलिंग की पूजा विशेष फलदायी होती है।

शनिवार, 25 जुलाई 2015

रुद्राभिषेक से लाभ

शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही रुद्र कहा जाता है क्योंकि- “रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र:” यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पटक-से पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है ।

“रूद्रहृदयोपनिषद” में शिव के बारे में कहा गया है कि- “सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:” अर्थात सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।

हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिये तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक की जाती है। 
  • लाभ:

•  रुद्राभिषेक सद्बुद्धि सद्विचार और सत्कर्म की ओर पृवृत्ति होती है ।
• रुद्राभिषेक से मानव की आत्मशक्ति, ज्ञानशक्ति और मंत्रशक्ति जागृत होती है ।
•  रुद्राभिषेक से मानव जीवन सात्त्विक और मंगलमय बनता है ।
•  रुद्राभिषेक से अंतःकरण की अपवित्रता एवं कुसंस्कारो के निवारण के उपरांत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरुषार्थचतुस्त्य की प्राप्ति होती है ।
•  रुद्राभिषेक से असाध्य कार्य भी साध्य हो जाते हैं, सर्वदा सर्वत्र विजय प्राप्त होती है, अमंगलों का नाश होता है, सत्रु मित्रवत हो जाता है ।
•  रुद्राभिषेक से मानव आरोग्य, विद्या, कीर्ति, पराक्रम, धन-धन्य, पुत्र-पौत्रादि अनेकविध ऐश्वर्यों को सहज ही प्राप्त कर लेता है । अगले पोस्ट में - “शिवलिंग” और धातु ।

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

पुत्रदा एकादशी 26 अगस्त​ 2015


सनातन​ धर्म में एकादशी व्रत का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। साल की दो एकादशियों को पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। पौष मास शुक्ल पक्ष और श्रावण मास शुक्ल पक्ष की एकादशियों को पुत्रदा एकादशी कहते हैं।

यह एकादशी व्रत इस वर्ष 26th अगस्त दिन​ बुधवार 2015 को मनाया जायेगा। अपने नाम के अनुसार ही यह एकादशी व्रत पुत्र सुख प्रदान करने वाली मानी जाती है। पद्म पुराण में इस एकादशी के महात्म्य का विस्तार से वर्णन किया गया है।
  • व्रत विधि
इस व्रत के देवता श्री नारायण हैं। जो व्यक्ति संतान सुख की इच्छा रखता है उसे श्रावण मास शुक्ल पक्ष या पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत रखना चाहिए। व्रत रखने वाले को दशमी के दिन लहसुन, प्याज से रहित शुद्घ भोजन करना चाहिए। एकादशी के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत होकर श्री नारायण की भक्ति पूर्वक पूजा करनी चाहिए और दीपदान करना चाहिए। व्रत रखने वाले को दशमी के दिन से ही मन और वचन से ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भगवान का ध्यान करते हुए अपना काम करना चाहिए। जो व्यक्ति यह व्रत रखता है उसे एकादशी के दिन पूरे दिन निराहार रहना होता है। शाम को चाहें तो फलाहार कर सकते हैं। द्वादशी के दिन ब्राह्मण को भोजन करवाकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए। द्वादशी के दिन भी सात्विक भोजन ग्रहण करें। इस प्रकार नियमपूर्वक जो लोग पुत्रदा एकादशी का व्रत करते हैं उनका व्रत ही सफल होता है। 
    • कथा
    एक बार की बात है, श्री युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! श्रावण शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम पुत्रदा है। अब आप शांतिपूर्वक इसकी कथा सुनिए। इसके सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल मिलता है।

    द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति नाम की एक नगरी थी, जिसमें महीजित नाम का राजा राज्य करता था, लेकिन पुत्रहीन होने के कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं लगता था। उसका मानना था कि जिसके संतान न हो, उसके लिए यह लोक और परलोक दोनों ही दु:खदायक होते हैं। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई।

    वृद्धावस्था आती देखकर राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों! मेरे खजाने में अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन नहीं है। न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है। किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ली, प्रजा को पुत्र के समान पालता रहा। मैं अपराधियों को पुत्र तथा बाँधवों की तरह दंड देता रहा। कभी किसी से घृणा नहीं की। सबको समान माना है। सज्जनों की सदा पूजा करता हूँ। इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरे पुत्र नहीं है। सो मैं अत्यंत दु:ख पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है?

    राजा महीजित की इस बात को विचारने के लिए मंत्री तथा प्रजा के प्रतिनिधि वन को गए। वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के दर्शन किए। राजा की उत्तम कामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को देखते-फिरते रहे। एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध धर्म के ज्ञाता, बड़े तपस्वी, परमात्मा में मन लगाए हुए निराहार, जितेंद्रीय, जितात्मा, जितक्रोध, सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों को जानने वाले, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महात्मा लोमश मुनि को देखा, जिनका कल्प के व्यतीत होने पर एक रोम गिरता था।

    सबने जाकर ऋषि को प्रणाम किया। उन लोगों को देखकर मुनि ने पूछा कि आप लोग किस कारण से आए हैं? नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा। मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो।

    लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब लोग बोले- हे महर्षे! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं। अत: आप हमारे इस संदेह को दूर कीजिए। महिष्मति पुरी का धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करता है। फिर भी वह पुत्रहीन होने के कारण दु:खी है।
    उन लोगों ने आगे कहा कि हम लोग उसकी प्रजा हैं। अत: उसके दु:ख से हम भी दु:खी हैं। आपके दर्शन से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा क्योंकि महान पुरुषों के दर्शन मात्र से अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। अब आप कृपा करके राजा के पुत्र होने का उपाय बतलाएँ।
    यह वार्ता सुनकर ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर कहने लगे कि यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था। निर्धन होने के कारण इसने कई बुरे कर्म किए। यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता था। एक समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्याह्न के समय वह जबकि वह दो दिन से भूखा-प्यासा था, एक जलाशय पर जल पीने गया। उसी स्थान पर एक तत्काल की ब्याही हुई प्यासी गौ जल पी रही थी।

    राजा ने उस प्यासी गाय को जल पीते हुए हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा, इसीलिए राजा को यह दु:ख सहना पड़ा। एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीते हुए हटाने के कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है। ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे कि हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है। अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताइए।
    • उद्देश्य
    लोमश मुनि कहने लगे कि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण करो तो इससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप अवश्य नष्ट हो जाएगा, साथ ही राजा को पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी। लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई और जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने पुत्रदा एकादशी का व्रत और जागरण किया।

    इसके पश्चात द्वादशी के दिन इसके पुण्य का फल राजा को दिया गया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसवकाल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ।
    • महिमा
    इसलिए हे राजन! इस श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा पड़ा। अत: संतान सुख की इच्छा हासिल करने वाले इस व्रत को अवश्य करें। इसके माहात्म्य को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है।

    परिवर्तिनी एकादशी


    हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है। यह एकादशी जयंती एकादशी भी कहलाती है। इसका व्रत​ करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी (वामन रूप की) पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं।

    युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन! भाद्रपद शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली तथा सब पापों का नाश करने वाली, उत्तम वामन एकादशी का माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो।

    यह एकादशी जयंती एकादशी भी कहलाती है। इसका यज्ञ करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी (वामन रूप की) पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं। अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य इस व्रत को अवश्य करें।

    जो कमलनयन भगवान का कमल से पूजन करते हैं, वे अवश्य भगवान के समीप जाते हैं। जिसने भाद्रपद शुक्ल एकादशी को व्रत और पूजन किया, उसने ब्रह्मा, विष्णु सहित तीनों लोकों का पूजन किया। अत: हरिवासर अर्थात एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं।
    भगवान के वचन सुनकर युधिष्ठिर बोले कि भगवान! मुझे अतिसंदेह हो रहा है कि आप किस प्रकार सोते और करवट लेते हैं तथा किस तरह राजा बलि बलि को बाँधा और वामन रूप रखकर क्या-क्या लीलाएँ कीं? चातुर्मास के व्रत की क्या विधि है तथा आपके शयन करने पर मनुष्य का क्या कर्तव्य है। सो आप मुझसे विस्तार से बताइए।

    श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! अब आप सब पापों को नष्ट करने वाली कथा का श्रवण करें। त्रेतायुग में बलि नामक एक दैत्य था। वह मेरा परम भक्त था। विविध प्रकार के वेद सूक्तों से मेरा पूजन किया करता था और नित्य ही ब्राह्मणों का पूजन तथा यज्ञ के आयोजन करता था, लेकिन इंद्र से द्वेष के कारण उसने इंद्रलोक तथा सभी देवताओं को जीत लिया।

    सोमवार, 20 जुलाई 2015

    क्या हो शिव पूजन की तैयारी


    • शिव पूजन में समय : शिव पूजन में समय का बड़ा महत्व है, वैसे श्रावण माह में कोई समय निर्धारित नहीं माना गया क्योंकि श्रावण एक पवित्र महीना है और इस माह किसी भी समय शिव पूजन किया सकता है परन्तु श्रावण में सोमवार और प्रदोष का एक अपना ही महत्व है । कारण की सोमवार शिव पूजन का विशेष दिन है और प्रदोष भगवान शिव की रात्री है । तो इन दिनों में भक्त विशेष रूप से शिवार्चन कर सकते हैं ।


    • शिव पूजन में व्रत : शिव पूजन में व्रत का भी बड़ा महत्व है, इसलिए व्रत कब और कैसे रहना है इस बात की जानकारी भी हम नित्य प्रति दिन देते रहेंगे । 

    • व्रत में क्या हो आहार : व्रत में आहार क्या खाएं क्या नहीं, समय क्या रहेगा आहार का यह भी व्रत का एक हिस्सा है । एक तो बरसात का मौसम और दूसरा व्रत इसलिए समय से पूर्व ही आहार से सम्बन्धित पदार्थों को एकत्रित करलेना उत्तम रहेगा ।

    • पार्थिव शिव लिंग : कुछ भक्त शिवालय में जाकर पूजन अर्चन करते हैं तो कुछ स्वग्रह में मिट्टी से निर्माण कर पूजन करते हैं, जो पूरे महीने मिट्टी से अपने घर में शिव पूजन करना चाहते हैं उन्हें समय से पूर्व ही स्वच्छ मिट्टी की व्यवस्था करलेनी चाहिए। मिट्टी काली और चिकनी हो, मिट्टी के अलावा गंगा, नमर्दा तट की वालू से भी शिवलिंग का निर्माण कर पूजन किया जा सकता है ।

    • बेल पत्र : श्रावन माह के शिव पूजन में बेलपत्र का बहुत महत्व है, सावधानी यह बरतें की बेलपत्र फटा न हो उसमें किसी कीड़े के द्वारा बनाया कोई चिन्ह न हो और साफ तीन पत्तियों के अलाबा उसमें गांठ या डण्ठल न हो । समय से पूर्व एकत्रित कर पत्तियों में स्वेत या पीत चन्दन से राम- राम लिखलें । नित्य कम से कम पांच या ग्यारह बेलपत्र चढाना चाहिये ।

    • शिव पूजन में पुष्प : शास्त्रों में कुछ फूलों के चढाने से मिलनेवाले फलका तारतस्य बतलाया है, जैसे- दस सुवर्ण-माप के बराबर सुवर्ण दान का फल एक आक के फूल को चढाने से मिलता है। हजार आक के फूलों के फूलों की अपेक्षा एक कनेर का फूल, हजार कनेर के फूलों के चढाने की अपेक्षा एक बिल्व पत्र से फल मिलता है और हजार बिल्वपत्र की अपेक्षा एक गुमाफूल [ द्रोण-पुष्प ] होता है । इस तरह हजार गुमासे बढकर एक चिचिड़ा, हजार चिचिड़ों [ अपामार्गो ] से बढ़कर एक कुशका फूल, हजार कुश-पुष्पों से बढ़कर एक शमी का पत्ता, हजार शमी के पत्तों से बढ़कर एक नीलकमल, हजारकमलों से बढ़कर एक धतूरा, हजार धतूरों से बढ़कर एक शमी का फूल होता है । अंत में बताया है कि समस्त फूलों की जातियों में सबसे बढ़कर नीलकमल होता है । 

    ***सर्वासां पुष्पजातीनां पर्यावरण नीलमुत्पलम ***

    • शिव पूजन में दूध : शिव पूजन में दूध का महत्व गंगा जल जितना है इसलिए दूध कैसा हो यह भी जानलेना आवश्यक है । पूजन में केवल गाय का दूध ही स्वीकार्य है, वह पका ना हो । दूध को तांबा, लोहा और प्लास्टिक के बर्तनों में नहीं रखना चाहिए और ना ही इन बर्तनों से शिवलिंग पर दूध चढाना चाहिए । पूजन में प्लास्टिक का उपयोग सर्वथा वर्जित माना गया है । तांबा पवित्र धातू है इसके पात्र में दूध दही शहद चन्दन नहीं रखा जाता । रखने पर वह पूजन योग्य नहीं होता । अगले पोस्टमें जानेंगे- क्या है, शिवाभिषेक का महत्व । 

    गुरुवार, 16 जुलाई 2015

    देवशयनी एकादशी


    पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यंत (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को "देवशयनी" तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को "प्रबोधिनी" एकादशी कहते हैं। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, ग्रहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।

    संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।

    धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।

    विधि :
    देवशयनी एकादशी व्रतविधि एकादशी को प्रातःकाल उठें। इसके बाद घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए। व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें।

    देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का। वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का। सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।

    आज के दिन किसका त्याग करें : 
    मधुर स्वर के लिए गुड़ का। दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का। शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का। सौभाग्य के लिए मीठे तेल का। स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का। प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए।

    अजा एकादशी व्रत​


    भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की एकाद्शी अजा एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। इस दिन भगवान श्री विष्णु की पूजा पूजा की जाती है। इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी होती है। अजा एकादशी व्रत का नियम पालन दशमी तिथि की रात से प्रारंभ हो जाता है। एकादशी के दिन सुबह नित्य कर्मों से निवृत्त होकर साफ वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने बैठकर व्रत का संकल्प लें। इस दिन यथासंभव उपवास करें। उपवास में अन्न ग्रहण नहीं करें संभव न हो तो एक समय फलाहारी कर सकते हैं। 

    इसके बाद भगवान विष्णु की पूजा विधि-विधान से करें। भगवान विष्णु को पंचामृत से स्नान कराएं। स्नान के बाद उनके चरणामृत को व्रती (व्रत करने वाला) अपने और परिवार के सभी सदस्यों के अंगों पर छिड़कें और उस चरणामृत को पीएं। इसके बाद भगवान को गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पूजन सामग्री अर्पित करें। 

    विष्णु सहस्त्रनाम का जप एवं उनकी कथा सुनें। रात को भगवान विष्णु की मूर्ति के समीप हो सोएं और दूसरे दिन यानी द्वादशी के दिन वेदपाठी ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देकर आशीर्वाद प्राप्त करें। जो मनुष्य यत्न के साथ विधिपूर्वक इस व्रत को करते हुए रात्रि जागरण करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट होकर अंत में वे स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं। 

    कथा :
    एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य दान में दे दिया है। राजा ने स्वप्न में जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था, उसकी आकृति महर्षि विश्वामित्र से मिलती-जुलती थी। अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुँचे। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में दिया अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे, तभी विश्वामित्र ने राजा से पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ मांगी। राजा ने कहा- "हे ऋषिवर! आप पाँच सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएँ ले सकते हैं।" विश्वामित्र ने कहा- "तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या दान की हुई वस्तु दक्षिणा में देना चाहते हो।"

    तब राजा हरिश्चन्द्र को भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएँ जुटाईं तो सही, परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएँ पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा था, वह जाति से डोम था। वह श्मशान का स्वामी होने के नाते मृतकों के संबंधियों से ऽकरऽ लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था। उस डोम ने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था, जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर ऽअंतिम संस्कारऽ के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे ऽकरऽ वसूल करके उसे अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।

    राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था। हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहाँ एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर माँगा। परन्तु उस अवला के पास कफ़न तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला ऽकरऽ अदा करने के लिए धन कहाँ से आता? कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से ऽअंतिम संस्कारऽ न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका। उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकने लगी। बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे। वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक था, उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व, जिसका सांप के काटने से असमय ही देहान्त हो गया था।

    पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे। उस दिन एकादशी थी और महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। दूसरे परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे। मानो कह रहे हों- "हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे?" परन्तु यह तो उनके परिक्षा की घड़ी थी। उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- "देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊँगा। 

    यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। ऽकरऽ लिए बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।" रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर ऽकरऽ के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले- "हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है, तुम इतिहास में अमर रहोगे।" राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- "भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्याचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।" और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।"

    गंगा जयंती

    गंगा करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केंद्र है। अनेक धर्म ग्रंथों में भी गंगा के महत्व का वर्णन मिलता है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगा सप्तमी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि गंगा की उत्पत्ति इसी दिन हुई थी। इस कारण इस पवित्र तिथि को गंगा जयंती के रूप में मनाया जाता है।

    गंगा जयंती के शुभ अवसर पर गंगा जी में स्नान करने से सात्त्विकता और पुण्यलाभ प्राप्त होता है. वैशाख शुक्ल सप्तमी का दिन संपूर्ण भारत में श्रद्धा व उत्साह के साथ मनाया जाता है । यह तिथि पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने का पर्व है, गंगा जयंती स्कन्दपुराण, वाल्मीकि रामायण आदि ग्रंथों में गंगा जन्म की कथा वर्णित है। भारत की अनेक धार्मिक अवधारणाओं में गंगा नदी को देवी के रूप में दर्शाया गया है. अनेक पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुये हैं। गंगा नदी को भारत की पवित्र नदियों में सबसे पवित्र नदी के रूप में पूजा जाता है।

    मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश होता है. लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा रखते हैं तथा मृत्यु पश्चात गंगा में अपनी राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक समझते हैं। लोग गंगा घाटों पर पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं। गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक माना गया है। गंगाजल को अमृत समान माना गया है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुंभ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, दान एवं दर्शन करना महत्त्वपूर्ण समझा माना गया है। 

    गंगा पर अनेक प्रसिद्ध मेलों का आयोजन किया जाता है। गंगा तीर्थ स्थल सम्पूर्ण भारत में सांस्कृतिक एकता स्थापित करता है गंगा जी के अनेक भक्ति ग्रंथ लिखे गए हैं जिनमें श्रीगंगासहस्रनामस्तोत्रम एवं गंगा आरती बहुत लोकप्रिय हैं।

    गंगा जन्म कथा :
    गंगा नदी हिंदुओं की आस्था का केंद्र है और अनेक धर्म ग्रंथों में गंगा के महत्व का वर्णन प्राप्त होता है। गंगा नदी के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं जो गंगा जी के संपूर्ण अर्थ को परिभाषित करने में सहायक है. इसमें एक कथा अनुसार गंगा का जन्म भगवान विष्णु के पैर के पसीनों की बूँदों से हुआ गंगा के जन्म की कथाओं में अतिरिक्त अन्य कथाएँ भी हैं। जिसके अनुसार गंगा का जन्म ब्रह्मदेव के कमंडल से हुआ. एक मान्यता है कि वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु के चरण धोए और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया और एक अन्य कथा अनुसार जब भगवान शिव ने नारद मुनि, ब्रह्मदेव तथा भगवान विष्णु के समक्ष गाना गाया, तो इस संगीत के प्रभाव से भगवान विष्णु का पसीना बहकर निकलने लगा जिसे ब्रह्मा जी ने उसे अपने कमंडल में भर लिया और इसी कमंडल के जल से गंगा का जन्म हुआ था। 

    गंगा जयंती महत्व :
    शास्त्रों के अनुसार बैशाख मास शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को ही गंगा स्वर्ग लोक से शिव शंकर की जटाओं में पहुंची थी। इसलिए इस दिन को गंगा जयंती और गंगा सप्तमी के रूप में मनाया जाता है। जिस दिन गंगा जी की उत्पत्ति हुई वह दिन गंगा जयंती (वैशाख शुक्ल सप्तमी) और जिस दिन गंगाजी पृथ्वी पर अवतरित हुई वह दिन "गंगा दशहरा" (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) के नाम से जाना जाता है इस दिन मां गंगा का पूजन किया जाता है। गंगा जयंती के दिन गंगा पूजन एवं स्नान से रिद्धि-सिद्धि, यश-सम्मान की प्राप्ति होती है तथा समस्त पापों का क्षय होता है। मान्यता है कि इस दिन गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है। विधिविधान से गंगा पूजन करना अमोघ फलदायक होता है। पुराणों के अनुसा गंगा विष्णु के अँगूठे से निकली हैं, जिसका पृथ्वी पर अवतरण भगीरथ के प्रयास से कपिल मुनि के शाप द्वारा भस्मीकृत हुए राजा सगर के ६०,००० पुत्रों की अस्थियों का उद्धार करने के लिए हुआ था। तब उनके उद्धार के लिए राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर माता गंगा को प्रसन्न किया और धरती पर लेकर आए । गंगा के स्पर्श से ही सगर के ६० हजार पुत्रों का उद्धार संभव हो सका इसी कारण गंगा का दूसरा नाम भागीरथी पड़ा। विभिन्न अवसरों पर गंगा तट पर मेले और गंगा स्नान के आयोजन होते हैं। इनमें कुंभ पर्व, गंगा दशहरा, पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, माघी पूर्णिमा, मकर संक्रांति, गंगा सप्तमी आदि प्रमुख हैं। गंगा को मोक्षदायिनी कहा जाता है।

    क्या है विवाह संस्कार​

    सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक- युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है । भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है । इसलिए कहा गया है "धन्यो गृहस्थाश्रमः" । सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं । वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों के साधकों को वाञ्छित सहयोग देते रहते हैं । ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों- कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्यक है । युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।

    विवाह दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है । दो प्राणी अपने अलग- अलग अस्तित्व को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ और कुछ अपूर्णताएँ दे रखी हैं । विवाह  से एक- दूसरे की अपूर्णताओं की अपनी विशेषताओं से पूर्ण करते हैं, इससे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है । एक- दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति- पथ पर अग्रसर होते जाना विवाह का उद्देश्य है । वासना का दाम्पत्य- जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानतः दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके ।

    विवाह  के चरण :
    1. वर-वरण (तिलक) 2. द्वार पूजा 3. विवाह संस्कार का विशेष कमर्काण्ड 4. कन्या को आशिर्वाद (चढा़व)
    5. परस्पर उपहार 6. हस्तपीतकरण 7. कन्यादान - गुप्तदान 8. गोदान 9. पाणिग्रहण 10. ग्रन्थिबन्धन 11. वर-वधू की प्रतिज्ञाएँ 12. ह्रदयालम्भन​ 13. प्रायश्चित होम 14. शिलारोहण 15. लाजाहोम एवं परिक्रमा (भाँवर) 16. सप्तपदी 17. आसन परिवतर्न 18. पाद प्रक्षालन 19. शपथ आश्वासन 20. मंगल तिलक! 

    कामिका एकादशी व्रत

    श्रावण मास की कृष्ण एकादशी का नाम कामिका है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। इस वर्ष कामिका एकादशी दिनाँक​ 10th अगस्त 2015 को सोमवार के दिन मनाई जाएगी । कामिका एकादशी विष्णु भगवान की अराधना एवं पूजा का सर्वश्रेष्ठ समय होता है।
    व्रत समय :
    एकादशी तिथि का प्रारम्भ दिनाँक​ 09th अगस्त 2015 को 16:58 बजे होगा, और एकादशी तिथि की समाप्ति दिनाँक​ 10 th अगस्त 2015 को 16:45 बजे है । 
    पारण (व्रत तोड़ने का) समय :
    दिनाँक​ 11th को  06:22 से 08:54 तक है । पारण तिथि के दिन द्वादशी समाप्त होने का समय 16:59 तक है ।
    कामिका एकादशी पूजा-विधि :
    एकादशी के दिन स्नानादि से पवित्र होने के पश्चात संकल्प करके श्रीविष्णु विग्रह का पूजन करना चाहिए। भगवान विष्णु को फूल, फल, तिल, दूध, पंचामृत आदि नाना पदार्थ निवेदित करके, विष्णु जी के नाम का स्मरण एवं कीर्तन करना चाहिए। एकादशी व्रत में ब्राह्मण भोजन एवं दक्षिणा का बड़ा ही महत्व है अत: ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करें। इस प्रकार जो कामिका एकादशी का व्रत रखता है उसकी कामनाएं पूर्ण होती हैं। 
    व्रत का महत्व :
    कामिका एकादशी उत्तम फलों को प्रदान करने वाला व्रत है। इस एकादशी के दिन भगवान श्रीविष्णु की पूजा करने से अमोघ फलों की प्राप्ति होती है। इस दिन तीर्थ स्थलों में विशिष स्नान दान करने की प्रथा भी रही है इस एकादशी का फल अश्वमेघ यज्ञ के समान होता है। इस एकादशी का व्रत करने के लिये प्रात: स्नान करके भगवान श्रीविष्णु को भोग लगाना चाहिए। आचमन के पश्चात धूप, दीप, चन्दन आदि पदार्थों से आरती करनी चाहिए।

    कामिका एकादशी व्रत के दिन श्री हरि का पूजन करने से व्यक्ति के पितरों के भी कष्ट दूर होते है। व्यक्ति पाप रूपी संसार से उभर कर, मोक्ष की प्राप्ति करने में समर्थ हो पाता है। इस एकादशी के विषय में यह मान्यता है, कि जो मनुष्य़ सावन माह में भगवान विष्णु की पूजा करता है, उसके द्वारा गंधर्वों और नागों की सभी की पूजा हो जाती है। लालमणी मोती, दूर्वा आदि से पूजा होने के बाद भी भगवान श्री विष्णु उतने संतुष्ट नहीं होते, जितने की तुलसी पत्र से पूजा होने के बाद होते है।
    इस व्रत में क्या खायें :
    चावल व चावल से बनी किसी भी चीज के खाना पूर्णतया वर्जित होता है। व्रत के दूसरे दिन चावल से बनी हुई वस्तुओं का भोग भगवान को लगाकर ग्रहण करना चाहिए। इसमें नमक रहित फलाहार करें। फलाहार भी केवल दो समय ही करें। फलाहार में तुलसी दल का अवश्य ही प्रयोग करना चाहिए। व्रत में पीने वाले पानी में भी तुलसी दल का प्रयोग करना उचित होता है।

    शनिवार, 11 जुलाई 2015

    पापमोचनी एकादशी

    चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को "पापमोचिनी एकादशी" कहते है, अर्थात पाप को नष्ट करने वाली। पापमोचनी एकादशी व्रत व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्त कर उसके लिये मोक्ष के मार्ग खोलती है। इस एकादशी को पापो को नष्ट करने वाली, एकादशी के रुप में भी जाना जाता है।
    एकादशी व्रत विधि : 
    भविष्योत्तर पुराणानुसार इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है। व्रती दशमी तिथि को एक बार सात्विक भोजन करे और मन से भोग विलास की भावना को निकालकर हरि में मन को लगाएं। एकादशी के दिन सूर्योदय काल में स्नान करके व्रत का संकल्प करें। संकल्प के उपरान्त षोड्षोपचार सहित श्री विष्णु की पूजा करें। पूजा के पश्चात भगवान के समक्ष बैठकर भगवत कथा का पाठ अथवा श्रवण करें। एकादशी तिथि को जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है। अत: रात्रि में भी निराहार रहकर भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें। द्वादशी के दिन प्रात: स्नान करके विष्णु भगवान की पूजा करें। 
    कथा:
    भगवान श्री कृष्ण,  अर्जुन से कहते हैं- "राजा मान्धाता ने एक समय में लोमश ऋषि से जब पूछा कि प्रभु यह बताएं कि मनुष्य जो जाने अनजाने पाप कर्म करता है, उससे कैसे मुक्त हो सकता है। राजा मान्धाता के इस प्रश्न के जवाब में लोमश ऋषि ने राजा को एक कहानी सुनाई कि चैत्ररथ नामक सुन्दर वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी ऋषि तपस्या में लीन थे। इस वन में एक दिन मंजुघोषा नामक अप्सरा की नज़र ऋषि पर पड़ी तो वह उनपर मोहित हो गयी और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने हेतु यत्न करने लगी। कामदेव भी उस समय उधर से गुजर रहे थे कि उनकी नज़र अप्सरा पर गयी और वह उसकी मनोभावना को समझते हुए उसकी सहायता करने लगे। अप्सरा अपने यत्न में सफल हुई और ऋषि कामपीड़ित हो गये।

    काम के वश में होकर ऋषि शिव की तपस्या का व्रत भूल गये और अप्सरा के साथ रमण करने लगे। कई वर्षों के बाद जब उनकी चेतना जगी तो उन्हें एहसास हुआ कि वह शिव की तपस्या से विरत हो चुके हैं। उन्हें तब उस अप्सरा पर बहुत क्रोध हुआ और तपस्या भंग करने का दोषी जानकर ऋषि ने अप्सरा को श्राप दे दिया कि तुम पिशाचिनी बन जाओ। श्राप से दु:खी होकर वह ऋषि के पैरों पर गिर पड़ी और श्राप से मुक्ति के लिए अनुनय करने लगी।

    मेधावी ऋषि ने तब उस अप्सरा को विधि सहित चैत्र कृष्ण एकादशी का व्रत करने के लिए कहा। भोग में निमग्न रहने के कारण ऋषि का तेज भी लोप हो गया था। अत: ऋषि ने भी इस एकादशी का व्रत किया, जिससे उनका पाप नष्ट हो गया। उधर अप्सरा भी इस व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि से मुक्त हो गयी और उसे सुन्दर रूप प्राप्त हुआ व स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर गयी।
    महत्व:
    पापमोचनी एकादशी के प्रभाव से मनुष्यों के अनेक पाप नष्ट हो जाते है।

    शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

    विवाह के आठ प्रकार​

    प्राचीन भारतीय विद्वानों के अनुसार इस संस्कार के दो प्रमुख उद्देश्य हैं। मनुष्य विवाह करके देवताओं के लिए यज्ञ करने का अधिकारी हो, और पुत्र उत्पन्न कर वंश वृद्धि कर पितृ ऋण से मुक्ती पाना ।

    परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है। इसलिए कहा गया है ऽधन्यो गृहस्थाश्रमःऽ। सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं।

    विवाह दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है। दो प्राणी अपने अलग-अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं। एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति-पथ पर अग्रसर होते जाना विवाह का उद्देश्य है। वासना का दाम्पत्य-जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानतः दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निमार्ण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके।

    परन्तु आज वह समय नहीं रहा, आज सब जाति बन्धन से मुक्त होकर भी विवाह करते हैं जोकि उचित नहीं कहा जा सकता । विवाह के लिए एक वैद्यिक व्यवस्था बताई गई है, "कन्या" से वर (लड़का) हमेंसा उच्च वर्ण का ही होना चाहिए। यदि वर (लड़का) निम्न वर्ण है और कन्या उच्च वर्ण की है, तो इनसे होने बाली संतान वर्णसंकर कहलाती है ।

    कौन से आठ प्रकार के विवाह :

    १. ब्रह्म विवाह
    यह सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित विवाह माना जाता है। दोनो पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना "ब्रह्म विवाह" कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त करके विदा किया जाता है। आज का "आर्रङेद ंअर्रिअगे" ऽब्रह्म विवाहऽ का ही रूप है।

    २. दैव विवाह
    किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्टान) के मूल्य के रूप अपनी कन्या को दान में दे देना "दैव विवाह" कहलाता है। या यूँ समझें कि कन्या का पिता यज्ञ करने वाले पुरोहित को अपनी सुकन्या का हाथ देता था । यह विवाह भी प्राचीन काल में आदर्श विवाह का रूप माना जाता था पर आज इसका प्रचलन नहीं है ।

    ३. आर्श विवाह
    कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना "अर्श विवाह" कहलाता है। यह विवाह प्राचीन काल में ऋषियों की गृहस्थ बनने की इच्छा जाग्रत होने पर विवाह की स्वीकृत पद्धति थी, ऋषी अपने पसंद की कन्या को गाय बैल का जोड़ा भेंट करता था । कन्या के पिता को रिस्ते की स्वीकृति होने पर कन्या का दान करता था । परन्तु अस्वीकृति होने पर भेंट सादर लौटा दिया जाता था ।

    ४. प्रजापत्य विवाह
    कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना "प्रजापत्य विवाह" कहलाता है।

    ५. गंधर्व विवाह
    परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना "गंधर्व विवाह" कहलाता है। यह आधुनिक प्रेमविवाह का पारंपरिक रूप है परन्तु इसे आदर्श विवाह नहीं माना जाता ।

    ६. असुर विवाह
    कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना "असुर विवाह" कहलाता है।

    ७. राक्षस विवाह
    कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना "राक्षस विवाह" कहलाता है। यह विवाह आदिवाशियों के हरण विवाह का ही एक रूप है। एक कबीला दूसरे कबीले से मैत्री करने के उद्देश्य से जीते हुये कबीले की लड़की को देते थे ।

    ८. पैशाच विवाह
    कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना "पैशाच विवाह" कहलाता है।

    कूर्म अवतार : 11

    इस अवतार को आवेशावतार माना जाता है । जब श्रृष्टी कार्य में कोई संकट आये और देवता उन ब्रह्मका आहवाहन करे तो उस कार्य को पूर्ण करने हेतु परमात्मा ने जो अवतार लिया वह आवेश अवतार माना जाता है। मत्स्य, कूर्म, मोहनी आदि अवतार आवेशावतार कहे जाते हैं। कूर्म के अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नोंकी प्राप्ती की।

    देवराज इन्द्र, दैत्यराज बलि से युद्ध में हार गये स्वर्ग दैत्यों के आधीन था, तब इन्द्र दु:खी हो भगवान विष्णु के पास आये प्रणाम किया और अपनी समस्या बताकर उपाय पूछा।

    तब श्रीनारायण बोले- देवराज एक उपाय है कि तुम राजा बली से मैत्री करलो और मिलकर समुद्र का मंथन करो । समुद्र मंथन से जो अमृत निकलेगा वह आप सभी देवता पीलेना तब आप कभी पराजित नहीं होंगे ।

    "इन्द्र" राजा बली के समक्ष यह बात रखी और बोले- दैत्यराज हम दोनों भाई हैं, दैत्य और देवता दोनों एक पिता की संतान हैं फिर भी हम आपस में लड़ते हैं । मैं चाहता हूँ हम सब मिलकर समुद्र का मंथन करें । और उसमें से जो अमृत निकले उसे मिलकर पीलें फिर हम भी अमर, तुम भी अमर. हमने सब उपाय सोच लिया बस आप हाँ करदो । इस विशाल कार्य को मन्दर पर्वत और वासुकी साँप के सहारे से ही किया जा सकता था, जहाँ पर्वत को मथिनी का डंडा और वासुकी को रस्सी के समान उपयोग किया गया।

    समुद्र का मंथन करने लगे, जहाँ एक तरफ असुर थे और दुसरी तरफ देव थे। लेकिन इस मंथन करने से एक घातक जहर निकलने लगी जिससे घुटन होने लगी और सारी दुनिया पर खतरा आ गया। लेकिन भगवान महादेव बचाव के लिए आए और उस ज़हर का सेवन किया और अपने कंठ में उसे बरकरार रखा जिससे उनका नीलकंठ नाम पड़ा। मंथन जारी रहा लेकिन धीरे धीरे पर्वत डूबने लगा। तभी भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार (कछुआ) में अवतीर्ण हुए एक विशाल कछुए का अवतार लिया ताकि अपने पीट कर पहाड़ को उठा सकें। उस कछुए के पीठ का व्यास १००,००० योजन था।

    कामधेनु, कल्पवृक्ष, शंख, कौस्तुभमणी, ऐरावतहाथी जैसे १४ रत्नों के साथ अमृत कलश के साथ प्रकट हुआ। इस प्रकार से भगवान का कूर्म अवतार हुआ।

    मोहिनी अवतार: 13

    भगवान विष्णु ने दैत्यों को मोहित करने के लिए यह अवतार लिया, आवेस अवतार का अर्थ कार्य की पूर्ती के लिए अवतार लेना, और कार्य पूर्ण होने पर अन्तर ध्यान होना इस आवेस अवतार में भगवान माता-पिता का सहारा नहीं लेते अपितु स्वयं यह रूप ग्रहण कर कार्य पूर्ण करते हैं।

    २४ अवतारों में मात्र यही एक ऐसा अवतार है जिसमे भगवान विष्णु स्त्रीरूप स्वीकारते हैं । अपने नाम के अनुसार ही भगवान का यह रूप जगत को मोहित करने बाला था, और तो और ब्रम्हयोगी भगवान भोले नाथ भी इनके सुन्दर मोहिनी रूपसे नहीं बच पाये थे ।

    इस अवतार का उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण और महाभारत में भी आता है। समुद्र मंथन के समय जब देवताओं व असुरों को सागर से अमृत मिल चुका था, तब देवताओं को यह डर था कि असुर कहीं अमृत पीकर अमर न हो जायें। तब वे भगवान विष्णु के पास गये व प्रार्थना की कि ऐसा होने से रोकें। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत देवताओं को पिलाया व असुरों को मोहित कर अमर होने से रोका।

    समुद्र मंथन से जब अमृत निकला और भगवान ने यह अमृत देवताओं को पिलाया, उस समय "राहू" चंद्रमा का रूप धारण करके अमृत पीने लगा। तब सूर्य और चंद्रमा ने उसके कपट-वेश को प्रकट कर दिया । यह देख भगवान श्रीहरि ने चक्र से उसका मस्तक काट डाला। उसका सर अलग हो गया और भुजाओं सहित धड अलग रह गया । 

    इस प्रकार अमृत पीने से मस्तक कटजाने के बाद भी वह अमर हो गया । अत: मस्तक राहू और धड़ केतू के नाम से प्रकट हुआ । भगवान ने दोनों को नवग्रह में सम्मिलित कर देवताओं के समान पूजित होने का वर्दान दिया । कारण की वह इस घटनाक्रम में निर्दोष था, अपने जीवन को सुरक्षित करने के लिए प्रत्येक जीव कर्म करता है यह उनका स्वभाव है ।

    इसी घटना क्रम में एक और कथा आती है की "महादेव शिव" भगवान विष्णु के इस मोहिनी रूप से मोहित हो उनका पीछा करने लगे । तभी भस्मासुर नामका एक दैत्य जो भगवान शिव से वर्दान प्राप्त कर उन्हें ही भस्म करना चाहता था । तब मोहिनीरूप धारी श्रीहरि ने नृत्य का माध्यम बना उस असुर का नास किया । इस प्रकार भोलेनाथ भगवान के इस मोहिनी रुप को प्रणाम किया, इस प्रकार भगवान श्रीहरि ने इस अवतार में देवताओं की रक्षाकर संसार के सृष्टी कार्य को आगे बढाया ।

    श्रावण में शिव उपासना क्यों? 2

    शिव पुराण के अनुसार देवी सती का देह पिता दक्षके यज्ञ में भस्म होजाने के बाद जब भगवान शिव योग निद्रा में लीन हुये उस समय तारक सुर नाम के दैत्य से सभी देवता व मनुष्य पीड़ित थे । देवराज इन्द्र जब ब्रह्माजी के पास पहुँचे और इस समस्या का हल निकालने को बोले तब ब्रह्माजी ने बताया की तारक असुर को वरदान प्राप्त है की उसकी मृत्यु मात्र शिव पुत्र से ही होगी । परन्तु भगवान शिव इस समय योग निद्रा में लीन हैं और उनकी भार्या देवि सती भी नहीं हैं ऐसे में भगवान शिव के पुत्र होने का प्रश्न ही नहीं उठता । 

    इस विषय में, मैं अनभिग्य हूँ नारायण ही इसका निवारण करेंगे । ब्रह्माजी के साथ देवराज इन्द्र भी वैकुण्ठधाम पधारे, भगवान श्रीहरि की स्तुती गाई तब भगवान श्रीहरि बोले- ब्रह्मदेव मृत्युलोक में राजा हिमालय की कन्या पार्वती हैं उन्हीं से शिवजी का विवाह होगा । भगवान विष्णु ने नारद जी के द्वारा संदेशा दिया और नारद जी राजा हिमालय के पास पहुँचे, राजा ने देवऋषि का राजोचित स्वागत किया और आगमन का कारण पूछा, तब नारदजी भगवान शिव के सौन्दर्य, उनकी कृपालुता का बखान करने लगे यह सुन कन्या पार्वती ने मन में ही शिव का वरण कर किया और शिवाराधना में लग गईं । 

    एक समय नारद जी वन में पुष्प तोड़ते हुए पार्वती जी से मिले तब पार्वती जी ने नारद जी को अपना गुरू स्वीकारते हुए बोली- गुरुदेव शिव प्राप्ती का उपाय क्या है ? 

    नारद जी ने देवी पार्वती को "ॐ नम: शिवाय" यह पंचाक्षरी मन्त्र दिया और बोले- बेटी तुम इस मन्त्र का उच्चारण करते हुये तप करो भगवान शिव अवश्य प्रशन्न होंगे । दीक्षा लेकर पार्वती सखियों के साथ तपोवन में जाकर कठोर तपस्या करने लगीं। उनके कठोर तप का वर्णन शिवपुराण में आया है-

    हित्वा हारं तथा चर्म मृगस्य परमं धृतम्। 
    जगाम तपसे तत्र गंगावतरणं प्रति॥

    माता-पिता की आज्ञा लेकर पार्वती ने सर्वप्रथम राजसी वस्त्रों का अलंकारों का परित्याग किया। उनके स्थान पर मूंज की मेखला धारण कर वल्कल वस्त्र पहन लिया। हार को गले से निकालकर मृग चर्म धारण किया और गंगावतरण नामक पावन क्षेत्र में सुंदर वेदी बनाकर वे तपस्या में बैठ गईं।

    ग्रीष्मे च परितो प्रज्वलन्तं दिवानिशम्। 
    कृत्वा तस्थौ च तन्मध्ये सततं जपती मनुम ॥१॥
    एवं तपः प्रकुर्वाणा पंचाक्षरजपे रता।
    दध्यौ शिवं शिवा तत्र सर्वकालफलप्रदम ॥२॥

    पार्वतीजी ग्रीष्मकाल में अपने चारों ओर अग्नि जलाकर बीच में बैठ गईं तथा ऊपर से सूर्य के प्रचंड ताप को सहन करती हुई तन को तपाती रहीं। वर्षाकाल में वे खुले आकाश के नीचे शिलाखंड पर बैठकर दिन-रात जलधारा से शरीर को सींचती रहीं।

    भयंकर शीत-ऋतु में जल के मध्य रात-दिन बैठकर उन्होंने कठोर तप किया। इस प्रकार निराहार रहकर पार्वती ने पंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए सकल मनोरथ पूर्ण करनेवाले भगवान सदाशिव के ध्यान में मन को लगाया। 

    एक हजार वर्ष तक मूल और फल का सौ वर्ष केवल शाक का आहार किया। कुछ दिन तक पानी का हवा का आहार किया, कुछ दिन इन्हें भी त्यागकर कठिन उपवास किया। पुनः वृक्ष से गिरी हुई बेल की सूखी पत्तियां खाकर तीन हजार वर्ष व्यतीत किया। जब पार्वती ने सूखी पत्तियां लेना बंद कर दिया तो उनका नाम अपर्णा पड़ गया। पार्वती को कठोर तपस्या की देखकर आकाशवाणी हुई कि हे देवि! तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो गए। अब तुम हठ छोड़कर घर जाओ, भगवान शंकर से शीघ्र मिलन होगा।

    तब सावन माह में शिव जी ने देवी पार्वती के तप से प्रसन्न हो दर्शन दिया। यही कारण है की सावन माह में तप, व्रत, अर्चन करने से भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं और मनोकामना पूर्ण करते हैं ।